Samanya Gyan Logo
Background

Master क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद PART 02(Revolutionary Chandrasekhar Azad PART 02)

Join thousands of students accessing our vast collection of expertly curated tests, daily quizzes, and topic-wise practice materials for comprehensive exam preparation.

क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद PART 02


(Revolutionary Chandrasekhar Azad PART 02)


काकोरी कांड:-
काकोरी कांड (9 अगस्त1925) की इस योजना में मुख्य रुप से रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ बख्शी, चन्द्र शेखर आजाद, अशफाक और राजेन्द्र लाहिड़ी शामिल थे। शचीन्द्र नाथ ने काकोरी नामक गाँव से तीन टिकट सेकेंड क्लास शाहजहाँपुर से लखनऊ की और जाने वाली 8 डाउन गाड़ी के लिये और राजेन्द्र व अशफाक के साथ सेकेंड क्लास के डब्बे में जाकर बैठ गये। बाकी के साथी तीसरी श्रेणी के ड़िब्बे में आकर बैठ गये। गाड़ी जैसे ही सिग्नल के पास पहुँची बख्शी ने साथियों को इशारा किया और अशफाक व राजेन्द्र ने गाड़ी की चैन खींच दी। गाड़ी रुक गयी। गाड़ी रुकने पर गार्ड ने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि हमारा जेवरों का बक्सा स्टेशन पर ही रह गया और इतना कहकर वे गार्ड के करीब गये। उनका गार्ड के करीब जाने का उद्देश्य उसे अपने अधिकार में लेकर सरकारी खजाने तक पहुँचना था क्योंकि खजाना उसी के ड़िब्बे में था। उसे कब्जे में लेकर अशफाक ने तिजोरी तोड़ने का कार्य किया और मुख्य नेतृत्व बिस्मिल ने संभाला।

तिजोरी तोड़ कर वे सब रुपयों को थैले में भरकर आसपास के जंगलों में जाकर छुप गये। वहाँ से छुपते छुपाते वे सब लखनऊ पहुँचे। यह कांड़ ब्रिटिश शासन की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया और उन्होंने इन क्रान्तिकारियों को हर जगह ढूंढने का कार्य शुरु कर दिया किन्तु सफलता न मिली। हर गली हर स्टेशन पर आजाद को पकड़ने के लिये उनके बड़े बड़े पोस्टर लगवा दिये गये और इनके सभी साथी भी एक एक करके भेष बदलकर लखनऊ से निकल गये।काकोरी कांड के बाद हरेक अखबार की सुर्खियों में इस घटना का वृतांत था। इस कारण संगठन के लोगों को इधर उधर हो जाना पड़ा। आजाद भी स्थिति की गंभीरता को देखते हुये अपने साथियों से अपने गाँव भावरा जाने की बात कह कर बनारस चले गये। ये आदत आजाद में शुरु से ही थी वे कहीं और जाने की बात कहकर अक्सर उस स्थान पर नहीं जाते थे जहाँ जाने के लिये कहते, वे किसी अन्य स्थान पर चले जाते थे। यहीं कारण था कि पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाती थी। आजाद पुलिस को चकमा देकर फरार हो जाने में बहुत कुशल थे।

झाँसी में छद्म वेष में रहना:-
आजाद ने बनारस जाकर देखा तो वहाँ भी पुलिस का कड़ा पहरा लगा हुआ था, उन्होंने वहाँ रहना उचित नहीं समझा और झांसी आ गये। बख्शी भी दल की नीतियों के तहत यहाँ पहले से ही पहुँच चुके थे। आजाद भी छिपते छिपाते इनके पास पहुँच गये। वे झाँसी में एक अध्यापक रुद्र नारायण के यहाँ रुके। उन दिनों मास्टर जी का घर क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र था।

आजाद कुछ दिन वहाँ रहे। इसके बाद पुलिस के शक से बचने के लिये मास्टर रुद्रदत्त ने इनके लिये ओरछा के जंगल में तरार नदी के किनारे हनुमान मंदिर के पास एक झोपड़ी में रहने की व्यवस्था कर दी। वहाँ ये पण्डित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छद्म नाम से रहने लगे।यह स्थान जंगली जानवरों से भरा हुआ था। किन्तु ये आराम से बिना किसी भय के उसी कुटिया में साधु के रुप में रहते।

