रामवृक्ष बेनीपुरी(Ramvriksha Benipuri)

रामवृक्ष बेनीपुरी(Ramvriksha Benipuri)


साहित्यकार सूची
रामवृक्ष बेनीपुरी जी भारत के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, 

निबंधकार और नाटककार थे। बेनीपुरी जी एक महान विचारक, 

चिन्तक, मनन करने वाले क्रान्तिकारी, साहित्यकार, पत्रकार और

संपादक के रूप में भी अविस्मणीय हैं। बेनीपुरी जी हिन्दी साहित्य 

के 'शुक्लोत्तर युग' के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। ये एक सच्चे देश भक्त 

और क्रांतिकारी भी थे। इन्होंने 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' में आठ 

वर्ष जेल में बिताये। हिन्दी साहित्य के पत्रकार होने के साथ ही इन्होंने कई समाचार पत्रों, जैसे- 'युवक' (1929) आदि भी निकाले। इसके अलावा कई राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता संग्राम संबंधी कार्यों में भी संलग्न रहे।

रामवृक्ष बेनीपुरी का विस्तृत जीवन परिचय?

जन्म एवं जन्म भूमि
मुज़फ़्फ़र जिले का छोटा गांव बेनीपुर! बागमती नदी की बाढ़ के पेट में हर साल तबाही और बर्बादी के कपड़ों से जूझता! एक गरीब किसान का बेटा! 23 दिसम्बर 1899 कि सुबह जब उसने एक झोपड़ी में जन्म लिया तो पूर्वी क्षितिज पर घने बादलों को और को आने के मोटे, धुँधले पत्तों को बाल सूरज फाड़ने ने को जूझ रहा था। बेनीपुरी का यह शुभ मुहूर्त बन गया।
" बेनीपुरी जी का जन्म एक ऐसे गरीब किसान परिवार में हुआ था, जिसका प्रत्येक सदस्य कड़ी मेहनत करके भी   साधारण ग्रस्त जीवन नहीं व्यतीत कर सकता था।"
बेनीपुर बागमती नदी के किनारे बसा हुआ है। मुजफ्फरपुर से वह उत्तर में 19 मील की दूरी पर आया हुआ है। मुजफ्फरपुर सीतामढ़ी वाली बस में बदल जाना पड़ता है। यहां वहां से आधा मील की दूरी पर पैदल यात्रा से बेनीपुर जा सकते हैं। श्री रामगोपाल ने इस गांव के संबंध में और उसके गांव को अमर कर देने वाले बेनीपुरी जी के संबंध में उचित ही का है -"बेनीपुर हमारा साहित्यक तीर्थ" है। जिस बेनीपुर की मिट्टी ने बेनीपुरी जैसे साहित्यकार को जन्म दिया है बेनीपुर की ही समान श्रध्देय और परणम्य में हैं।

नाम
बचपन में बेनीपुरी जी का नाम 'रामवृक्ष' उनके ममहर वालों ने रखा। वैसे इन नाम के पीछे उनके माता-पिता का धार्मिक भाव ही जिम्मेदार था बचपन में बेनीपुरी जीने तुलसी कृत 'रामचरितमानस' की चौपाइयों का अर्थ लगाना ही भी सीखा था।
बालक रामवृक्ष मैं अपने माता पिता की एकमात्र संतान थे। इसलिए उनके मन में यह लालसा थी कि इस नाम के पीछे वृक्ष की तरह से रामवृक्ष वंश की शाखा प्रशाखाऍ ही निकलेगी और एक दिन उनके पिताजी कुलवंत जी का वंश राम के परिवार की तरह फूला-फला करेगा। इस प्रकार बेनीपुरी जी का नाम रामवृक्ष रखने के पीछे यह दिलचस्प बात जानने को मिलती है।

