भारत में राष्ट्रीयता की उत्पत्ति के कारण (भारतीय राष्ट्रवाद के उत्थान के सहायता तत्व) 01

भारत में राष्ट्रीयता की उत्पत्ति के कारण


(Reason to the origins of nationalism in India)


समाज और धार्मिक सुधार आंदोलनों का प्रगतिशील रूप
19वीं शताब्दीके शिक्षित भारतीयों ने उस पाश्चात्य दर्शन और विज्ञान के प्रकाशमें जो उन्होंने प्राप्त किया था, अपने धार्मिक विश्वासों रिति रिवाजों व सामाजिक प्रथाओं का पुनः परीक्षण करना प्रारंभ कर दिया था
इसके फल स्वरुप ब्रह्मा समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज ,थियोसोफिकल सोसायटी और रामकृष्ण मिशन जैसी संस्थाएं अस्तित्व में आई
उन्होंने हिंदू धर्म में सुधार किए और कई प्रथाओं को समाज से दूर करने का प्रयास किया
इसी प्रकार मुसलमानों, सिक्खो और पारसियो में भी सुधार वाली संस्थाएं बनी
धार्मिक क्षेत्रमें इन सुधार आंदोलनों ने अंधविश्वास ,मूर्तिपूजा बहुदेववाद और वंशानुगत पुरोहित पद्धतिको चुनौती दी थी
सामाजिक क्षेत्र में इन्होंने जाति प्रथा अस्पृश्यता बाल विवाह विधवा विवाह और अन्य सामाजिक तथा वैधानिक असमानताओंको चुनौती दी थी
यह सभी आंदोलन उन्नतिशीलथे
यह सभी चाहते थे कि समाज का गठन प्रजातंत्र सामाजिक और व्यक्तिगत समानता तर्क बुद्धिवाद और उदारवादीआधार पर किया जाए
 इन धार्मिक समाजों में से अधिकतर का कोई राजनीतिक उद्देश्यनहीं था
 लेकिन जो भी लोग इनके प्रभाव में आए उन्हें शीघ्र ही आत्म सम्मान और देशभक्ति की भावना विकसितहो गई थी ?क्योकी बहुत सी सुधार संस्थाएं भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं से ही अपनी प्रेरणा लेती थी,
जिसमें अखिल भारतीय भावनाएं और राष्ट्रवाद का उदय हुआ था
बौद्धिक पुनर्जागरणने राष्ट्रवाद के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी
राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती ,स्वामी विवेकानंद आदि ने भारतीयों के अंतर्मन को झकझोरा था
स्वामी दयानंद सरस्वतीने कहा स्वदेशी राज्य सर्वोपरि और सर्वोत्तम होता है
स्वामी रामतीर्थने कहा कि मैं सशरीर भारत हु और सारा भारत मेरा शरीर है