कुछ दिन बाद रुद्रदत्त ने उन्हें एक मोटर ड्राईवर के सहायक के रुप में नियुक्त करा दिया। अब आजाद वही रहकर ड्राईविंग करना सीखने लगे और उन पर पुलिस भी संदेह नहीं कर पाती थी। इसी दौरान वो मोटर चलाना सीखे।

आजाद बेखौफ पुलिस की आँखो में धूल झोंक कर वेष बदलकर यहाँ से वहाँ घूमते थे। झाँसी मे जगह जगह चन्द्रशेखर को पकड़ने के लिये सी.आई.डी. की छापेमारी की जा रही थी किन्तु पुलिस उनको पकड़ने में सफल नहीं हो पा रहीं थी। इसी बीच में वे वहाँ से बचकर कानपुर आ गये।

गणेश शंकर 'विद्यार्थी' और भगत सिंह से मिलना:-
काकोरी कांड के बाद आजाद पुलिस से बचते हुये पहले झाँसी और फिर कानपुर गणेशशंकर विद्यार्थी के पास पहुँच गये। विद्यार्थी क्रान्तिकारियों के लिये अत्यधिक उदार थे। वे आजाद से मिलकर बहुत प्रसंन्न हुये। उन दिनों विद्यार्थी द्वारा सम्पादित लेख पत्र ‘प्रताप’ बहुत अच्छे स्तर पर प्रकाशित हो रहा था। इस पत्र प्रकाशन के द्वारा आसानी से ब्रिटिशों के विरुद्ध लेख प्रकाशित करके जन साधारण को राष्ट्र की वास्तविक अवस्था से परिचित कराया जाता था। एक ओर विद्यार्थी जी का प्रताप और दूसरी ओर अपने देश पर मर मिटने के लिये तत्पर नौजवानों का दल अंग्रेज सरकार की आँखों का काँटा बने हुये थे। इसी बीच विद्यार्थी को लाहौर से भगत सिंह का पत्र मिला कि वे प्रताप में सहायक के रुप में कार्य करना चाहते है। इस पत्र का उत्तर अतिशीघ्र देते हुये उन्होंने भगत को कानपुर आने का निमंत्रण दे दिया। उनका इतनी शीघ्रता से भगत को आने का निमंत्रण देने का मुख्य उद्देश्य क्रान्ति की बेदी पर स्वंय को न्यौछावर करने के लिये तत्पर दो महान व्यक्तित्वों का मिलन कराना था।

भगत सिंह इस निमंत्रण पर तुरंत कानपुर के लिये चल दिये। भगत प्रताप के संपादन विभाग में बलवंत के नाम से काम करने लगे। यहीं उन्होंने भगत का परिचय आजाद से कराया उस समय की स्थिति को विद्यार्थी जी ने इस प्रकार वर्णित कियाः-“कैसा संयोग है कि दो दिवाने, जो एक दूसरे के साक्षात्कार और सहयोग के लिये आतुर-लालायित रहे है। एक दूसरे के समक्ष उपस्थित है।” कुछ ही समय में दोनों एक दूसरे से ऐसे घुल मिल गये जैसे वर्षों से परिचित हो। इस समय क्रान्तिकारी संगठन को आगे बढ़ाने के लिये दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता थी।

बिखरे हुये क्रान्तिकारी दल को फिर से संयुक्त करने के लिये प्रयास किये जाने लगे। इसमें समस्या यह थी कि दल के प्रमुख नेता जेल में थे। इसलिये आजाद और भगत ने मिलकर काकोरी कांड के अभियुक्तों को जेल से भगाने की योजना बनायी। किन्तु यह योजना सफल नहीं हुई और काकोरी केस के अभियुक्तों पर लगभग 18 महीने केस चलाकर फाँसी की सजा सुना दी गयी। इन अभियुक्तों में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खाँ शामिल थे। फाँसी की खबर से जनता में रोष फैल गया और जनता ने फाँसी की सजा रद्द करने की माँग की। इस पर फाँसी की तिथियाँ दो बार टाली भी गयी किन्तु फाँसी की सजा को नहीं टाला गया।

