लौकिक छन्द परिचय

छन्दः---संस्कृत में रचना प्रायः दो प्रकार की होती है---गद्य और पद्य ।
छन्द-रहित रचना को "गद्य" कहते हैं और छन्दोबद्ध रचना को "पद्य" ।
जो रचना अक्षर, मात्रा, गति, यति आदि के नियमों से युक्त होती है, उसे "छन्द" कहते हैं ।
जिन ग्रन्थों में छन्दों के स्वरूप तथा प्रकार आदि का विवेचन रहता है, उन्हें "छन्दःशास्त्र" कहते हैं ।


वर्ण या अक्षरः----
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छन्दःशास्त्र की दृष्टि से केवल व्यंजन (क्, ख् आदि) अक्षर या वर्ण नहीं कहलाते । अकेला स्वर या व्यंजन-सहित स्वर "अक्षर" कहलाता है । "आ", "का", और "काम्" में छन्दःशास्त्र की दृष्टि से से एक ही अक्षर है, क्योंकि उनमें स्वर तो केवल एक "आ" ही है । छन्द में अक्षर गिनते समय व्यंजनों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता ।


गुरु-लघु----
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ह्रस्व अक्षरों (अ, इ, उ, ऋ, लृ) को छन्दःशास्त्र में "लघु" कहते हैं और दीर्घ-अक्षरों (आ, ई, ऊ, ऋृ, ए. ऐ, ओ, औ) को "गुरु" ।
इसी प्रकार क, कि आदि लघु अक्षर हैं और का, कौ आदि गुरु । छन्दःशास्त्र में निम्नलिखित
को "गुरु" माना गया हैः----- 


"सानुस्वारश्च दीर्घश्च विसर्गी च गुरुर्भवेत् ।
वर्णः संयोगपूर्वश्च तथा पादान्तगोSपि वा ।।"



अर्थः----अनुस्वारयुक्त, दीर्घ, विसर्गयुक्त और संयुक्त अक्षरों से पूर्व वर्ण "गुरु" होता है । छन्द के पाद या चरण का अन्तिम वर्ण आवश्यकतानुसार लघु या गुरु मान लिया जाता है ।
इस परिभाषा के अनुसार "कंस" में "कं" , "काल" में "का", "दुःख" में "दुः" और "युक्त" में "यु" गुरु अक्षर है ।


छन्द के चरणों की लम्बाई और गति को ठीक रखने के लिए अक्षरों के गुरु-लघु के भेद को सम्यक् हृदयंगम कर लेना चाहिए । गुरु का चिह्न "S" और लघु का चिह्न "।" है ।


गणः----
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छन्दःशास्त्र के तीन-तीन अक्षरों के समूह को "गण" कहा गया है । उन गणों के नाम, स्वरूप तथा उदाहरणों को समझ लें-
(१.) मगण--म---तीनों अक्षर गुरु---SSS----मान्धाता, विद्यार्थी ।
(२.) नगण---न---तीनों अक्षर लघु---।।।---निगम, सरक ।
(३.) भगण---भ---प्रथम अक्षर गुरु---S।।----भारत, कृत्रिम ।
(४.) यगण---य----प्रथम अक्षर लघु----।SS---यशोदा, सुमित्रा ।
(५.) जगण---ज----मध्य अक्षर गुरु----।S।-----जिगीषु, जवान,
(६.) रगण----र----मध्य अक्षर लघु----S।S-----राधिका, राक्षसी ।
(७.) सगण----स---अन्तिम अक्षर गुरु---।।S----सविता, कमला ।
(८.) तगण----त----अन्तिम अक्षर लघु---SS।-----तारेश,आकाश ।


गणों को याद रखने के लिए इस श्लोक को याद कर लें---


"मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो, भादिगुरुः, पुनरादिलघुर्यः ।
जो गुरुमध्यगतो, रलमध्यः, सोSन्तगुरुः, कथितोSन्तलघुस्त ः ।।"



अर्थः---मगण में तीनों गुरु ,नगण में तीनों लघु, भगण में आदि अक्षर गुरु, यगण में आदि आदि लघु, जगण में मध्यम गुरु,
रगण में मध्यम लघु,सगण में अन्तिम गुरु और तगण में अन्तिम लघु होता है ।

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