आर्थिक शोषण
 अंग्रेजों द्वारा भारत का आर्थिक शोषण राष्ट्रीयता की उत्पत्ति का सर्वप्रमुखकारण माना जाता है
दादा भाई नौरोजी ने धन निष्कासन के सिद्धांत को समझा कर अंग्रेजों के शोषण का खाका खींचा था
अंग्रेजों की भारत विरोधी आर्थिक नीतिमें भारतीयों के मन में विदेशी राज्य के प्रति नफरत और स्वदेशी राज्य के प्रति उत्तरार्द्ध मे प्रति व्यक्ति आय का अनुमान लगाने का प्रयत्न किया था
उनके अनुसार 1867-68 में प्रति व्यक्ति आय ₹20 वार्षिकथी
जबकि विलियम डिग्बी के अनुसार 1899 प्रति व्यक्ति आय 18 रूपय वार्षिक थी
अंग्रेजी शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर अत्यंत विनाशकारी प्रभाव था
पंडित जवाहरलाल नेहरूने भारतीय दृष्टिकोण को निम्न शब्दों में व्यक्त किया की "भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च स्थिति तक पहुंच चुकी थी जैसा कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व"होनी चाहिए थी
लेकिन विदेशी राजनीतिक प्रभुत्व ने इस अर्थव्यवस्था का शीघ्र ही विनाश कर दिया और उसके बदले में कोई अनुकूल तथा रचनात्मक तत्व कुछ भी नहीं दिया
जिसका परिणाम अगाध निर्धनता और अध:पतनथा
अंग्रेजी नीतियोंका साधारण प्रयोजन यह था कि कुछ अंग्रेजी विद्वान इसे सामाजिक सुधारकहते हैं और परंपरागत भारतीय अर्थव्यवस्था का योजनाबद्ध विनाश करना मानते थे
अंग्रेजों की इस पक्ष का पूर्ण आर्थिक और राजस्व नीति की प्रतिक्रिया के रूप में आर्थिक राष्ट्रवादका उदय हुआ
19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति का नेता था और उसे अपने सस्ते कच्चे माल और तैयार मालके लिए एक मंडी चाहिए थी
साम्राज्यवादी इंग्लैंड की आवश्यकता यह थी की भारतीय अर्थव्यवस्था का गठन शास्त्रीय औपनिवेशिक आदर्श पर किया जाएं
इस प्रकार भारत की सभी आर्थिक नीतियां ,कृषि ,भारी उद्योग, वित्त, शुल्क, विदेशी पूंजी ,निवेश, विदेशी व्यापार ,बैंक व्यवसाय इत्यादि सभी औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के लिए गठित की गई थी
अंग्रेजों के ना चाहते हुए भी आधुनिक पूंजी उपक्रमों ने 1860 के बाद भारत में अपना पदारोपण किया था
इस से अंग्रेजी कपड़ा उद्योगने यह शोर मचाना प्रारंभ कर दिया था कि उनके हित में भारतीय शुल्क दरों का पुनरवेक्षण किया जाए
इसका सबसे मुख्य उद्धारण था सूती कपड़े पर लगा आयात कर, जिस को अंग्रेजी पूंजी पतियों की सुविधा अनुसार सरकार बदल रही थी
इसी प्रकार पाउंड और रुपए की विनिमय दर को भी भारतीय उद्योग और विदेशी व्यापार के प्रतिकूल बदला जा रहा था
यह सभी नई परिस्थितियां स्पष्टकर रही थी कि जब कभी भी भारतीय विकास और अंग्रेजी हितों में टकराव होता था ,तो बलि सदैव भारतीय हितोंकी होती थी
भारत का सिविल तथा सैनिक अपव्ययी, प्रशासन भारतीय को उच्च पदों से वंचितरखना
लगातार बढ़ रहे गृह व्यय,(इंग्लैंड में भारत के लिए किया गया व्यय) और भारत से धन का लगातार निकासइन सभी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था कुंठित हो गई थी
इन सभी का संचित प्रभाव जनता की बढ़ती हुई दुर्गतिथी
समय समय पर पड़ने वाले अकाल भारतीय जीवन की एक नियमित विशेषताबन गए थे
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में 24 अकालपड़े थे
जिसमें लगभग तीन करोड़ व्यक्ति मारेगए थे
इसमें भी घिनौनी बात यह थी कि अकाल के दिनों में भी अन्न भारत से निर्यातकिया जा रहा था
भारतीय राष्ट्रवादियों ने भारत में बढ़ती हुई दरिद्रता का सिद्धांत विकसित किया
इसका मुख्य कारण अंग्रेजों की भारत विरोधी आर्थिक नीतियां ही बताया गया था
इन्होंने दरिद्रता और विदेशी दासतांको जोड दिया था
इस मनोवृति से विदेशी  राज के प्रति घृणाउत्पन्न हुई और स्वदेशी माल और स्वदेशी राज के प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ
इससे राष्ट्रवाद को ज्यादा बढ़ावा मिला और राष्ट्रवाद के उदय में आर्थिक karan सबसे प्रमुख रहा