सबसे पहले 17 दिसम्बर 1927 को राजेन्द्र लाहिड़ी को गोंड़ा जेल में फाँसी दी गयी। इसके बाद 19 दिसम्बर को रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर में, ठाकुर रोशन सिंह को इलाहबाद में और अशफाक उल्ला खाँ को फैजाबाद में फाँसी दे दी गयी। इस घटना से आजाद को बहुत धक्का लगा और अपनी योजनाओं पर नये सिरे से सोचना शुरु किया।

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का पुनर्गठन:-
8 दिसम्बर 1928 को फिरोजशाह के खण्ड़रों में चन्द्रशेखर आजाद की अध्यक्षता में प्रमुख क्रान्तिकारियों की एक बैठक हुई। इस बैठक में सात सदस्यों की एक समिति बनायी गयी। इस समिति में – सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, फणीन्द्रनाथ घोष, शिववर्मा, कुन्दन लाल और विजय कुमार शामिल थे।

चन्द्रशेखर आजाद पूरे संगठन के अध्यक्ष थे, इसके साथ ही उन्हें विशेष रुप से सेना विभाग का नेता चुना गया। दल का नाम हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के स्थान पर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी कर दिया गया। दल की ओर से कई जगह बम बनाने के कारखाने खोले गये और बम कारखाने के केन्द्र स्थापित किये गये। ये केन्द्र आगरा, लाहौर, सहारनपुर और कलकत्ता में स्थापित किये गये। इस सभा में यह भी निर्णय लिया गया कि दल में केवल उन्हीं मामलों को प्रमुखता दी जायेगी जो सार्वजनिक महत्व के होंगें क्योंकि इससे दल को जनता के बीच में लोकप्रिय बनाया जा सकेगा और दल के उद्देश्यों को स्पष्ट करने में सफलता मिल सकेगी।

साइमन कमीशन का विरोध एवं लालाजी की मौत का बदला लेना:-
भारत में साइमन कमीशन के आने का विरोध प्रदर्शन हो रहा था। जनता द्वारा साइमन कमीशन के विरोध में जगह आन्दोलन किये जा रहे थे। यह आजाद और उनके दल के लिये सुनहरा अवसर था। दल के प्रमुख नेताओं ने पंजाब केसरी लाला लाजपत राय को आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिये मना लिया। 20 अक्टूबर 1928 को जब साइमन कमीशन भारत पहुँचा तो इस कमीशन के विरोध में भारी जलूस निकाला गया। इसके नेतृत्व की कमान लाला लाजपत राय के हाथों में थी और उनके चारों ओर दल के नौजवान मजबूत घेरा बना कर विरोध रैली को आगे बढ़ा रहे थे साथ ही किसी भी प्रकार के संकट से बचाने के लिये उनके ऊपर छाता लगाया हुआ था। इसी बीच पुलिस सुपरिटेन्डेंट स्टाक ने लाठी चार्ज का हुक्म दिया। तभी सांडर्स की लाठी के प्रहार से लाला जी की छतरी टूट गयी और उनके कंधे में चोट आयी। उनके चारों ओर अभी भी बड़े जोश के साथ उपस्थित नवयुवक जलूस को आगे बढ़ाने के लिये तत्पर थे। किन्तु लाला जी ने उन्हें आदेश दिया कि –“पुलिस की इस जालिमाना हरकत की मुखालफत में मुजाहिरे को मुअत्तल कर दिया जाये।” उनके इस कथन पर प्रदर्शन को स्थगित कर दिया गया।

शाम आयोजित सभा में लाला लाजपर राय ने भाषण दिया। इस भाषण में उन्होंने जनता को सम्बोधित करते हुये कहा – “जो सरकार जनता पर जालिमाना हमले करती है वह ज्यादा दिन तक कायम न रह सकेगी।... मैं आज चुनौती देता हूँ कि मेरे ऊपर किया गया लाठी का एक एक प्रहार ब्रिटिश सरकार के ताबूत में कील सिद्ध होगा।”