"उपनाम"
बेनीपुरी जी का नाम रामवृक्ष शर्मा है लेकिन अपने गांव के नाम बेनीपुर पर से इन्होंने अपना उपनाम "बेनीपुरी" रखा है इसके संबंध में आचार्य रामलोचन शरण ने कहा है:
बेनीपुरी पहले रामवृक्ष शर्मा लिखते थे और रामलोचन ने ही उन्हें बेनीपुरी लिखने के लिए कहा था तब से वह भी नहीं पूरी हो गये
बेनीपुरी जी के पूर्वज वंशज अपने नाम के पीछे शर्मा, सिंह, चौधरी लिखा करते थे। लेकिन बेनीपुरी जी को अपनी जन्म भूमि से बहुत ही अनुराग था, स्नेह था। अतः में इन्होंने अपने गांव  बेनीपुर से  उपनाम रख दिया। अपनी वंश परंपरा मैं बेनीपुरी नाम की उपाधि जोड़ना निश्चित ही उनका साहसिक एवं बुद्धि गम्य कदम था। बाद में यह उपाधि इतनी प्रचलित हो गई की हिंदी साहित्य में उनके मूल नाम का पर्याय बन गई और वह 'बेनीपुरी" के नाम से मशहूर हो गई। एक पूरातत्वज्ञ ने बेनीपूरी जी के बारे में कहा की वृज्जियों के आठ कुलों में शायद उनका वंश है।

बेनीपुरी जी का बचपन
बचपन में बालक रामवृक्ष को उनके रिश्तेदार बबुआ कहकर बुलाते थे बालक रामवृक्ष की मां भी उन्हें अपनी आंखों की पुतली बनाए रखती थी।परिवार के सभी सदस्य बेनीपुरी को बहुत ही प्यार,स्नेह करते थे।  उसकी  माँ  उसकी सारी इच्छाएं पूरी करती थी इसी लाड़ प्यार ने उसे जिद्दी बना दिया था।  बालक राम रक्षा अपनी मां को बहुत परेशान करता था अपने खिलौने और घर की चीजो को तोड़ देता कपड़े फाड़कर नंगे बदन घूमता रहता था यदि उसे कोई डांटता तो उसकी मां रोने लगती अपनी मां की महिमा का गान करते हुए बेनीपुरी जी ने लिखा है-
"मैं जो कुछ हूं सब लोगों की तपस्या,दया और करुणा का प्रभाव है"
मां के निधन के पश्चात पिताजी ने दूसरी शादी की सौतेली मां की गोद में जब एक बच्ची थी तब उसके पिताजी भी पायरी की बीमारी से चल बसे राम वृक्ष के बाल मानस पर यह दूसरा आकाश था पिताजी की मृत्यु की दुखद घटना उसके जीवन परिवर्तन का मुख्य कारण बन गई इसीलिए बेनीपुरी जी ने एक जगह पर लिखा है-
"मेरे लिए अभी शाप की वरदान बन कर बरसते आए हैं"

प्रारंभिक संस्कार
रामवृक्ष के मामा जी द्वारका सिंह जी पितामह यदुनंदन सिंह से आग्रह कर बालक रामवृक्ष को अपने गांव ननिहाल बंशीपचड़ा ले गये। तब से 15 वर्ष तक रामवृक्ष वही रहा। इस तरह रामवृक्ष के प्रारम्भिक दिन अपने गाँव बेनीपुरी और बंशीपचड़ा में बीते।
बंशीपचड़ा मैं बालक बेनीपुरी की प्राथमिक शिक्षा पूरी हुई। वहां से साधुता की ओर मुड़े वहाँ प्रायः रामायण का पाठ होता था। अंतः धीरे धीरे रामायण कन्ठस्थ होने लगी तुलसी कृत रामायण का यही पाठ जिसने उनके हृदय में  साहित्यिक्ता का बीज बोया।
बंशीपचड़ा के प्राकृतिक दृश्यों का भी उन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। उनके उपन्यासों में बन बंशीपचड़ा की ही प्रकृति आ गयी है। इस तरह बागमती नदी की बाढ़ ने बेनीपुरी को उत्साह दिया, जोर दिया। तुलसी कृत रामायण के प्रारंभिक पाठो में उनके धार्मिक प्रवृति की जगाई जो बाद में ढाल की तरह कुकर्मो से उनकी रक्षा करती थी। उनके जीवन में सादगी का जो महत्व था, उसके मूल में यही साधुता की प्रवृत्ति थी

