परम् पूजनीय गुरुदेव वासुदेव जी महाराज

परम् पूजनीय गुरुदेव वासुदेव जी महाराज


आज महाशिवरात्री के शुभ अवसर पर महान राष्ट्रवादी, तेजस्वी व तपस्वी, कर्मयोगी महापुरुष सन्त के जन्मोत्सव जयन्ती के उपलक्ष पर सभी देश वासियों को कोटि कोटि हार्दिक शुभकामनाएँ।

स्वामी श्री वासुदेव जी महाराज का जन्म दक्षिण भारत ( South india) के कर्नाटक राज्य की राजधानी एवं फूलों की नगरी (Flower city) बेंगलुरु के उपनगर लॉस पेट, Ramnagar में हुआ । महालक्ष्मी देवी की कोख से भारद्वाज गोत्र के ऋग्वेदी स्मृति ब्राह्मण परिवार में पिता श्री कृष्ण मूर्ति जी के घर भगवान शंकर के शुभ दिन महाशिवरात्रि (Mahashivaratri) को दिनांक 23 मार्च 1923 की मध्य रात्रि 12:30 बजे परिवार में चौथी संतान के रूप में

 परम तेजस्वी आभा लिए हुए एक कमल पुष्प खिला। तब माता पिता को अपार प्रसन्नता हुई क्योंकि गुरु वासुदेवानंद सरस्वती जी उर्फ टेंबे महाराज ने कृष्णमूर्ति जी को उनके विवाह से पूर्व ही कह दिया था कि तुम्हारी चौथी संतान जग में ख्याति प्राप्त करेगी अर्थात वह बहुत बड़ा सन्यासी बनेगा । उसे उसी प्रकार की शिक्षा देना । अतः पूरे परिवार को उस घड़ी का इंतजार था , क्योंकि यह कोई साधारण बालक का जन्म नहीं होकर एक अवतरण था।

पिता कृष्ण मूर्ति भी एक गृहस्थ संत थे । आपने कई वर्षों तक अपने गुरु वासुदेवानंद सरस्वती जी उर्फ टेंबे महाराज की सेवा की थी एवं आप ब्रह्मचारी जीवन ही व्यतीत करना चाहते थे । लेकिन परम तपस्वी तथा वचन सिद्ध गुरु की आज्ञा से आपने कई वर्ष सेवा करने के बाद घर की ओर रुख किया एवं माँ के अंतिम दर्शन किए तथा विवाह सूत्र में बंधे । परंतु आप चौथी संतान के आगमन का इंतजार भगवान श्री राम के इंतजार की तरह करते रहे एवं जब चौथी संतान का जन्म हुआ तब आप ने नामकरण भी गुरु के आदेश अनुसार वासुदेव के रूप में किया।

वासुदेव जी महाराज की प्रारंभिक शिक्षा Bengaluru के ही सुल्तान पेट स्कूल से हुई । तत्पश्चात आपने नेशनल स्कूल में दाखिला लिया । लेकिन हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी होने से 2 माह पूर्व ही आपने विद्यालय छोड़ दिया । तब तक आपके सिर से पिता श्री का साया उठ चुका था। मां की वृद्धावस्था थी । लेकिन मां-बाप के ऐसे ही संस्कार थे कि घर छोड़कर फकीरी धारण करने का मानस बन गया । बचपन में मां ने ही सिखाया था कि स्वयं के लिए एवं अपने परिवार के लिए सारा जग जीवन जीता है ,पर परोपकार के लिए व जन जन के लिए जीने वाले का जीवन ही असल में जीवन है एवं ऐसा जीवन जीने के लिए धरती ही बिछौना है तथा आकाश ही ओढ़ना है । कम से कम मैं संतुष्ट होना, अभावों में भी प्रसन्न रहना तथा कटु वचनों को अमृत के रूप में पी जाना ही साधु जीवन है।

