सिवाणा दुर्ग-बाड़मेर(Siwana durg-barmer)

सिवाणा दुर्ग-बाड़मेर(Siwana durg-barmer)


दुर्ग / किला
सुरक्षा संबंधी स्थापत्य में चौकियाँ और छोटे-छोटे दुर्ग आते हैं
चौकियों में कुछ सैनिक रहते थे जो बदलते रहते थे
इनका स्थापत्य सामान्य होता था ,किंतु दुर्ग वस्तुत: साधन संपन्न स्थान थे

जहां से शासक सैन्य संचालन करता था

शास्त्रों में किलों के प्रकार आदि की की विस्तृत चर्चा हुई है और इनकी विशेषता भी बताई गई है

किंतु दुर्गम होना सबसे मुख्य विशेषता थी ताकि शत्रु आसानी से नहीं पहुंच सके

यदि आक्रमण हो जाए तो छिप कर लड़ा जा सके

गुप्त सुरंगो से सेनाएं हथियार व खाद्य सामग्री मंगवाई जा सके

पहाड़ों पर बनाएं किलो में यह सुविधा थी अंदर बैठी सेना ऊपर से शत्रु को देख सकती थी किंतु बाहर वाले नीचे से अधिक नुकसान नहीं पहुंचा सकते थे

वायु मार्ग से हमले उन दिनों होते नहीं थे

इसलिए मनु ने भी सभी दुर्गो में गिरी दुर्ग को ही श्रेष्ठ माना है

स्थिति और बनावट की दृष्टि से राजस्थान के गिरी दुर्ग मे चित्तौड़ सर्वश्रेष्ठ माना जाता है

✴ कहावत प्रसिद्ध है :- गढ़ तो चित्तौड़गढ़ और सब गढैया✴

सामान्यतया दुर्ग पथरों को काटकर बनाए गए हैं

अंदर के महल चूना सुर्खी एवं पत्थर आदि से ही बनते थे ऊपर लोई का पलस्तर होता था मोटे तौर पर किलों के निर्माण की तिथि 7वीं से 18वीं शती तक है और इनका उपयोग आज तक हो रहा हैस्वभाविक है कि बदलती जीवन शैली का इन पर प्रभाव पड़े और आवश्यकता अनुसार फेरबदल होकिले सुरक्षा से जुड़े हुए थे यही कारण था कि बदलती युद्ध शैली हथियारों को बनाने की तकनीक एवं अस्त्र-शस्त्रों में होने वाले नए आविष्कारों के साथ उनकी स्थापत्य में कुछ परिवर्तन आए

युद्ध की प्रणाली बदली तो सामग्री बदली और सामग्री बदली तो भंडारण की व्यवस्था में परिवर्तन आया

पहले केवल तीर धनुष एवं ढाल तलवारों के रखने की व्यवस्था करनी होती थी

जब बारूद का आविष्कार हुआ तो तोपे बनी बन्दूके बनी इन्हें रखने के साथ बारुद के भंडार बने, यही नहीं बारूद निर्माण में प्रयुक्त होने वाली सामग्री शोरा आदि को भी किलो मे रखा जाता था ताकि आवश्यकता पड़ने पर वही बारुद तैयार कर ली जाए

किलों के दरवाजे लकड़ी के होते थे किंतु उन पर लोहे की मोटी चादरे बढ़ी होती थी और उनमें बाहर की ओर नुकीली कीले लगी होती थी

युद्ध काल में जब यह दरवाजे बंद होते थे तो हाथियों के धक्के से इन्हें खोलने की कोशिश की जाती थी

उस समय हाथियों को हटाने के लिए किले के अंदर से गर्म तेल डाला जाता था

समृध्द  किलो में तेल के विशाल भंडार होते थे

तेल सीधद्धो- चमड़े के बने पात्र में रखा जाता था

स्थापत्य की दृष्टि से देखें तो बाहरी तौर पर किलो की बनावट वही रही

पर्वतों की चोटियों पर, खाई से घिरे किले  तथा नदी पर स्थित दुर्ग

स्थापत्य की इकाईयो के नाम भी वही रहे काम बदल गए

उदाहरण के लिए किलों के प्राचीर में बनाएं मौखों से बाण छोड़े जाते थे योद्धा प्राचीर के पीछे होते थे ऊपर बने मौखों से शत्रु को देखते ही निशाना साधते

 16वीं शती में जब बंदूक आई तो इन्ही मौखों से बंदूकों के वार होने लगे जब इन मोंखों से तीर चलते थे तो इन्हें तीरकश कहा जाता था किंतु जब यहां से बंदूके चलने लगी तब भी इनका नाम तीरकश रहा ऐसे अनेक उदाहरण है