विवाह और दाम्पत्य जीवन
रामवृक्ष का विवाह जब 16 साल की अवस्था में हुआ तब वह स्कूल की पढ़ाई करते थे।" सीतामढ़ी जिले के मुसहरी गांव के राष्ट्रीय विचारों के तत्कालीन अग्रणी स्वातंत्र्य  सैनिक श्री महादेव शरण सिंह की अनपढ़ कन्याकुमारी से रामवृक्ष का विवाह हुआ"  बेनीपुरी जी ने उन्हें पढ़ाने की कोशिश कि वह अपने विवाह जीवन से पूर्ण पूर्ण संतुष्ट थे वह आदमी ने जिंदगी भर भारतीय स्त्री के उनके आदर्शों का निर्वाह किया और हर संकट में अपने पति की सहायता की। यह उनके देशभक्त पिता जी महादेवशरण सिंह के संस्कारो और व्यक्तित्व का परिणाम था। "वे बिहार के एक विशिष्ट व्यक्ति थे और बिहार में सबसे पहले आदमी वहीँ थे जो सरकारी दमन के शिकार हुये थे। उनके मुकदमे का वर्णन उस समय के सुप्रशिद्ध अंग्रेजी पत्र 'इडिपेन्डेन्ट' में छपा करता था।" विवाह के इस सम्बन्ध के परिणाम स्वरूप बाबू महादेवशरण जी के व्यक्तित्व और नेतृत्व में भी बेनीपुरी जी के जीवन को नई दिशा दी।
रामेश्वरम की शादी होते ही ऐसी बातें होने लगी कि अब वह पढ़ती नहीं सकेगा लेकिन विवाह के बाद भी उनका पढ़ना जारी रहा हूं जिसमें उनकी धर्मपत्नी उमा रानी का भी सहयोग रहा
बेनीपुरी जी ने अपने साहित्य में पत्नी के लिए प्रार्थना शब्द का प्रयोग किया। "कैदी की पत्नी" उपन्यास में उन्होंने उनके गुणगान एवं महिमा का कर उसके वास्तविक जीवन की तस्वीर खींची है तथा उसके आदर्शों की ओर जीवन की कठिनाइयों को उभारने की कोशिश की है
बेनीपुरी जी ने उमारानी के बारे में लिखा है -?
मेरी देशभक्ति का जितना दिया था उसे रानी ने अकेले ही पी लिया मुझे तो सिर्फ अमृत ही मिला है
इस प्रकार रामवृक्ष का दांपत्य जीवन आर्थिक रुप से दुखी भले हो लेकिन आदर्शों के रूप में वह एक सुखी दांपत्य जीवन माना जाएगा अभावों और संघर्षमय में जीवन जीते हुए भी अच्छी पत्नी मिलने से वह सब कुछ भूल जाते इसके लिए अपनी 'रानी' को भाग्यशाली बताते हुए और संतोष व्यक्त करते हुए वह कहते हैं-
हां मेरी रानी आज जरूर सौभाग्यशालिनी है तीनों बेटों और बेटियों की गौरवमई माता और तीनों पुत्रों की महिमा मई माता माई दरबार भरा पूरा दिन तूने पाने के लिए कितनी तपस्या करनी पड़ी उसका साक्षी मुझसे बढ़कर कौन है अब तो बेनीपुरी जी का परिवार बहुत बड़ा हो गया वट वृक्ष जैसा

शिक्षा
रामवृक्ष बेनीपुरी ने प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव की पाठशाला में ही पाई थी। बाद में वे आगे की शिक्षा के लिए "मुज़फ़्फ़रपुर" के कॉलेज में भर्ती हो गए।