जिस समय आपने गृह त्याग कर फकीरी अपनाने का विचार किया। तब आप केवल पहने हुए कपड़ों में ,खाली हाथ घर से निकल गए एवं घर पर बड़े भाई के नाम एक पत्र छोड़ आए। जिसमें आपने लिखा कि - "मैं घर से निकल कर बहुत दूर जा रहा हूं , भविष्य में मिलूं या नहीं मिलूं, चिंता नहीं करना । मैं सिर्फ एक वादा करता हूं कि कुलवंश एवं परिवार को लांछित नहीं करूंगा । देव भक्ति एवं देशभक्ति ही मेरा लक्ष्य रहेगा।"

स्वामी जी रेलगाड़ी द्वारा बेंगलुरु से हुबली आए । जहां उपन मठ में सप्ताह भर ठहर कर आप पुणे पधार गए। पुणे में उदासी संप्रदाय के महात्मा के साथ महीने भर रहे एवं एक तांत्रिक (रमते साधु) से चमत्कारी क्रिया सीखने की इच्छा से उसके साथ हो लिए। आपको इंद्रजाल , महा इंद्रजाल एवं जादू टोना सीखने की चाहत पैदा हुई। लेकिन मुंबई में चौपाटी पर चंद्रग्रहण की रात में सब चमत्कार देखने के बाद केरला के मुसलमान फकीर हसन चाचा की शिक्षा के प्रभाव से हाथ में जल लेकर तांत्रिक क्रियाओं की ओर आकर्षित नहीं होने की शपथ ले ली । सच्चे संत की शिक्षा से विनाश मार्ग को छोड़कर सद्मार्ग की खोज में आगे बढ़ गए।

स्वामी जी ने निराश मन से मुंबई छोड़ गुजरात प्रस्थान किया एवं सन 1951 में भावनगर में योगराज परम पूज्य श्री दरिया नाथ जी के दर्शन किए । गुरु दरिया नाथ जी से योग एवं भक्ति मार्ग का उपदेश ग्रहण कर "बाणा" के लिए आपसे मार्गदर्शन व आशीर्वाद से गुण ग्रहण कर शिष्य बने एवं उनके शब्दों में "मैं आज जो भी हूं , जैसा भी हूं , उन्हीं का आशीर्वाद है ।" स्वामी जी दरिया नाथ जी के पास 16 वर्ष तक रहे एवं सेवा व सद्मार्ग के कार्य में रहे।

स्वामी वासुदेव जी Haridwar यात्रा का विचार कर पदयात्रा रूप में भावनगर से रेल मार्ग के किनारे किनारे आगे बढ़े । परंतु मरुभूमि मारवाड़ आपका इंतजार कर रही थी और यही आपकी कर्मभूमि बनने वाली थी । अतः यहां आते -आते आपके संघर्ष का दौर प्रारंभ हुआ । बगड़ी नगर की नदी में पैर पड़ते ही सांप ने बार-बार रास्ता काट कर आपसे रेल मार्ग छुड़वा दिया । कच्चे रास्ते से आगे बढ़ने पर मारवाड़ से साथ हुए एक बंधु ने भी साथ छोड़ दिया एवं स्वामी जी कि झूली डंडा आदि भी चुरा ले गया । सुनसान इलाके में स्वामी जी बुखार से तपते हुए रास्ते से पड़ने वाली बावड़ी पर हाथ पैर धो कर , कुछ विश्राम कर जेब में 15 पैसे , एक बीड़ी का बंडल एवं पहने हुए कपड़े लिए ईसवी सन 1968 विक्रम संवत 2024 श्रावणी नाग पंचमी के शुभ दिन चंडावल में पधारे एवं तब से आप चंडावल नगर के ही होकर रह गए।

