महाराजा सूरजमल का इतिहास | भरतपुर रियासत का विस्तार

महाराजा सूरजमल नाम है उस राजा का,महाराजा सूरजमल  जिसने मुगलों के सामने कभी घुटने नहीं टेके

राजस्थान की रेतीली जमीन में चाहे अनाज की पैदावार भले ही कम होती रही हो, पर इस भूमि पर वीरों की पैदावार सदा ही आधिक्य से हुई है। अपने पराक्रम और शौर्य के बल पर इन वीर योद्धाओं ने राजस्थान के साथ-साथ पूरे भारतवर्ष का नाम समय-समय पर रौशन किया है। कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान नाम पड़ने से पहले इस मरू भूमि को 'राजपुताना' कहकर पुकारा था। इस राजपूताने में अनेक राजपूत राजा-महाराजा पैदा हुए

पर आज की कहानी है, इन राजपूत राजाओं के बीच पैदा हुए इतिहास के एकमात्र जाट महाराजा सूरजमल की है । जिस दौर में राजपूत राजा मुगलों से अपनी बहन-बेटियों के रिश्ते करके जागीरें बचा रहे थे। उस दौर में यह बाहुबली अकेला मुगलों से लोहा ले रहा था। सूरजमल को स्वतंत्र हिन्दू राज्य बनाने के लिए भी जाना जाता है।

महाराजा सूरजमल का जन्म 13 फरवरी 1707 में हुआ था। यह इतिहास की वही तारीख है, जिस दिन हिन्दुस्तान के बादशाह औरंगजेब की मृत्यु हुई थी। मुगलों के आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब देने में उत्तर भारत में जिन राजाओं का विशेष स्थान रहा है, उनमें राजा सूरजमल का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है। उनके जन्म को लेकर यह लोकगीत काफ़ी प्रचलित है.

'आखा' गढ गोमुखी बाजी, माँ भई देख मुख राजी
धन्य धन्य गंगिया माजी, जिन जायो सूरज मल गाजी
भइयन को राख्यो राजी, चाकी चहुं दिस नौबत बाजी.'



वह राजा बदनसिंह के पुत्र थे। महाराजा सूरजमल कुशल प्रशासक, दूरदर्शी और कूटनीति के धनी सम्राट थे। सूरजमल किशोरावस्था से ही अपनी बहादुरी की वजह से ब्रज प्रदेश में सबके चहेते बन गये थे। सूरजमल ने सन 1733 में भरतपुर रियासत की स्थापना की थी।

सूरजमल के शौर्य गाथाएं


राजा सूरजमल का जयपुर रियासत के महाराजा जयसिंह से अच्छा रिश्ता था। जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में रियासत के वारिश बनने को लेकर झगड़ा शुरु हो गया। सूरजमल बड़े पुत्र ईश्वरी सिंह को रियासत का अगला वारिस बनाना चाहते थे, जबकि उदयपुर रियासत के महाराणा जगतसिंह छोटे पुत्र माधोसिंह को राजा बनाने के पक्ष में थे।

इस मतभेद की स्थिति में गद्दी को लेकर लड़ाई शुरु हो गई। मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरी सिंह की जीत हुई। लड़ाई यहां पूरी तरह खत्म नहीं हुई। माधोसिंह मराठों, राठोड़ों और उदयपुर के सिसोदिया राजाओं के साथ मिलकर वापस रणभूमि में आ गया। ऐसे माहौल में राजा सूरजमल अपने 10,000 सैनिकों को लेकर रणभूमि में ईश्वरी सिंह का साथ देने पहुंच गये।


सूरजमल को युद्ध में दोनों हाथो में तलवार ले कर लड़ते देख राजपूत रानियों ने उनका परिचय पूछा तब सूर्यमल्ल मिश्र ने जवाब दिया-

'नहीं जाटनी ने सही व्यर्थ प्रसव की पीर, जन्मा उसके गर्भ से सूरजमल सा वीर'.