लार्ड लिंटन की प्रतिक्रियावादी नीतियां
लार्ड लिटन की समीप दृष्टि वाली नीतियोंने भी राष्ट्र भावना जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया
I.C.S. की परीक्षा की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्षकर दी थी
 जिससे शिक्षित भारतीय युवक इस परीक्षा को ना दे सके
1877 में भीषण अकालके समय दिल्ली में एक भव्य शाली दरबार लगा कर लाखों रुपए नष्ट करना
एक ऐसा ऐसा गर्ह्य कार्य था जिस पर एक कलकत्ता के समाचार पत्र लेखक ने कहा था➖ ?नीरो वंशी बजा रहा था जब रोम जलरहा था
 इसके अतिरिक्त लिंटन ने दो अन्य अधिनियम भारतीय भाषा समाचार पत्र अधिनियम और भारतीय शस्त्र अधिनियम पारित किए
जिससे जातीय कटुुताऔर भी बढ़ गई
जिसके फलस्वरुप भारत में अनेक राजनीतिक संस्थाएंबनी ताकि सरकार विरोधी आंदोलन चला सके
इसके अतिरिक्त द्वितीय आंग्ल अफगान युद्ध आदी ने राष्ट्रीयता के उदय का मार्ग प्रशस्त किया

इल्बर्ट बिल का विवाद
भारत में सबसे लोकप्रिय वायसराय रिपन के समय में इल्बर्ट बिल पारित हुआ था
इल्बर्ट बिल जाति भेद पर आधारित न्यायिक असमर्थताए  समाप्त करनेपर आधारित था
इल्बर्ट बिल पर हुए विवाद को लेकर दोनों पक्ष उत्तेजितहो गए थे और बहुत समय तक यह उत्तेजना शांत नहीं हुई थी
रिपन कि सरकार ने जाति भेद पर आधारित न्यायिक असमर्थताए समाप्त करने का प्रयास किया था
इल्बर्ट बिल ने जानपद सेवा के भारतीय जिला और सत्र न्यायाधीशों को वही शक्तियां और अधिकार देने का प्रयत्न किया जो कि उनके यूरोपीय साथियों को मिल रहा था
लेकिन इसके विरोध मे यूरोपीय लोगों की प्रतिक्रिया इतनी कटुथी की वायसराय को यह अधिनियम बदलना पड़ा ?भारतीयों की इस विवाद ने आंखें खोल दी
उन्होंने देखा की जहां यूरोपीय लोगों के विशेषाधिकारका प्रश्न है उन्हें न्याय नहींमिल सकता
दूसरा उन्होंने अनुभव किया कि संगठित आंदोलन से क्या प्रभाव पड़ सकते हैं
इस कारण भारतीय लोग भी संगठित होकर राष्ट्रवाद के लिए आंदोलनकरने लगे

शासकों का प्रजाति गत अहंकार
इसमें अंग्रेजों ने रंग भेद की नीतिअपनाई
जिसका शिक्षित भारतीयों द्वारा विरोध किया गया नौकरियों के संबंध में काले गौरे का भेदभावकिया जाता था
बहुत से सामाजिक क्लब केवल यूरोपियोंके लिए होते थे
यहां तक की कानूनी अदालतों में भी यूरोपियों के समक्ष भारतीयों से अनुचित व्यवहारकिया जाता था
इस प्रकार उत्पन्न हुए वैमनस्य से भारतीयो  में एकता उत्पन्न हुई.

राष्ट्रीय साहित्य का प्रभाव
रष्ट्रीय साहित्य भी राष्ट्रीयता की उत्पत्तिके लिए एक प्रमुख कारण है
आधुनिक खड़ी बोली के पितामह भारतेंदू हरिश्चंद्र ने 1876में लिखे अपने नाटक भारत दुर्दशा में अंग्रेजों की भारत के प्रति आक्रामक नितिका उल्लेख किया था
इस चित्र में हरिश्चंद्र के अतिरिक्त प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बद्रीनारायण चौधरी आदि भी थे
जिनकी रचनाएं देश प्रेम से ओत-प्रोत थी
अन्य भाषाओं जैसे उर्दू में मोहम्मद हुसैन ,अल्ताफ हुसैन हाली ,बंगाली में बंकिमचंद्र चटर्जी ,मराठी में चिपलूनकर ,गुजराती में नर्मद, तमिल में सुब्रह्मण्यम भारतीआदि की रचनाओं ने देश प्रेम की भावना विकसित की

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