इस दुखद हमले के बाद लालाजी ठीक न हो सके और 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गयी। पूरा भारत शोक में डूब गया। आजद के दल ने पंजाब केसरी की मृत्यु का बदला लेने का निर्णय लिया गया। दल ने यह निश्चय किया कि लाला लाजपत राय पर हमला करने वाले पुलिस अफसर को मार दिया जाये। इस कार्य के लिये आजाद, भगत, राजगुरु और जयगोपाल नियुक्त किये गये। इन चारों ने मिलकर 17 दिसम्बर 1928 को ईंट का जबाब पत्थर से देते हुये सांडर्स को मौत के घाट ऊतार दिया।

सेंट्रल असेम्बली बम्ब कांड:-
सांडर्स की हत्या के बाद पुलिस प्रशासन में हड़कंम मच गया। पंजाब पुलिस चारों तरफ पागलों की तरह हत्यारों को खोज रहीं थी। पूरे पंजाब में सी.आई.डी. का जाल बिछा था किन्तु इन चारों में से कोई भी हाथ नहीं आया। शाम होते ही दल के लोग छिपकर आपस में विचार विमर्श करने के लिये एकत्र हुये। उस समय दल के पास इतना भी धन नहीं था कि भोजन की समस्या भी हल हो सके। आजाद कहीं से दस रुपये की व्यवस्था करके लाये और सबको भोजन कराने के बाद आगे की योजना बनायी और सभी को अलग अलग जाने के लिये आदेश दिया गया

सांडर्स की हत्या के बाद यह दल जनता का प्रिय हो गया और इन्हें आसानी से चन्दे भी मिलने लगे। आर्थिक तंगी की समस्या दूर हो गयी असानी से दल के उद्देश्यों को पूरा किया जाने लगा। इसी क्रम में दल ने आगरा में बम बनाने का कारखाना खोला और यहाँ बम बनाने का कार्य किया जाने लगा। अब दल ने कुछ बड़ा करने का निश्चय किया जिससे कि एक साथ दो कार्यों को पूरा किया जा सके – पहला जनता उनके दल के उद्देश्यों से परिचित हो और दूसरा ब्रिटिश शासन को डरा कर भारत को आजाद कराना। इसके लिये भगत सिंह ने दल की बैठक में असम्बेली में बम फेंकने का निर्णय दिया। सभी इस बात पर सहमत हो गये। इस कार्य के लिये आजाद और भगत सिंह के नाम का प्रस्ताव रखा गया किन्तु इन दोनों का दल के भविष्य के लिये जीवित रहना आवश्यक था। अतः भगत और बटुकेश्वर दत्त का जाना तय किया गया।

आजाद चाहते थे कि बम फेंक कर भाग जाना चाहिये, वहीं भगत सिंह गिरफ्तार होकर जनता तक अपनी बात पहुँचाने के पक्ष में थे। क्योंकि उनका मानना था कि खाली बम फेंक कर और पर्चें उड़ाकर जनता तक अपने उद्देश्यों को नहीं पहुँचाया जा सकता। इसके लिये गिरफ्तार होकर अदालत में अपने उद्देश्यों को बताना अधिक उपयुक्त उपाय है। चन्द्रशेखर आजाद इस बात के पक्ष में नहीं थे। वे चाहते थे कि बम फेंक कर फरार हो जाना चाहिये और गुप्त संपर्कों के माध्यम से क्रान्ति की आग को जन साधारण में फैलाना चाहिये। पर भगत ने इनकी बात नहीं मानी मजबूरी में दल को भी भगत की बात माननी पड़ी। आजाद द्वारा इस बात पर जोर डालने का सबसे बड़ा कारण था कि उन्हें भगत से बहुत लगाव था और वे किसी भी कीमत पर उन्हें खो कर दल को कोई भी हानि नहीं पहुँचाना चाहते थे। किन्तु भगत के आगे उनकी एक ना चली और न चाहते हुये भी उन्हें अपनी सहमति देनी पड़ी। आजाद बहुत दुखी थे कि उनकी मनोदशा को उनके इन शब्दों से समझा जा सकता – “क्या सेनापति होने के नाते मेरा यहीं काम है कि नये साथी जमा करुँ, उनसे परिचय, स्नेह और घनिष्ठता बढ़ाऊ और फिर उन्हें मौत के हवाले कर मैं ज्यों का त्यों बैठा रहूं।”