इस युद्ध में ईश्वरी सिंह को विजय प्राप्त हुई और उन्हें जयपुर का राजपाठ मिल गया। इस घटना के बाद महाराजा सूरजमल का डंका पूरे भारत देश में बजने लगा। 1753 तक महाराजा सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला तक अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ा लिया था। इस बात से नाराज़ होकर दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने सूरजमल के खिलाफ़ मराठा सरदारों को भड़का दिया।

मराठो ने भरतपुर पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने कई महीनों तक कुम्हेर के किले को घेर कर रखा। मराठा इस आक्रमण में भरतपुर पर तो कब्ज़ा नहीं कर पाए, बल्कि इस हमले की कीमत उन्हें मराठा सरदार मल्हारराव के बेटे खांडेराव होल्कर की मौत के रूप में चुकानी पड़ी। कुछ समय बाद मराठों ने सूरजमल से सन्धि कर ली।

लोहागढ़ किला ( Lohagad fort )


सूरजमल ने अभेद लोहागढ़ किले का निर्माण करवाया था, जिसे अंग्रेज 13 बार आक्रमण करके भी भेद नहीं पाए। मिट्टी के बने इस किले की दीवारें इतनी मोटी बनाई गयी थी कि तोप के मोटे-मोटे गोले भी इन्हें कभी पार नहीं कर पाए. यह देश का एकमात्र किला है, जो हमेशा अभेद रहा।


तत्कालीन समय में सूरजमल के रुतबे की वजह से जाट शक्ति अपने चरम पर थी। सूरजमल से मुगलों और मराठों ने कई मौको पर सामरिक सहायता ली। आगे चलकर किसी बात पर मनमुटाव होने की वजह से सूरजमल के सम्बन्ध मराठा सरदार सदाशिव भाऊ से बिगड़ गए थे।

उदार प्रवृति के धनी


पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली से हुआ। इस युद्ध में हजारों मराठा योद्धा मारे गए। मराठों के पास रसद सामग्री भी खत्म चुकी थी। मराठों के सम्बन्ध अगर सूरजमल से खराब न हुए होते, तो इस युद्ध में उनकी यह हालत न होती। इसके बावजूद सूरजमल ने अपनी इंसानियत का परिचय देते हुए, घायल मराठा सैनिकों के लिए चिकित्सा और खाने-पीने का प्रबन्ध किया।

भरतपुर रियासत का विस्तार


उस समय भरतपुर रियासत का विस्तार सूरजमल की वजह से भरतपुर के अतिरिक्त धौलपुर, आगरा, मैनपुरी, अलीगढ़, हाथरस, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुडगांव और मथुरा तक पहुंच गया था।


राजा सूरजमल सुयोग्य शासक था। उसने ब्रज में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य को बना इतिहास में गौरव प्राप्त किया। उसके शासन का समय सन् 1755 से सन् 1763 है। वह सन् 1755 से कई साल पहले से अपने पिता बदनसिंह के शासन के समय से ही वह राजकार्य सम्भालता था।

भारत के इतिहास में सूरजमल को 'जाटों का प्लेटो' कहकर भी सम्बोधित किया गया है। राजा सूरजमल के दरबारी कवि 'सूदन' ने राजा की तारीफ में 'सुजानचरित्र' नामक ग्रंथ लिखा। इस ग्रंथ में सूदन ने राजा सूरजमल द्वारा लड़ी लड़ाईयों का आँखों देखा वर्णन किया है। इस ग्रन्थ में सन् 1745 से सन् 1753 तक के समय में लड़ी गयी लड़ाईयों (7 युद्धों )का वर्णन है।

इन लड़ाईयों में सूदन ने भी भाग लिया था, इसलिए उसका वर्णन विश्वसनीय कहा जा सकता है। इस ग्रंथ में आमेर के राजा जयसिंह के निधन के बाद उसके बड़े बेटे ईश्वरीसिंह का मराठों के ख़िलाफ़ लड़ा गया सन् 1747 का युद्ध, आगरा और अजमेर के सूबेदार सलावत ख़ाँ से लड़ा गया

सन् 1748 का युद्ध और सन् 1753 की दिल्ली की लूट का वर्णन उल्लेखनीय है। इस ग्रंथ में सूरजमल की सन् 1753 के बाद की घटनाओं का वर्णन नहीं है। राजकवि सूदन का निधन सम्भवतः सन् 1753 के लगभग ही हो गया होगा। सम्भवतः इसी से बाद में लड़ी लड़ाईयों का विवरण नहीं मिलता है। इस पुस्तक में दिल्ली की लूट का विवरण महत्त्वपूर्ण है।

दिल्ली की लूट


सल्तनत काल से मुग़लकाल तक लगभग छह सौ सालों में ब्रज पर आयीं मुसीबतों का कारण दिल्ली के मुस्लिम शासक थे, इस कारण ब्रज में इन शासकों के लिए बदले, क्रोध और हिंसा की भावना थी जिसका किए गये विद्रोहों से पता चलता है। दिल्ली प्रशासन के सैनिक अधिकारी अपनी धर्मान्धता की वजह से लूटमार थे।
महाराजा सूरजमल के समय में परिस्थितियाँ बदल गईं थी।


