आर्यभट : प्राचीन भारत की महान खगोलीय प्रतिभा( Aryabhatta: The great astronomical genius of ancient India)

आर्यभट : प्राचीन भारत की महान खगोलीय प्रतिभा


( Aryabhatta: The great astronomical genius of ancient India)


आर्यभट प्राचीन भारत के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न गणितज्ञ-ज्योतिषी थे। 

वर्तमान में पश्चिमी विद्वान भी यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट प्राचीन

विश्व के एक महान वैज्ञानिक थे। यद्यपि हम आर्यभट का महत्व इसलिए 

देते हैं क्योंकि सम्भवतः वे ईसा की पांचवी-छठी सदी के नवीनतम 

खगोलिकी आन्दोलन के पुरोधा थे। और आर्यभट की ही बदौलत 

प्राचीन भारत में वैज्ञानिक चिन्तन की सैद्धांतिक परम्परा स्थापित

हो पाई।कभी-कभी हम आर्यभट को ‘आर्यभट्ट’ नाम से भी संबोधित

करते हैं। परन्तु उनका सही नाम आर्यभट था। सर्वप्रथम भारतीय

चिकित्सक एवं पुरातात्विक विद्वान डॉ. भाऊ दाजी ने यह स्पष्ट किया 

था कि उनका वास्तविक नाम आर्यभट है, नाकि आर्यभट्ट। आर्यभट 

को आर्यभट्ट लिखने के पीछे कुछ विद्वानों का तर्क है कि आर्यभट ब्राह्मण थे, अत: भट्ट शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए। परंतु कुछ विद्वान ‘भट’ शब्द का अभिप्राय भूलवश ‘भाट’ समझतें हैं, मगर भट शब्द का वास्तविक अभिप्राय ‘योद्धा’ से है। वास्तविकता में आर्यभट ने एक योद्धा की ही भांति धर्मशास्त्रों और प्राचीन लोकविचारों तथा परम्पराओं से धैर्यपूर्वक मुकाबला किया। गौरतलब है कि उनकें ग्रंथ आर्यभटीय के टीकाकारों तथा अन्य पूर्ववर्ती ज्योतिषियों ने उन्हें ‘आर्यभट’ नाम से ही संबोधित किया है।

?जन्म, काल तथा संबंधित स्थान
प्राचीन भारत के असंख्य पोथियों में उनके रचयिता तथा रचनाकाल के बारे में स्पष्ट जानकारी नही प्राप्त होती है। मगर महत्वपूर्ण बात यह है कि आर्यभट ने अपने समय के संबंध में सुस्पष्ट जानकारी दी है। आर्यभट ने अपने क्रांतिकारी कृतित्व ‘आर्यभटीय’ में यह जानकारी दी है कि उन्होनें इस ग्रंथ की रचना 23 वर्ष की आयु में कुसुमपुर में की थी। आर्यभटीय के एक श्लोक में वे बताते हैं कि

‘‘ कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुकें हैं और अब मेरी आयु 23 वर्ष है।’’

भारतीय ज्योतिषीय काल गणना के अनुसार कलियुग का आरंभ 3101 ईसा पूर्व में हुआ था। कलन से विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि आर्यभटीय की रचनाकाल 499 ई. है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आर्यभट का जन्म 476 ई. में हुआ होगा। अपने जन्मकाल की सुस्पष्ट सूचना देने वाले आर्यभट प्राचीन भारत के संभवत: पहले वैज्ञानिक थे।
हमें आर्यभट के माता-पिता, भाई-बहन, गुरु इत्यादि के बारे में कोई जानकारी नही प्राप्त है। यहाँ तक कि उनके जन्म स्थान के बारे में भी विद्वानों में आपसी मतभेद है। पहले विद्वानों का यह मत था कि आर्यभट का जन्म या तो पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) में हुआ था या कुसुमपुर (पुष्पपुर) में। कुछेक विद्वानों के मतानुसार पाटलिपुत्र ही कुसुमपुर था। ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि पाटलिपुत्र के निकट आर्यभट की वेधशाला थी। आर्यभटीय के टीकाकार नीलकंठ सोमयाजी के अनुसार आर्यभट का जन्म आश्मक जनपद में हुआ था। नीलकंठ और भास्कर प्रथम के अनुसार आर्यभट आश्मक जनपद (वर्तमान में महाराष्ट्र) से पाटलिपुत्र आए थे। आश्मक जनपद से होने के कारण उन्हें ‘आश्मकाचार्य’ और उनकें ग्रंथों को ‘आश्मकतंत्र’ के नाम से भी जाना जाता है।