असम्बली कांड के बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी की सजा सुनायी गयी। इस फैसले से आजाद को बहुत दुख हुआ। उन्होंने भगत को जेल से भगाने के लिये बम्बई में संगठन खड़ा किया। वहाँ पृथ्वीराज से मिलकर उसे बम्बई में संगठन का नेतृत्व करने का दायित्व देकर स्वंय भगत सिंह और उनके साथियों को छुड़ाने का यत्न करने लगे। इसी प्रयास को सफल करने के लिये आजाद ने सुशीला दीदी (आजाद की सहयोगी) और दुर्गा भाभी को गाँधी के पास भेज चुके थे। उन्होंने गाँधी को एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि गाँधीजी भगत सिंह और दत्त की फाँसी को मंसूख करा सके और चलने वाले मुकदमों को वापस ले सके तो आजाद भी अपनी पार्टी सहित अपने को गाँधी जी के हाथों में सौंप सकते है, फिर वे चाहे कुछ भी करें। आजाद पार्टी को भंग करने को तैयार हो गये थे। गाँधी से भी उन्हें कोई संतोषजनक जबाब नहीं मिला, जिससे दल को बड़ी निराशा हुई, फिर भी प्रयत्न जारी रखे गये।

साण्डर्स की हत्या के बाद फरार जीवनः–
आजाद ने बहुत लम्बी फरारी का जीवन व्यतीत किया था। वे 26 सितम्बर, 1925 से फरार थे। 17 दिसम्बर 1928 को सांडर्स की हत्या के बाद से उनके लिये फाँसी का फन्दा भी तैयार था। किन्तु पुलिस उन्हें कैद नहीं कर पा रही थी। फरारी जीवन में सड़क पर चलते समय या ट्रेन में सफर करते समय ऐसे कार्यों की शख्त मना थी जिनसे उनकी किसी राजनैतिक रुचि के बारे में किसी को भी पता चले। गाड़ी में सफर करते समय क्रान्तिकारी साधारण किस्से कहानी में अपना समय व्यतीत करते थे या कोई उपन्यास लेकर उसे पढ़ने में व्यतीत करते।

चन्द्रशेखर को पकड़ने के लिये पुलिस ने ऐड़ी चोटी का जोर लगाये हुई थी। सरकार उन्हें पकड़ने के लिये हर संभव प्रयास कर रहीं थी। पुलिस हाथ धोकर उनके पीछे पड़ी थी, उन्हें पकड़ने के लिये तरह तरह के इनाम घोषित किये गये थे। पर आजाद को कैद करना कोई बच्चों का खेल नहीं उन्होंने जीते जी कैद ना होने की कसम जो खायी हुई थी। कानपुर, बनारस, झाँसी और दिल्ली में उन्हें पकड़ने के विशेष पुलिस प्रबंध किये जाते थे। उन्हें पहचानने वाले व्यक्ति इन स्थानों पर तैनात कर दिये जाते थे। फिर भी आजाद उनकी आँखों में धूल झोंक कर फरार हो जाते थे। कभी कभी तो वे पुलिस के बिल्कुल सामने से निकल जाते थे और पुलिस वालों को पता भी नहीं चलता था।

आजाद की खाशियत थी कि वे जिस तिथि को जाने के लिये कहते थे, उस दिन वे कहीं नही जाते थे। यही कारण था कि वे पुलिस का पकड़ में नहीं आते थे। दूसरा कारण यह था कि वे भेष बदलने में माहिर थे। वे जब भी यात्रा करते भेष बदलकर करते। जिस स्थान पर जाने को कहते उस स्थान पर न जाकर कहीं और जाते। तो कोई भी उनकी मुखबिरी नहीं कर पाता और वे फरार होने में सफल रहते।