यहाँ के वीर व साहसी पुरुष किसी हमलावर से स्वसुरक्षा में ही नहीं, बल्कि उस पर हमला करने में ख़ुद को काबिल समझने लगे। सूरजमल द्वारा की गई 'दिल्ली की लूट' का विवरण उनके राजकवि सूदन द्वारा रचित 'सुजान चरित्र' में मिलता है। सूदन ने लिखा है कि महाराजा सूरजमल ने अपने वीर एवं साहसी सैनिकों के साथ सन् 1753 के बैसाख माह में दिल्ली कूच किया।

मुग़ल सम्राट की सेना के साथ राजा सूरजमल का संघर्ष कई माह तक होता रहा और कार्तिक के महीने में राजा सूरजमल दिल्ली में दाखिल हुआ। दिल्ली उस समय मुग़लों की राजधानी थी। दिल्ली की लूट में उसे अथाह सम्पत्ति मिली, इसी घटना का विवरण काव्य के रूप में 'सुजान−चरित्र' में इस प्रकार किया है


महाराजा सूरजमल का यह युद्ध जाटों का ही नहीं वरन ब्रज के वीरों की मिलीजुली कोशिश का परिणाम था। इस युद्ध में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के अलावा गुर्जर, मैना और अहीरों ने भी बहुत उल्लास के साथ भाग लिया। सूदन ने लिखा है।

इस युद्ध में गोसाईं राजेन्द्र गिरि और उमराव गिरि भी अपने नागा सैनिकों के साथ शामिल थे। महाराजा सूरजमल को दिल्ली की लूट में जो अपार धन मिला था, उसे जनहित कार्यों और निर्माण कार्यों में प्रयोग किया गया। दिल्ली विजय के बाद महाराजा सूरजमल ने गोवर्धन जाकर श्री गिरिराज जी की पूजा थी; और मानसी गंगा पर दीपोत्सव मनाया।

मराठों की गतिविधियाँ


जब ब्रज और उसके आस पास महाराजा सूरजमल का साम्राज्य था, उसी समय  मराठा पेशवाओं की सैनिक गतिविधियाँ भी तेज़ हो गयीं। पेशवाओं की शक्ति का विस्तार दक्षिण से दिल्ली तक हो गया था और मुग़ल शासक भी भयभीत था। ऐसे समय में सूरजमल को मुग़लों के साथ साथ मराठों से भी अपने राज्य की रक्षा और अधिकार के लिए लड़ना पड़ा। उसकी शक्ति धीरे धीरे क्षीण हो रही थी।

अब्दाली के आक्रमण


इसी समय अहमदशाह अब्दाली ने देश पर हमला कर दिया, मराठों ने उधर ध्यान नहीं दिया वे जाटों और राजपूतों से लड़कर कमज़ोर होते रहे। मराठों ने जहाँ ख़ुद को कमज़ोर किया वहीं राजपूतों को भी कमज़ोर किया और अहमदशाह अब्दाली को आक्रमण करने का मौक़ा दे दिया ।

लूट के बाद का ब्रज


अब्दाली की लूटमार सन् 1756−57 में हुई थी। किसी ने भी लुटेरों का विरोध नहीं किया। लुटेरे आये और दिल्ली से आगरा तक के ही समृद्धिशाली राज्य को लूट कर चले गये। औरंगजेब के अत्याचारों से सहमा ब्रजमंड़ल लम्बे समय तक संभल नहीं पाया। ऐसी परिस्थिति में मराठा सरदार चुप्पी लगा गये और सूरजमल अपने क़िले में छिपा रहा। इसके बाद अब्दाली ने कई हमले किये, जिनमें वह हमेशा कामयाब रहा।

पानीपत की लड़ाई में महाराजा सूरजमल 


सन 1761 में पानीपत का ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमें राजपूत−जाट−मराठा जैसे शक्तिशाली और वीर सैनिकों के होते हुए भी देश को हार का सामना करना पड़ा। मुख्य कारण हिन्दू शासकों का आपस में मेल न होना था। अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से सबक़ लेकर मराठों और जाटों ने संधि की, लेकिन वे राजपूतों से गठजोड़ करने में कामयाब नहीं हुए।

वे अपने ही बलबूते पर अब्दाली को ख़त्म करने के लिए प्रतिज्ञाबध्द थे। इस लड़ाई में मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ और सूरजमल नीतिगत मतभेद हो गये। भाऊ ने सूरजमल के साथ अपमान पूर्ण वार्ता की थी । सूरजमल नाराज़ होकर अपनी सेना के साथ वापिस चला गया। मराठा सरदार को अपनी ताक़त पर बहुत भरोसा था, उसने जाटों की बिल्कुल परवाह नहीं की।