बेनीपुरी जी के जीवन में तूफान
विवाह के तीसरे द्वारा सी बेनीपुरी जी के जीवन में एक तूफान आया इसके संबंध में उन्होंने लिखा है- "मेरे जीवन में क्या, देश के जीवन में ही, गांधीजी का असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ मैं पढ़ना लिखना छोड़ कर कुछ में पड़ गया"
सन् 1921 ई. में असहयोग आंदोलन की अपनी आपबीती बेनीपुरी जी ने उपयोग परेशान मेरी स्वय स्पष्ट है। उस हक़ीकत पर से उनके जीवन की एक बात और भी साफ हो हो जाती है बेनीपुरी जी के जीवन का रथ खुरदुरे पद पर बढ़ता गया। जीवन में कतिपय मुसीबतों का सामना करते हुए हुए आगे बढ़ती गई। उनके जिले के 1921 ई. के सहयोगी युग के नेता वकील मौलवी सबी साहब थे उनकी पुकार पर बेनीपुरी जी ने पढ़ना लिखना छोड़ दिया था। इसके बाद पूरे 25 वर्षों तक वह तूफानी के चक्कर में है बार बार जेल जाते हैं और उनका जीवन घर की आर्थिक स्थिति के कारण दिन दिन संकट में बनता गया इन 25 वर्षों को उन्होंने किस तरह काटा उसका चेहरा उनका गवाह है। खासकर एक बार वह जेल में थे उनका एक बच्चा चल बसा वह बहुत ही प्यारा सा साल का था जब से वह जेल से लौटे तो उन्होंने देखा रानी बूढ़ी हो चुकी।

बेनीपुरी जी और असहयोग आंदोलन
अंग्रेजो के साथ आजादी की लड़ाई का पहला ठोस कदम सन 1921 ई. का असहयोग आंदोलन था। इससे प्रभावित होकर देश के युवकों मैं उत्साह की लहर उमड़ पड़ी। यह अंदोलन बिहार में भी विराट रूप ले चुका था।  "नागपुर कांग्रेस के बाद महात्मा गांधी 6 फ़रवरी 1921 ई. को बिहार गये"। फिर ऐसे हो का नारा लगाते लगाते मुजफ्फर पहुंचे वहां गांधीजी के भाषण से प्रभावित होकर बेनीपुरी जी इस सहयोग में कूद पड़े गांधीजी के परिजनों से चंपारण में अंग्रेजों का राज्य खत्म हुआ अंतर बेनीपुरी जी को विश्वास हो गया कि असहयोग का भी फल अच्छा ही आएगा इसी से भूख-प्यास भूलकर भी गांधी जी के प्रचार कार्य में जुट गए। बेनीपुरी जी के संघर्ष में जीवन यात्रा का सत्याग्रह से जुड़ना यह  तृतीय प्रस्थान बिंदु है- ई. सन् 1922-29 तक का समय। यहीं से गांधीजी की आंधी में उड़े तो पीछे लौट कर नहीं देखा आर्थिक दृष्टि से उत्पन्न होने के बावजूद भी आगे ही बढ़ते रहें यही से स्वाधीनता आंदोलन में पूरी सक्रिय से जुड़े जुड़े और यही पर प्रथम पुस्तक के रूप में साहित्य - सौरभ फूटा। ""उनके मन ने  चंचल भाव तरंगों के साथ यही कुछ समझने की की चेष्टा की क्या होती है? गुलामी देशभक्ति और आजादी और तीनों का अर्थ स्वादु अमृतरस होता है- त्याग और बलिदान का महान अनुष्ठान"
बेनीपुरी जी के जीवन की ये अवधि उनके जीवन की इम्तिहान की कसौटी थी। वह प्रारंभिक शिक्षा मंदिर को छोटे खुले संसार में खड़े थे जीवन की चुनौतियां नहीं कठिनाइयां पर व्यंग्य कर रही थी। वह अल्पवय मैं ही विवाहित हो चुके थे उनके परिवार की हालत बड़ी दुखद थी जिससे एक दिन उसके कर्ज में जमीन का हिस्सा भी बिक गया ऐसी स्थिति के संबंध में बेनीपुरी जी ने लिखा है- "देशभक्ति हृदय में अंकुर ले चुकी थी देश सेवा की प्रेरणा भी मस्तिक में स्थान बना चुकी थी। किंतु देश भक्ति का एक रुप यही होगा कि पढ़ना लिखना छोड़ कर घर द्वार की चिंता भूलकर फकीरी का बाना ले कर इस गांव से उस गांव,उस गांव से इस गांव, देश माता की मुक्ति का अलख जगाना होगा यही तो कभी सोचा ही नहीं होगा"।

पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य
पत्रकारिता के बारे में एक बात स्पष्ट है कि "बेनीपुरी जी के मन में देशभक्ति की तरंगे लेने लगी थी उनके लिए उन्हें पत्रकारिता जैसे सशक्त माध्यम की तलाश थी क्योंकि पत्रकारिता ही वह तलवार है जिसे लेकर देश माता की मुक्ति के लिए अधिक सफलता से लड़ सके।" अंत:असहयोग आंदोलन के पूर्ण होने के पश्चात 1921 ई. में बेनीपुरी जी का पत्रकारिता क्षेत्र में आगमन हुआ। हिंदी में गांधी जी 'यंग इंडिया' पत्रिका निकालते थे उसके संपादन बेनीपुरी जी के तृतीय गुरु पंडित मथुरा प्रसाद दीक्षित जी है। उन्होंने बेनीपुरी जी को सहयोगी संपादक के रूप में कार्य करने का आमंत्रण दिया खुशी और हालात से बेनीपुरी जी का मन गद गद हो गया "यह तो उनके मन का आकाश-कुसुम-सा मधुस्वप्न था पत्रकार होने का"
बाद में वह पत्रकारिता कांटे भरी राह पर चल पड़े। यहां से बेनीपुरी जी के क्रम में जीवन का शुभारंभ होता है। संपादकीय टिप्पणियां, लिखना कविताओं का, चुनाव करना, गेट अप की जिम्मेदारियां संभालना और गांधी जी के अंग्रेजी लेखों का अनुवाद करना- यह विविध कार्य थे कार्यवृत्त 'तरुण भारत' में करते थे। 'तरुण भारत' महात्मा गांधी के 'यंग इंडिया' का हिंदी रूपांतरण अंग्रेजी गुजराती संस्करण की सहायता से उसे निकाला जाता था गुजराती में 'नवजीवन' निकलता था उसमें गांधी जी के लेख सकते थे बेनीपुरी जी ने झट से अपने एक सज्जन मैं थोड़ी गुजराती सीख ली और यह काम भी आसान बन गया बंगला पहले से रखी थी, उर्दू भी पढ़ ली इन का ज्ञान भी पत्रकार जीवन में सहायक बना।
इसके बाद सन् 1942 ई. मैं बेनीपुरी जी का 'किसान मित्र' साप्ताहिक का सहकारी संपादक बनाया गया यह पत्थर पटना के सुप्रसिद्ध वकील पंडित गणेश शर्मा दीक्षित ने निकाला था। उसके बाद सन 1924 ई. मैं आचार्य शिवपूजन सहाय के परामर्श से पटना के दिनानाथ सिगतिया ने बेनीपुरी जी को साप्ताहिक गोलमेल का सहकारी संपादक बनाया

⚜⚜नमक सत्याग्रह और प्रथम जेल यात्रा⚜⚜
5 अप्रैल 1930 ई. को गांधी जी ने नमक कानून तोड़ने के लिए दांडी यात्रा की और उसे बंद करने के लिए जनता को परामर्श दिया। पटना में नमक सत्याग्रह करने की इज्जत राजेंद्र बाबू से बेनीपुरी जी ले आये। 16 अप्रैल 1930 ई. को 'सर्चलाइट' के भूतपूर्व मैनेजर अंबिका कांत सिन्हा के नेतृत्व में पहला जत्था बनाया परिणाम स्वरूप अंग्रेजी सरकार की पुलिस ने उनको गिरफ्तार किया। उनको 1930 ई. में अप्रैल से अक्टूबर तक 6 महीने की सशक्त की दूरी जेल में भी वह संगठन संगठनात्मक एवं रचनात्मक कार्य करते रहें। अपनी पत्रकारिता को जारी रखने के लिए जेल में ही उन्होंने केदी नामक हस्तलिखित पत्रिका निकालना शुरू किया इस पत्र के पहले अंक के लिए राजेंद्र बाबू ने भी एक लेख 'प्रजा का धन' लिखा था"