व्यक्तित्व:-
आजाद महान व्यक्तित्व के धनी थे। वे अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। उनके त्याग, व्यक्तित्व, लगन, प्रतिभा, सहजता, साहस और चरित्र से हरेक व्यक्ति प्रभावित था। वे अपने अनुशासन को मानने वाले व्यक्ति थे। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। उन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं था कि इनके संगठन का कोई भी व्यक्ति स्त्रियों का अपमान करें। वे स्वंय स्त्रियों का बहुत सम्मान करते थे। पार्टी में उनका आदेश था कि कोई व्यक्ति स्त्री पर बुरी नजर नहीं डालेगा, यदि किसी ने ऐसा किया तो वह पहले उनकी गोली का शिकार बनेगा।

वह स्वभाव से कठोर भी थे और सहज भी। उनका रहन सहन बहुत सादा था। खाना बिल्कुल रुखा सूखा पसंद करते थे। खिचड़ी उनकी सबसे पसंदीदा भोजन थी। वह अपने ऊपर एक रुपया भी खर्च न करते थे। ना उन्हें अपने नाम की परवाह थी और न ही परिवार की। एक बार भगत सिंह ने बहुत आग्रह के साथ उनसे पूछा था कि – “पंड़ित जी, इतना तो बता दीजिये, अपका घर कहाँ है और वहाँ कौन – कौन है? ताकि भविष्य में हम उनकी आवश्यकता पड़ने पर सहायता कर सकें तभा देशवासियों को एक शहीद का ठीक से परिचय मिल सकें।” इतना सुनते ही आजाद गुस्से में बोले – “इतिहास में मुझे अपना नाम नहीं लिखवाना है और न ही परिवार वालो को किसी की सहायता चाहिये। अब कभीं यह बात मेरे सामने नहीं आनी चाहिये। मैं इस तरह नाम, यश और सहायता का भूखा नहीं हूँ।” आजाद के इसी व्यक्तित्व के कारण हर किसी का शीश उनके लिये श्रद्धा से झुक जाता है।

एक बार की बात है, आजाद दल के किसी कार्य के लिये रुपयों की व्यवस्था के लिये दल की मोटर कार थी, उसे बेचकर आर्थिक तंगी का समाधान करना था। आजाद के माता – पिता की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी, पर देश पर मर मिटने को तैयार आजाद को परिवार की चिन्ता के लिये समय ही कहाँ था। उनके माता-पिता की उस स्थिति का पता गणेशशंकर विद्यार्थी को लगा तो उन्होंने 200 रुपये आजाद को देकर कहा कि इसे अपने परिवार वालो को भिजवा देना। किन्तु आजाद ने यह रुपये पार्टी के कामों में खर्च कर दिये। दुबारा मिलने पर विद्यार्थी जी ने रुपये भेजने के संबंध में पूछा तो आजाद ने हँस कर कहा – “उन बूढ़ा-बूढ़ी के लिये पिस्तौल की दो गोलियाँ काफी है। विद्यार्थी जी इस देश में लाखों परिवार ऐसे हैं जिन्हें एक समय भी रोटी नसीब नहीं होती। मेरे माता-पिता दो दिन में एक बार भोजन पा ही जाते है। वे भूखे रह सकते है, पर पैसे के लिये पार्टी के सदस्यों को भूखा नहीं मरने दूंगा। मेरे माता-पिता भूखे मर भी गये तो इस से देश का कोई नुकसान नहीं होगा, ऐसे कितने ही इसमें जीते मरते है।” इतना कहकर आजाद चले गये और विद्यार्थी जी केवल अचरज भरीं नजरों से उन्हें देखते ही रह गये। ऐसे थे महान क्रान्तिकारी आजाद जो अपने ऊपर दल का एक रुपया भी खर्च नहीं करते थे। इस महान क्रान्तिकारी के मन में कभी भी किसी भी प्रकार का न लोभ ही था और न ही घमंड़। विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी अपना संयम नहीं खोया। कितनी भी विकट परिस्थिति क्यों न हो आजाद कभी भी दुर्व्यसन में नहीं पड़े। बम्बई में भी जहाज रंगने वाले मजदूरों के साथ कार्य करते हुये कभी भी माँस मदिरा का सेवन नहीं किया। अगर कोई उनसे कहा तो भी वे सहज स्वभाव से मना कर देते। आजाद कट्टर ब्राह्मण थे। वे गोश्त, शराब और सिगरेट जैसे दुर्व्यसनों से सदैव ही दूर रहते थे किन्तु कभी कभी पुलिस से बचने के लिये सिगरेट पीने का स्वांग अवश्य करते थे। हालांकि बाद में भगत सिंह और अन्य क्रान्तिकारियों के बहुत आग्रह पर कच्चा अंड़ा खाना शुरु कर दिया था किन्तु माँस उन्होंने कभी नहीं खाया। आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और सदैव स्त्रियों का सम्मान किया। आजाद के कार्यों की ही तरह उनका व्यक्तित्व भी बहुत महान था।