युद्ध में अफ़ग़ान सैनिक और भारत के मुसलमान रूहेले थे, जो लगभग 62 हज़ार थे, दूसरी तरफ अकेले मराठा सैनिक थे, जिनकी संख्या 45 हज़ार थीं। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। उसमें मराठाओं ने बहुत वीरता दिखलाई; किंतु संख्या की कमी और प्रबंधकीय शिथिलता होने के कारण मराठा हार गये। उस युद्ध में सैनिक बहुत संख्या में मारे गये। भरतपुर के 'मथुरेश' कवि ने इस स्थिति पर दुख जताते हुए कहा है −

"नाँच उठी भारत की भावी सदाशिव शीश, ओंधी हुई बुद्धि उस जनरल महान की ।
होती न हीन दशा हिन्दी−हिन्द−हिन्दुओं की, मानता जो भाऊ, कहीं सम्मति सुजान की।।"


पानीपत के युद्ध में पराजित और घायल सैनिकों के खान−पान और सेवा−शुश्रुषा और दवा−दारू की व्यवस्था सूरजमल की ओर से की गई थी

जाट राज्य का विस्तार


पानीपत में अफ़ग़ानी पठानों और रूहेलों की जीत ज़रूर हुई ; लेकिन हानि मराठाओं से कम नहीं हुई। अहमदशाह अब्दाली अफ़ग़ानिस्तान लौट गया। रूहेले भी थके होने से प्रभावशाली क़दम उठाने में असमर्थ थे। पराजय से मराठों की तो जैसे कमर ही टूट गई थी ।

हालांकि वे शीघ्र ही फिर से बलशाही हो गये थे, निजाम दक्षिणी शक्तियों का दमन करने के कारण उत्तर की ओर देखने की स्थिति में नहीं थे। यह परिस्थितियाँ सूरजमल को अपनी शक्ति विस्तृत करने के लिए अनुकूल लगी। पानीपत से बिना लड़े वापिस आने से उसकी शक्ति सुरक्षित थी। सूरजमल ने मुग़लों की राजधानी आगरा को लूटा और अधिकार कर अपने राज्य में मिला लिया।

इसके बाद हरियाणा के बलूची शासक मुसब्बीख़ाँ पर हमला कर उसे हराया और कैद कर भरतपुर भेज दिया। उसकी राजधानी फर्रूखनगर को उसने अपने बड़े पुत्र जवाहर सिंह को सौंपा और उसे मेवाती क्षेत्र का स्वामी बना दिया। आगरा से लेकर दिल्ली के पास तक सूरजमल की तूती बोलने लगी।

उसे अपने अधिकृत क्षेत्र की प्रभु−सत्ता को दिल्ली के मुग़ल सम्राट् से स्वीकृत कराना था। उस समय शक्तिहीन मुग़ल सम्राट का संरक्षक उसका शक्तिशाली रूहेला वज़ीर नजीबुद्धोला था, जिसे अहमदशाह अब्दाली का भी समर्थन प्राप्त था। वह जाटों का कट्टर बैरी था। उसने मुग़ल सम्राट की ओर से जाट राजा की इस माँग को ठुकरा दिया। सूरजमल ने अपने अधिकार को स्वीकृत कराने के उद्देश्य से अपनी सेना को दिल्ली चलने का आदेश किया।

रूहेला वज़ीर भी जाटों का सामना करने की तैयारी करने लगा। उसने अहमदशाह अब्दाली और अन्य रूहेले सरदारों के पास संदेश भेजकर सहायतार्थ दिल्ली आने का निमन्त्रण भेजा। फिर उसने चारों ओर के फाटक बंद करा कर उसकी समुचित रक्षा के लिए शाही सेना को तैनात कर दिया। जाट सेना ने दिल्ली पहुँच कर उसे चारों ओर से घेर लिया।

महाराजा सूरजमल की मृत्यु


रूहेला वज़ीर अब्दाली की सेना आने तक युद्ध को टालना चाहता था; किंतु सूरजमल इसके लिए तैयार न था। जाटों की सेना दिल्ली के निकट यमुना और हिंडन नदियों के दोआब में एकत्र थी और शाही सेना दिल्ली नगर की चारदीवारी के अंदर थी।