  प्रथम दिन जब आप चन्डावल नगर पधारे , उस समय जहा आपने पहली रात्रि विश्राम किया था। वह तालाब की पाल -जहाँ पर हनुमान मन्दिर व पुलिस चौकी सन्निकट थे। स्वामी जी के तपोबल से रात्रि में ही उन्हें बजरंगबली के दर्शन हो गए । बाद में पुलिस चौकी के कारण अनेक प्रकार की समस्याए उत्पन्न हुई। चौकी वाले बाबा को वहा से भगाना चाहते थे। लेकिन ईश्वर को कुछ ओर ही मंजूर था और कुछ ही दिनों बाद चौकी वहा से स्थानान्तरित हो गई। स्वामी जी के तपोबल व सद्कर्मो की महक से चन्डावल नगर की जनता धीरे धीरे जुड़ने लगी। सबसे पहले झूमर लाल जी लौहार, पोकरराम जी सैल (जाट) व पन्नालाल जी तथा मिश्रीलाल जी आदि सम्पर्क में आये। बाद में धीरे धीरे पूरा चन्डावल नगर स्वामी जी से जुड़ गया। आपने चन्डावल नगर के विकास के लिए कोई कौर कसर नहीं छोड़ी। अपनी अन्तिम साँस तक (45 वर्ष तक) चन्डावल नगर को धार्मिक नगरी में तब्दील करके 5 सितंबर 2012 को महाप्राण (ब्रह्मलीन) हो गये।

आप द्वारा किये गये प्रयास जिससे जनता चन्डावल नगर के साईं बाबा के नाम से संबोधित करती हैं।

सबसे पहले 1969 में गणेश चतुर्थी महोत्सव का आयोजन।

तालाब को खुदवाकर सरोवर का रुप देना तथा कैलाश सरोवर (Kailash sarovar) से नामकरण।

हनुमान मन्दिर व अन्य मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाना।

प्रकृति प्रेमी होने के कारण अनेक बाग बगिचों व उद्यानों (Gardens and parks) का निर्माण करवाया।

गरीब जनता के लिए निःशुल्क चिकित्सा हेतु आर्युवैदिक अस्पताल (Ayurvedic Hospital) का निर्माण करवाया।

1995 से नगर में गुजरात की तर्ज पर माता के नवरात्र में गरबा के आयोजन की शुरुआत जो निरन्तर जारी है।

कन्या पाठशाला, जो अब माध्यमिक विद्यालय (Secondary school) हैं का निर्माण करवाया जो सन् 2004 में लगभग एक करोड़ में तैयार हुआ।

गुरूकुल व आश्रम का निर्माण करवाया। _

लाइब्रेरी व वाचनालय का निर्माण करवाया।

गौ रक्षार्थ भव्य गौशाला का निर्माण करवाया।

आसपास के गांवों में जीर्ण शीर्ण मन्दिरों और देवालयों का जीर्णोद्धार करवाया।

नित्य भण्डारे का आयोजन - जहा पर रोजाना साधु सन्त व महात्मा , फकीर व गरीब भोजन तथा प्रसाद ग्रहण करते हैं।

सभी धर्मों के लोग आपको दिल से व श्रद्धा से याद करते हैं तथा प्रत्येक घर में स्वामी जी की प्रतिमा हैं तथा नित्य आरती व धूप होता है।

चन्डावल नगर में नाथ निरंजन कुटीर का निर्माण करवाया गया है। जहा पर प्रतिवर्ष महाशिवरात्री और गुरुपुर्णिमा के दिन भव्य आयोजन व सन्त समागम होता है। जहा पर भारतवर्ष से श्रद्धालू व सन्त महात्मा आते हैं।

महान राष्ट्रवादी स्वामी वासुदेव जी महाराज के जन्मोत्सव जयन्ती पर एक फिर से सभी धर्म व देश प्रेमियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।

निवेदक व गुरुभक्त
समस्त ग्रामवासी चन्डावल नगर


संकलनकर्ता


हीरालाल जाट,


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