संघटन का विघटन:-
असम्बेली बम कांड के बाद जगह जगह क्रान्तिकारियों की गिरफ्तारियाँ की जाने लगी। कुछ ने स्वंय ही समर्पण कर दिया कुछ पुलिस के मुखबिर बन गये, कुछ सरकारी गवाह बन गये और कुछ की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु हो गयी। इस तरह दल के कुछ सदस्यों द्वारा दल से गद्दारी के कारण आजाद को बहुत दुख हुआ। वे भगत की गिरफ्तारी से पहले ही दुखी थे और कुछ सदस्यों के विश्वास घात ने उन्हें बिल्कुल असाह्य कर दिया। इन सब घटनाओं के कारण आजाद ने दल के विघटन का निश्चय किया।

4 सितम्बर 1930 के दिन दोपहर को उन्होंने बचे हुये क्रान्तिकारियों को एकत्र करके सभा की और दल के विघटन का आदेश दिया। इस प्रकार दिल्ली की केन्द्रीय सभा को भंग कर दिया ताकि दलों को नये सिरे से पुनः संगठित किया जा सके और नये सिरे व नये आधार पर कार्य किया जा सके। साथ ही जो भी सदस्य थे उन्हें अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रुप से कार्य करने के लिये कहा गया और यह भी कहा कि जब भी उनकी आवश्यकता महसूस हो तो उनसे सहायता के लिये कह सकते है। आजाद ने इस फैसले के साथ ही क्षेत्र के सभी प्रमुखों को आवश्यक हथियार देकर वहाँ से चले गये।

आजाद के जीवन के अन्तिम वर्षः–
आजाद ने दल के विघटन के बाद प्रयाग (इलाहबाद) में अपना केन्द्र बना लिया और यहीं से अपनी योजनाओं का संचालन करते थे। आजाद इलाहबाद के कटरे मुहल्ले के लक्ष्मी दीदी के मकान में अपने गिने चुने साथियों के साथ रहते थे। लक्ष्मी दीदी के पति आजाद के सहयोगी थे और किसी क्रान्तिकारी घटना के समय शहीद हो गये थे। लक्ष्मी दीदी उनकी पत्नी थी, उन्होंने अपनी पत्नी को आजीवन दल के सदस्यों की सहायता करने के लिये कहा था और जब आजाद ने इलाहबाद रहने का निर्णय किया तो लक्ष्मी दीदी ने अपने घर के द्वार उनके लिये खोल दिये। अब उनका कार्य दल के नेता की सुरक्षा करना हो गया। वह भिखारिन के रुप में पुलिस, सी. आई. डी. के भेद ज्ञात करके आजाद को बताती साथ ही उनके और उनके साथियों के लिये खाना बनाकर खिलाती। वह जितनी सहायता कर सकती थी करती और आजाद को उनके साथियों सहित सुरक्षित रखने का पूरा प्रयास करती थी।

पं. जवाहर लाल नेहरु से मिलनाः–
आजाद के मन में भविष्य को लेकर बहुत सी अनिश्चिताऍ थी। गोलमेज सम्मेलन के दौरान यह निश्चय किया जाने लगा था कि कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच में समझौता हो जायेगा। ऐसे में आजाद के मन में अनेक सवाल थे। उन्हीं सवालों के समाधान के लिये पहले वे मोतीलाल नेहरु से मिले किन्तु उनकी मृत्यु हो गयी और कोई समाधान नहीं निकला। इसके बाद वे जवाहर लाल नेहरु से मिलने के लिये गये। इस मुलाकात का वर्णन नेहरु ने अपनी आत्मकथा "मेरी कहानी" में किया है जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैः–