⚜⚜युवक आन्दोलन और दूसरी जेलयात्रा⚜⚜
बेनीपुरी जी जब अक्टूबर 1930 ई. में जेल से छुट्टी तब उन्होंने अपने गांव के निकट ही बागमती आश्रम की स्थापना की। और आसपास के युवकों को इकट्टाकर सत्याग्रह कि धुनि रमाई। फिर पटना पहुंचकर युवक संपादन शुरू किया भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव की फांसी पर 'युवक' पत्रिका में "इकबाल जिंदाबाद" शीर्षक लेख बेनीपुरी जी का छपा था। इस लेख में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह की घोषणा थी "इसके कारण बेनीपुरी पर राजद्रोह का अभियोग चला और अंग्रेज सरकार ने बेनीपुरी को डेढ़ साल की सजा दी।" सजा पूरी होने के बाद पुणे युवक निकालना कठिन था। हंसते हुए 'लोकसंग्रह' में कार्यकारी संपादक हो गए। यह पत्र भी जब जब आ गया तब वह खंडवा में कवि श्री माखनलाल चतुर्वेदी की 'कर्मवीर' में कार्यकारी संपादक का भार संभालने लगे। यह सन् 1935 ई. की बात है। वहां से लौटने पर वह पटना के साथ एक 'योगी' के संपादन बने इन ही दिनों में बिहार संपादक संघ के अध्यक्ष भी चुने गये।

अगस्त क्रान्ति और बेनीपुरी
अगस्त क्रान्ति सन् 1942 के प्रारंभिक दिनों में बेनीपुरी जी किसान आंदोलन के सिलसिले में जेल में है गांधी जी "करो या मरो" का नारा देने वाले थे 1 महीने का अल्टीमेट सरकार को देखकर "भारत छोड़ो" का नारा बुलंद करने वाले थे। बेनीपुरी जी के साथियों समाजवादी नेता जय प्रकाश बाबू हजारीबाग में ही कैद में थे। किसी प्रकार मजिस्ट्रेट से प्रार्थना कर बेनीपुरी जी भी मधुबनी से हजारीबाग में आ गई वह जयप्रकाश नारायण से मिलकर अगस्त क्रांति के लिए अगली योजनाएं बनाना चाहते थे।
9 अगस्त 1942 ईसवीं को देशभर में अंग्रेजी शासन के खिलाफ खुला विद्रोह शुरु हुआ आने जाने के साधन कब हुए गोलियां चलाने चलने लगी गिरफ्तारियां होने लगी लोगों की वीरता और सरकार की नर सस्ता की खबरें बेनीपुरी को जेल में मिलने लगी सड़क टूट रही थी, रेल गोदाम लूटा जा रहे थे, रायपले छीनी जा रही थी बंबई से आई आवाज 'इकबाल जिंदाबाद' का नारा देश के कोने-कोने से फैल गया जेल से भागने की योजनाएं बनाई। जेल से भागने की योजना बनाई जाने लगी मधुबनी, भागलपुर,हाजीपुर से केदी भागे। बेनीपुरी के प्रत्यन उसे जयप्रकाश जी अपने 5 साथियों के साथ 9 नवंबर 1942 ईसवीं को हजारीबाग जेल से भाग निकले जयप्रकाश जी के महा पलायन में बेनीपुरी जी ने पूरी सतकर्ता से काम किया था। नतीजा यह हुआ कि जेल में उन पर पहरा अधिक सशक्त कर दिया गया। सन 1943 ई. की 23 जनवरी को बेनीपुरी जी ने अन्य कैदियो के साथ स्वतंत्रता दिन मनाया। जमादो, जेलरों और की सुप्रीटेंडेंट के विरोध के बावजूद भी झंडा वंदन किया। इनकी प्रतिक्रियास्वरूप बेनीपुरी जी को गया की जेल में भेजा गया। हजारीबाग जेल में अब तक बेनीपुरी जी अपना लंबा साहित्य का कार्यक्रम निश्चित कर चुके थे और वही पर उन्होंने 'अम्बपाली' और 'माटी की मूर्ति' लिखी। गया जेल में 3 महीने सजा काट कर दुबारा से हजारीबाग जेल में आया उन्होंने अधिकांश समय साहित्य सर्जन में ही व्यतीत किया।