?उत्कृष्ट कृति : आर्यभटीय
ज्ञातव्य ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार आर्यभट ने कुल तीन ग्रंथों की रचना की थी। जिनमे से तीन ग्रन्थ दशगीतिका, आर्यभटीय एवं तन्त्र के बारे में वर्तमान में जानकारी उपलब्ध हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार उन्होंने ‘आर्यभट सिद्धांत’ नाम से एक और ग्रन्थ की रचना की थी, परन्तु वर्तमान में इस ग्रन्थ के मात्र 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। इन 34 श्लोकों में आर्यभट ने खगोलीय यंत्रों के बारे में जानकारी दी है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार आर्यभट ने एक-दो ग्रन्थों की रचना और की थी। बहरहाल, आर्यभट की सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं क्रांतिकारी कृतित्व ‘आर्यभटीय’ है। इस कृति के लेखन के बाद पद्य शैली और सूत्र शैली में होने के कारण इसका खूब प्रचार हुआ। परन्तु मध्यकाल तक आते-आते कई सदियों तक आर्यभटीय ग्रन्थ लुप्तप्राय रहा। वर्ष 1865 में डॉ. भाऊ दाजी ने आर्यभटीय की तीन ताड़पत्र पांडुलिपियों को ढूढ़ निकाला। डॉ. भाऊ दाजी ने आर्यभट एवं आर्यभटीय पर गहन अध्ययन एवं शोध करने के पश्चात ‘जर्नल ऑफ़ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी’ में एक शोधपत्र प्रकाशित करवाया। तब जाकर लोगों को आर्यभट और उनके कृति के बारे में प्रथम प्रामाणिक जानकारी प्राप्त हुई। यूरोपीय विद्वान हैंड्रिक केर्ण ने आर्यभटीय की मलयालमी पांडुलिपियों का उपयोग करके पहली बार वर्ष 1874 में नीदरलैंड से, मुद्रित एवं परमेश्वर के टीका सहित प्रकाशित करवाया। वर्ष 1930 में शिकागो यूनिवर्सिटी प्रेस ने फ्रांसीसी भाषा में आर्यभटीय का प्रकाशन किया। पण्डित बलदेव मिश्र ने हिंदी व्याख्या सहित आर्यभटीय को वर्ष 1966 में पटना में प्रकाशित करवाया।

आर्यभटीय संस्कृत काव्य रूप में रचित गणित एवं खगोलशास्त्र का एक छोटा-सा विशुद्ध ग्रंथ है। आर्यभटीय को विद्वान और प्रसिद्ध विज्ञान लेखक गुणाकर मुले प्रथम ‘पौरुषेय’ ग्रंथ मानते हैं।

प्रसिद्ध विज्ञान लेखक गुणाकर मुले प्रथम ‘पौरुषेय’ ग्रंथ मानते हैं। यहाँ पौरुषेय से अभिप्राय है मनुष्य द्वारा रचित, जबकि आर्यभटीय से पहले के ग्रंथ ‘अपौरुषेय’ थे, यानी आचार्यों द्वारा न लिखा होकर दैवीय प्रेरणा से मुग्ध होकर लिखे गए ग्रंथ। आर्यभट पुरानी अवैज्ञानिक मान्यताओं को तोड़ने वाले क्रांतिकारी गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे। आर्यभटीय में वर्णित सिद्धांत नवीन होने के साथ-साथ दूरदर्शी यथार्थ परिकल्पना भी थी।

आर्यभटीय में कुल 121 संस्कृत श्लोक हैं, जो चार पादों या भागों में विभाजित हैं। ये चार भाग हैं – दशगीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद।

?दशगीतिकापाद : यह आर्यभटीय के चार भागों में से सबसे छोटा भाग है। इसमें कुल 13 श्लोक हैं। इनमें से 10 श्लोक गीतिका छंद में है, इसलिए इस भाग को ‘दशगीतिका सूत्र’ के नाम से भी जाना जाता है। इस भाग के प्रथम श्लोक में ब्रह्म और परब्रह्म की वंदना है। आगे के एक ही श्लोक में आर्यभट अक्षरों द्वारा संख्याओं को लिखने की अपनी नवीन अक्षरांक पद्धति को प्रस्तुत करते हैं। शेष श्लोकों में आर्यभट ने सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, शनि, बृहस्पति, शुक्र और बुध के चक्कर (भगण) और कल्प, महायुग एवं त्रिकोणमिति इत्यादि की चर्चा की है।

?गणितपाद : इस भाग में अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित पर संक्षिप्त में चर्चा की गयी है। इसमें कुल 33 श्लोक हैं। इसके श्लोकों में वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, त्रिभुजाकार शंकु का क्षेत्रफल, वृत्त का क्षेत्रफल, वृत्त की त्रिज्या, गोले का आयतन, समान्तर श्रेणी, चार दशमलव अंकों तक पाई (π) का शुद्ध मान आदि का गणितीय विवेचन किया गया है।
कालक्रियापाद : कालक्रियापाद का अभिप्राय है – काल गणना। इस भाग में कुल 25 श्लोक है। इसमें काल एवं वृत्त के विभाजन और मासों, वर्षों, युगों, महायुगों के सम्बन्ध में बताया गया है। इसके 20 श्लोक ग्रहीय गतियों तथा खगोलशास्त्र सम्बन्धी अन्य विषयों पर केन्द्रित है।
गोलपाद : यह सर्वाधिक प्रसिद्ध, सबसे बड़ा एवं ग्रंथ का अंतिम भाग है। इस भाग में कुल 50 श्लोक हैं। इसमें खगोल के विभिन्न वृत्तों को समझाया गया है और ग्रहों, चन्द्रमा और पृथ्वी के गतियों को स्पष्ट किया गया है। इसी भाग में आर्यभट ने ग्रहणों के सही कारण एवं अन्य नवीनतम खगोलीय अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है। जिसके बारे में आगे चर्चा करेंगें।
आर्यभट की क्रांतिकारी अवधारणाएं