13वीं शती से ले तो पिछले 6-7  सौ वर्षो मे राजस्थान में सैकड़ों की संख्या में किले बने

कई राजवंश आए उनके शासको ने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए सुदृढ़ दुर्गो का निर्माण करवाया

आगे आने वालों ने समय समय पर उनमें आवश्यकता अनुसार परिवर्तन भी कराया

किंतु स्थानों की प्रासंगिकता बनी रही

 जयगढ़  में खड़े होकर जब हम राडार पर दृष्टि डालते हैं तो लगता है कि स्थान का चुनाव कितना उपयुक्त था

 एक सहस्त्राब्दि के बाद भी वही रहा प्रदेश के किलो को देखें तो इन्हें दो श्रेणियों में रखा जा सकता है

 एक तो वह किलेबन्द नगर और दूसरा सामरिक दृष्टि से बनाए गए छोटे दुर्ग

किलेबंद नगर -जहां राजा और उसकी प्रजा सुरक्षित रह सकती थी

 इनके चारों ओर सुदृढ़ प्राचीर  होता था

रात्रि को दरवाजे बंद हो जाते थे ऐसे किलो मे अंदर बसावट होती थी पानी का प्रबंध होता अंदर खेती होती जीवन चलता रहता

शत्रु बरसों घेरा डाले तो भी असर नहीं होता था यह दुर्भेद्य किले होते थे जहां आपसी फूट के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता था

चित्तौड़ और रणथंभौर इसके सर्वोत्तम उदाहरण है

रणथंभौर पर बरसों अलाउद्दीन का घेरा पड़ा रहा कोई प्रभाव नहीं पड़ा बाहर खिलजीपुर जिसे अब खिलचीपुर कहते हैं गांव की बस गया किंतु विजय नहीं मिली

तब भेदिए के माध्यम से ही शत्रु अंदर घुसे हमीर विजय ग्रंथ में इस घटना का विस्तृत विवरण आता है

दूसरे प्रकार के किले बड़े राज्यों की सुरक्षा के लिए सामरिक दृष्टि से बनाए जाते थे

जैसे बूंदी की सुरक्षा के लिए बनाया गया तारागढ़ और आमेर की सुरक्षा के लिए बनाया गया छोटा किला जयगढ़

जहां शस्त्र भंडार तोप बनाने का कारखाना और बारूद के गोदाम थे इन सबके रखरखाव के लिए सेना की एक टुकड़ी भी रहती थी

यह किले सुरक्षा की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण थे ही जन जीवन से भी जुड़े राजस्थान के साहित्य में भी इन का महत्वपूर्ण स्थान रहा है

 इतिहास प्रसिद्ध लड़ाइयां तो यहा लड़ी ही गई इन पर गीत गजल भी लिखे गए

 यहां बैठकर कवियों ने साहित्यिक रचनाएं भी की

उदाहरण के लिए महाराज पृथ्वीराज ने गागरोन के गढ़ में बैठकर ही डिंगल की अनुपम कृति ' कृष्ण रुक्मणी री वेली 'की रचना की

किलो के साथ उनके निवासियों पर रक्षको  का बड़ा घनिष्ठ संबंध था

??साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से उन्हें और उनके किलेदारों को अमर कर दिया

वे मात्र पत्थर सुर्खी चूने से निर्मित सुरक्षा के लिए बनाए गए भवन ही नहीं थे वे अपने रहवासियों से बात करते थे

बाड़मेर क्षेत्र में परमार वीर नारायण पंवार द्वारा निर्मित सिवाना का दुर्ग प्रसिद्ध है

कहा जाता है एक बार कल्ला राठौड़ ने वहां शरण ली तो किला बड़ा प्रसन्न हुआ कि कला राठौड़ जैसा वीर वहां पर आया कवि कहता है !

✴किलो अणखलो यूं
कहें,आव कल्ला राठौड़ !✴
✴मो सिर उतरे मेहणो ,
तो सिर बांधे मीड़✴

आओ कल्ला राठौड़ स्वागत है तुम्हारे आगमन से तो तुम्हे सिवाणा विजय का श्रेय मिल जाएगा और मुझे विजित करने वाला अर्थात यह मेरे लिए भी गर्व की बात होगी की कल्ला राठौड़ ने मुझे जीता!!???