स्वतंत्रता संग्राम
इसी समय राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'रौलट एक्ट' के विरोध में "असहयोग आन्दोलन" प्रारम्भ किया। ऐसे में बेनीपुरीजी ने भी कॉलेज त्याग दिया और निरंतर स्वतंत्रता संग्राम में जुड़े रहे। इन्होंने अनेक बार जेल की सज़ा भी भोगी। ये अपने जीवन के लगभग आठ वर्ष जेल में रहे। समाजवादी आन्दोलन से रामवृक्ष बेनीपुरी का निकट का सम्बन्ध था। "भारत छोड़ो आन्दोलन" के समय जयप्रकाश नारायण के हज़ारीबाग़ जेल से भागने में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने उनका साथ दिया और उनके निकट सहयोगी रहे।

जेल से रिहाई
बेनीपुरी जिसने सन 1930 ई. से लेकर सन 1945 ई. तक मैं अपनी जिंदगी के 10 साल गुजार दिए। जेल की अंतिम अवधि में मैं बेनीपुरी जी के पिता तू यह माता जी मामा जी और उनकी पूजनीय सौतेली मां की मृत्यु होने पर और पटना में अपने बेटे देवेंद्र की शादी के अवसर पर भी सरकार ने उनको पैरोल पर छोड़ने की दरख्वास्त नामंजूर कर दी थी।इससे अंग्रेज सरकार की नीयत का पता चलता है। जब वह गया जेल में थे तब उनकी धर्मपत्नी की बीमारी की सूचना उन्हें पत्र द्वारा मिली। अब भी बार प्रांत के गवर्नर के पास उन्होंने आवेदन पत्र भेजा CID के द्वारा पत्नी की बीमारी की जांच हुई और जुलाई 1942 ई. में 60 दिन के पैरोल पर छोड़ा। गया जेल यात्रा उनकी सबसे लंबी और अंतिम की अंतिम जेल यात्रा के दिनों में उन्होंने जिस साहित्य की रचना की वह हिंदी साहित्य का श्रृंगार है

बेनीपुरी जी की रचनाएँ
रामवृक्ष बेनीपुरी की आत्मा में राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी, जिसके कारण आजीवन वह चैन की साँस न ले सके। उनके फुटकर लेखों से और उनके साथियों के संस्मरणों से ज्ञात होता है कि जीवन के प्रारंभ काल से ही क्रान्तिकारी रचनाओं के कारण बार-बार उन्हें कारावास भोगना पड़ता। सन 1942 में "अगस्त क्रांति आंदोलन" के कारण उन्हें हज़ारीबाग़ जेल में रहना पड़ा था। जेलवास में भी वह शान्त नहीं बैठे सकते थे। वे वहाँ जेल में भी आग भड़काने वाली रचनायें लिखते। जब भी वे जेल से बाहर आते, उनके हाथ में दो-चार ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ अवश्य होती थीं, जो आज साहित्य की अमूल्य निधि बन गई हैं। उनकी अधिकतर रचनाएँ जेल प्रवास के दौरान लिखी गईं।
उपन्यास ? पतितों के देश में, आम्रपाली
कहानी संग्रह ?माटी की मूरतें
निबंध  चिता के फूल, लाल तारा, कैदी की पत्नी, गेहूँ और गुलाब, जंजीरें और दीवारें
नाटक  सीता का मन, संघमित्रा, अमर ज्योति, तथागत, शकुंतला, रामराज्य, नेत्रदान, गाँवों के देवता, नया समाज, विजेता, बैजू मामा
संपादन   विद्यापति की पदावली
साहित्यकारों के प्रति सम्मान
रामवृक्ष बेनीपुरी की अनेक रचनाएँ, जो यश कलगी के समान हैं, उनमें 'जय प्रकाश', 'नेत्रदान', 'सीता की माँ', 'विजेता', 'मील के पत्थर', 'गेहूँ और गुलाब' आदि शामिल है। 'शेक्सपीयर के गाँव में' और 'नींव की ईंट', इन लेखों में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने देश प्रेम, साहित्य प्रेम, त्याग की महत्ता और साहित्यकारों के प्रति जो सम्मान भाव दर्शाया है, वह अविस्मरणीय है। इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के प्रति जो आदर भाव उन्हें देखने को मिला, वह उन्हें सुखद भी लगा और दु:खद भी। शेक्सपियर के गाँव के मकान को कितनी संभाल, रक्षण-सजावट के साथ संभाला गया है। उनकी कृतियों की मूर्तियाँ बनाकर वहाँ रखी गई हैं, यह सब देख कर वे प्रसन्न हुए थे। पर दु:खी इस बात से हुए कि हमारे देश में सरकार भूषण, बिहारी, सूरदास और जायसी आदि महान साहित्यकारों के जन्म स्थल की सुरक्षा या उन्हें स्मारक का रूप देने का भी प्रयास नहीं करती। उनके मन में अपने प्राचीन महान साहित्यकारों के प्रति अति गहन आदर भाव था। इसी प्रकार 'नींव की ईंट' में भाव था कि जो लोग इमारत बनाने में तन-मन कुर्बान करते हैं, वे अंधकार में विलीन हो जाते हैं। बाहर रहने वाले गुम्बद बनते हैं और स्वर्ण पत्र से सजाये जाते हैं। चोटी पर चढ़ने वाली ईंट कभी नींव की ईंट को याद नहीं करती।