आर्यभटीय के रचयिता के रूप में, आरंभ में आर्यभट का बहुत सम्मान रहा। उनके ग्रंथ में नवीन एवं युगांतरकारी अवधारणाएं थी, जिसके कारण आर्यभट बहुत जल्द ही मशहूर हो गये। आइए, आर्यभट की कुछ प्रमुख अवधारणाओं पर चर्चा करते हैं-

आर्यभट ने हजारों वर्ष पुराने इस विचार का खंडन कर दिया कि हमारी पृथ्वी ब्रह्माण्ड के मध्यभाग में स्थिर है। आर्यभट ने भूभ्रमण का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार पृथ्वी अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। इसका विवरण आर्यभट गोलपाद में निम्न प्रकार से देते हैं-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्‌विलोमंग यद्वत्‌। अचलानि भानि तद्वत्‌ समपश्चिमगानि लंकायां॥

संख्याओं को अक्षरों के समूहों में निरुपित करने की नई अक्षरांक पद्धति को जन्म दिया। उन्होनें इसी शैली में आर्यभटीय की रचना की है। आर्यभटीय के एक श्लोक से यह भी स्पष्ट है कि वे नई स्थानमान अंक पद्धति से परिचित थे। अत: वे शून्य से भी परिचित थे।
आर्यभट ने वृत्त की परिधि और उसके व्यास के अनुपात π (पाई) का मान 3.1416 कलित किया जोकि दशमलव के चार अंकों तक ठीक है। आर्यभट यह जानते थे कि π एक अपरिमेय संख्या है, इसलिए उन्होनें अपनें मान को सन्निकट माना।

आर्यभट ने गोलपाद में बताया कि जब पृथ्वी की विशाल छाया चन्द्रमा पर पड़ती है, तो चन्द्र ग्रहण होता है। उसी प्रकार, जब चन्द्रमा सूर्य एवं पृथ्वी के बीच आ जाता हैं और वह सूर्य को ढक लेता है, तब सूर्य ग्रहण होता हैं। आर्यभट ने ग्रहणों की तिथि तथा अवधि के आकलन का सूत्र भी प्रदान किया।
आर्यभट ने महायुग अर्थात्, सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को चार समान भागों में विभाजित किया। उन्होनें मनु की भांति 4 : 3 : 2 : 1 में नही विभक्त किया। उन्होनें 1 कल्प में 14 मन्वन्तर और 1 मन्वन्तर में 7 महायुग माना। एक महायुग में चारों युगों को एकसमान माना।

आर्यभट गोलीय त्रिकोणमिति की अवधारणाओं से भलीभांति परिचित थे। उन्होनें अर्धज्याओं के मान 3°45 के अंतर पर दिए, जो आधुनिक त्रिकोणमिति के सिद्धांतों के काफी अनुरूप हैं। वर्तमान में प्रचलित ‘साइन’ और ‘कोसाइन’ आर्यभटीय के ‘ज्या’ और ‘कोज्या’ ही हैं। आज सम्पूर्ण विश्व में जो त्रिकोणमिति पढ़ाया जाता है, वास्तविकता में उसकी खोज आर्यभट ने की थी।
आर्यभट ने ब्रहमांड को अनादि-अनंत माना। भारतीय दर्शन के अनुसार अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश इन पांच तत्वों के मेल से इस सृष्टी का सृजन हुआ है। परन्तु आर्यभट ने आकाश को तत्व नही माना। इत्यादि !

आर्यभटीय पर टीकाएं और अलोचनाएं
आर्यभटीय ग्रंथ दुरूह एवं संक्षिप्त है और सूत्रबद्ध शैली में लिखा होने के कारण टीका (भाष्य) बिना समझना बहुत कठिन है। इस ग्रंथ की रचना के बाद समकालीन तथा परवर्ती ज्योतिषियों ने 12 टीकाएँ लिखीं। आर्यभटीय की सबसे प्राचीनतम टीका जो हमारे पास उपलब्ध है वह है – भास्कर प्रथम का ‘आर्यभट तंत्र भाष्य’, जिसे उन्होनें 629 ई. में, वलभी (वर्तमान महाराष्ट्र) में लिखा। आर्यभट के शिष्यों के बारे जानकारी देते हुए भास्कर ने लिखा है कि पांडुरंगस्वामी, लाटदेव (महान गणितज्ञ) और नि:शंकु ने आर्यभट के चरणों में बैठकर ज्योतिष विद्या अर्जित की थी। भास्कर के बाद भारत में कई गणितज्ञ-ज्योतिषी हुए मगर उनके मुकाबले का कोई भी नही हुआ।

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