सूरजमल की सेना की एक टुकड़ी ने दिल्ली पर गोलाबारी आरंभ कर दी। जवाब देने के लिए शाही सेना को भी बाहर आकर मोर्चा ज़माना पड़ा; किंतु उन्हें जाटों की मार के कारण पीछे हटना पड़ा। उसी समय सूरजमल ने केवल 30 घुड़सवारों के साथ शत्रु की सेना में घुसने की दुस्साहसपूर्ण मूर्खता कर डाली और व्यर्थ में ही अपनी जान गँवानी पड़ी। सूरजमल की मृत्यु अचानक और अप्रत्याशित ढंग से हुई।

एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक ही वह शत्रु सेना से घिर गया। उसने अपने मुट्ठी भर सैनिकों से एक बड़ी सेना का सामना किया और वीरता पूर्वक युद्ध करता हुआ मारा गया। उसकी मृत्यु सं. 1820 (ता. 25 दिसंबर सन् 1763 रविवार) में हुई थी। उस समय उसकी आयु 55 वर्ष की थी।

सूरजमल का विशाल साम्राज्य एवं सेना


ब्रज के जाट राजाओं में सूरजमल सबसे प्रसिद्ध शासक, कुशल सेनानी, साहसी योद्धा और सफल राजनीतिज्ञ था। उसने जाटों में सब से पहले राजा की पदवी धारण की थी। और एक शक्तिशाली हिन्दू राज्य का संचालन किया था। उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें डीग−भरतपुर के अतिरिक्त मथुरा, आगरा, धौलपुर, हाथरस, अलीगढ़, एटा मैनपुरी, गुडगाँव, रोहतक, रेवाड़ी, फर्रूखनगर और मेरठ के ज़िले थे।

एक ओर यमुना से गंगा तक और दूसरी ओर चंबल तक का सारा प्रदेश उसके राज्य में सम्मिलित था। सूरजमल की सेना विशाल थी। उसमें 60 हाथी, 500 घोड़े, 1500 अश्वारोही, 25000 पैदल और 300 तोपें थीं। अपनी मृत्यु के समय उसने लगभग 10 करोड़ रुपया राजकोश में छोड़ा था ।

साहित्यकारों का आश्रयदाता


सूरजमल ब्रजभाषा साहित्य का प्रेमी और कवियों का आश्रयदाता था। उसके दरबार में अनेक कवि थे, जिनमें सूदन कवि का नाम प्रसिद्ध था। सूरजमल के बाद जवाहर सिंह जाटों का राजा हुआ। जाटों की आरंभिक राजधानी डीग थी। किंतु सूरजमल ने भरतपुर के कच्चे क़िले को पक्का बनाकर वहाँ अपनी राजधानी बनाई थी।

महाराजा सूरजमल के निर्माण कार्य


दिल्ली और आगरा के श्रेष्ठ मिस्तरी, झुंड बनाकर बदनसिंह और सूरजमल के दरबारों में रोज़गार ढूँढ़ने आते थे। इन दोनों ने ही अपने विपुल एवं नव-अर्जित धन का उपयोग कलाकृतियों के सृजन के लिए किया। भरतपुर राज्य में सुव्यवस्था और जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा थी, जो अन्यत्र दुर्लभ थीं, और जिसके लिए लोग तरसते थे। इसके विपरीत, दिल्ली और आगरा में अशान्ति और अव्यवस्था थी।

इस समय बदनसिंह के पास जन, धन और साधन-सभी कुछ था। अपने भवन-निर्माण-कार्यक्रम के लिए उसने जीवनराम बनचारी को अपना निर्माण-मन्त्री नियुक्त किया। बनचारी बहुत योग्य और सुरुचि सम्पन्न व्यक्ति था। अपने लिए उसने एक बड़ा लाल पत्थर का मकान बनवाया था, जो आजकल स्थानीय चिकित्सा अधिकारियों के क़ब्ज़े में है।

युद्ध के मैदान में ही मिली इस वीर को वीरगति


हर महान योद्धा की तरह महाराजा सूरजमल को भी वीरगति का सुख समरभूमि में प्राप्त हुआ।  25 दिसम्बर 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हिंडन नदी के तट पर हुए युद्ध में सूरजमल वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी वीरता, साहस और पराक्रम का वर्णन सूदन कवि ने 'सुजान चरित्र' नामक रचना में किया है।


हमारे इतिहास को गौरवमयी बनाने का श्रेय सूरजमल जैसे वीर योद्धाओं को ही जाता है. जिन्होंने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। ऐसे सच्चे सपूतों को हमेशा वीर गाथाओं में याद किया जाएगा।

Specially thanks to - हीरालाल जाट, अध्यापक चण्डावल नगर, सोजत जिला पाली

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