विशेष ख्याति
पत्रकार और साहित्यकार के रूप में बेनीपुरीजी ने विशेष ख्याति अर्जित की थी। उन्होंने विभिन्न समयों में लगभग एक दर्जन पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। उनकी लेखनी बड़ी निर्भीक थी। उन्होंने इस कथन को अमान्य सिद्ध कर दिया था कि अच्छा पत्रकार अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता। उनका विपुल साहित्य, शैली, भाषा और विचारों की दृष्टि से बड़ा ही प्रभावकारी रहा है। उपन्यास, जीवनियाँ, कहानी संग्रह, संस्मरण आदि विधाओं की 'लगभग 80 पुस्तकों' की उन्होंने रचना की थी। इनमें 'माटी की मूरतें' अपने जीवंत रेखाचित्र के लिए आज भी यद् की जाती है।.

??बिहार विधान सभा सदस्य??
रामवृक्ष बेनीपुरी 1957 में बिहार विधान सभा के सदस्य भी चुने गए थे। सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श पर चलते हुए उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में बहुत काम किया था। वे भारतीयता के सच्चे अनुयायी थे और सामाजिक भेदभावों पर विश्वास नहीं करते थे।

दिनकरजी का कथन
रामधारी सिंह दिनकर ने एक बार बेनीपुरीजी के विषय में कहा था कि- "स्वर्गीय पंडित रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं थे, उनके भीतर केवल वही आग नहीं थी, जो कलम से निकल कर साहित्य बन जाती है। वे उस आग के भी धनी थे, जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है, जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है। जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है। बेनीपुरीजी के भीतर बेचैन कवि, बेचैन चिंतक, बेचैन क्रान्तिकारी और निर्भीक योद्धा सभी एक साथ निवास करते थे।"

सम्मान
वर्ष 1999 में 'भारतीय डाक सेवा' द्वारा रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्मान में भारत का भाषायी सौहार्द मनाने हेतु भारतीय संघ के हिन्दी को राष्ट्रभाषा अपनाने की अर्धशती वर्ष में डाक-टिकटों का एक संग्रह जारी किया। उनके सम्मान में बिहार सरकार द्वारा 'वार्षिक अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार' दिया जाता है।

निधन
रामवृक्ष बेनीपुरी जी का निधन 7 सितम्बर, 1968 को मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार में हुआ। बिहार के मुजफ़्फ़रपुर में हुआ।

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