    सिवाणा दुर्ग-बाड़मेर

❇निर्माण - 10वीं शताब्दी मे वीर नारायण पंवार❇

इसे कुमट का दुर्ग भी कहते है

⛰गिरी दुर्ग-छप्पन की पहाड़ी पर स्थित है

जोधपुर राजाओ की शरणस्थली भी कहते है

यह दुर्ग / किला बाड़मेर जिले में दक्षिण में छप्पन की पहाड़ी शिखर पर स्थित है

इसका निर्माण 10 वीं शताब्दी में परमार शासक वीर नारायण पंवार द्वारा कराया गया

यह राजा भोज का पुत्र था

1308 ई.में सिवाना दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया

तब सिवाना का शासक कान्हड़देव का भतीजा सातल देव था

 इस युद्ध में सातल देव की विजय हुई

इसके बाद 1310 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी स्वयं एक विशाल सेना के साथ आया

इस समय "भायला पंवार" नामक व्यक्ति ने विश्वासघात किया था

इस युद्ध में राजपूत सैनिकों ने दुर्ग से निरंतर " ढ़ेकुली" यंत्रों से पत्थर वर्षा करके सुल्तान की सेना को परेशान किया था

अंतत: राजपूतों ने केसरिया किया तथा युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए

 महिलाओं ने जौहर किया था

अलाउद्दीन ने विजय के उपरांत सिवाना दुर्ग का नाम खैराबाद कर दिया

 सिवाना दुर्ग रायमल के पुत्र कल्याणमल (कल्ला) की वीरता के लिए प्रसिद्ध है

 जिसने अकबर की नाराजगी के चलते मोटा राजा उदयसिंह के साथ शाही सेना से कल्ला ने युद्ध किया और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ

 कल्ला की हाड़ी रानी के नेतृत्व में महिलाओं ने दुर्ग में जौहर किया

इस प्रकार सिवाणा में दूसरी बार साका हुआ था

इस दुर्ग में दो प्रसिद्ध साके हुए

1st - 1308 सिवाणा का शासक सातल देव

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❇ अलाउद्दीन खिलजी बनाम सातल देव❇

विजय- सातल देव

✴2nd - 1583

मोटा राजा उदयसिंह बनाम वीर कल्ला रायमलोत

✍इस दुर्ग मे वीर कल्ला रायमलोत का थड़ा है

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✍अन्य विवरण✍

गिरी सामेल/जैतारण पाली का युद्ध

मालदेव बनाम शेरशाह सूरी के बीच 1544 में सामेल का युद्ध (मैदान -पाली)

? दिल्ली का शासक शेरशाह सूरी बनाम जोधपुर शासक मालदेव

शेरशाह सूरी को मेड़ता का शासक वीरमदेव रोकता है

✍ बीकानेर का शासक कल्याणमल शेरशाह सूरी के साथ था

 इस युद्ध में मालदेव के दो सेनापति जैता व कुंपा मारे गए

सामेल के युद्ध में शेर शाह सूरी युद्ध जीतने के बाद करता है कि :- "एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं सारे हिंदुस्तान का साम्राज्य खो बैठता"!

-मालदेव का  पुत्र चंद्रसेन ने (1562- 81)में शरण ली

चन्द्रसेन  को मारवाड़ का महाराणा प्रताप कहते हैं

चन्द्रसेन ने भी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की!

 मुगलो की अधीनता स्वीकार न करने वाला मारवाड़ का अन्तिम राजा चन्द्रसेन था

राजस्थान का भूला बिसरा (The forgotten Hero of Rajasthan) राजा चन्द्रसेन है

अकबर ने नागौर दरबार 1570 में लगाया

राजस्थान के 3 राजाओं ने अधीनता स्वीकार की

 बीकानेर शासक- कल्याणमल

जैसलमेर शासक- हरिराय

मेड़ता शासक- वीरमदेव

चन्द्रसेन भी नागौर दरबार पहुंचता है लेकिन बिना अधीनता स्वीकार किए वापस वहां से भाग कर भाद्राजूण (बाड़मेर) आ जाता है

अब अकबर जोधपुर का शासक कल्याणमल के पुत्र रायसिंह  को नियुक्त कर देता है

चंद्रसेन भाद्राजूण, सिवाना दुर्ग तथा बाद में सोजत पाली तथा अंत में सारण के पर्वत पाली में शरण लेता है

11 January 1581 को बेरसल द्वारा भोजन मे  ज़हर दिया, जिसके कारण सचियाप जोधपुर मे चन्द्रसेन की मृत्यु हो गयी!

इसकी समाधि भी यही बनी है


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