“आजाद मुझसे मिलने के लिये तैयार हुआ था कि हमारे जेल से छूट जाने से आमतौर पर आशाऍ बंधने लगी है कि सरकार और कांग्रेस में कुछ न कुछ समझौता होने वाला है। वह जानना चाहता था कि अगर कोई समझौता हो तो उसके दल के लोगों को भी कोई शांति मिलेगी या नहीं? क्या उसके साथ तब भी विद्रोहियों का सा बर्ताव किया जायेगा? जगह-जगह उनका पीछा इसी प्रकार किया जायेगा? उनके सिरों के लिये इनाम घोषित होते ही रहेंगे? फांसी का तख्ता हमेशा लटकता ही रहेगा या उनके लिये शांति के साथ काम-धंधे में लग जाने की सम्भावना होगी? उसने खुद कहा कि मेरा और मेरे साथायों का यह विश्वास हो चुका है कि आतंकवादी तरीके बिल्कुल बेकार है, उससे कोई लाभ नहीं है। हाँ वह यह भी मानने को तैयार नहीं था कि शांतिमय साधनों से ही हिन्दुस्तान को आजादी मिल जायेगी। उसने कहा कि आगे कभी सशस्त्र लड़ाई का मौका आ सकता है, मगर यह आतंकवाद न होगा।”

आजाद गाँधी द्वारा गोलमेज सम्मेलन में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी की सजा को उम्र कैद की सजा में बदलवाना चाहते थे क्योंकि वे जानते थे कि इस समय अंग्रेजी शासन की दशा बहुत कमजोर है और उसके सामने कांग्रेस की स्थिति मजबूत है साथ ही यदि गाँधी और नेहरु चाहे तो अंग्रेजों को इस बात का दबाब ड़ालकर राजी भी कर सकते है। वे इस मुद्दे पर बात करने के लिये पहले ही सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी को गाँधी से बात करने के लिये भेज चुके थे, पर उन्हें कोई संतोषजनक जबाव नहीं मिला तो, इसी सन्दर्भ में वे बात करने के लिये नेहरु से मिले। इस बात पर जवाहर लाल नेहरु से बहुत बहस भी हुई और आजाद गुस्से में वहाँ से चले आये।

शहादत (27 फरवरी 1931):–
27 फरवरी 1931 की सुबह नेहरु से मिलने के बाद आजाद बहुत गुस्से में बाहर  निकले और अल्फ्रेड पार्क में अपने मित्र सुखदेव के साथ कुछ जरुरी मुद्दों पर बात करने के लिये गये। उसी समय किसी विश्वासघाती ने पुलिस का मुखबिर बन आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की सूचना दी। आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की खबर मिलते ही पुलिस इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह ने एस. पी. नॉट बाबर को सूचना दी और पुलिस फोर्स के साथ पार्क को घेर लिया। आजाद सुखदेव से बात कर रहे थे इसी बीच एक गोली आजाद की जांघ में लगी, आजाद जबाबी फायरिंग करते हुये पुलिस अफसर की कार टायर पंचर कर देते है।

आजाद अपने साथी सुखदेव को वहाँ से भगाकर खुद मोर्चा संभाल लेते है। इसी दौरान एक और गोली उनके दाँये फेंफड़े में लग जाती है। वे पूरी तरह से लहुलुहान पुलिस दल का सामना करते है। वे नॉट बाबर को लक्ष्य करके गोली चलाते है और उसकी गाड़ी का मोटर एक ही गोली से चूर कर देते है। उन्होंने किसी भी भारतीय सिपाही पर गोली नहीं चलायी। जब झाड़ी में छिपे एस. पी. विश्वेश्वराय ने उन्हें गाली देकर संबोधित किया। यह स्वाभिमानी आजाद को बर्दास्त नहीं हुआ और एक ही गोली में उसका गाली देने वाला जबड़ा तोड़ दिया। इतना अच्छा शॉट जिसे देखकर सी. आई. डी. के आई. जी. के मुँह से भी तारीफ में शब्द निकल गये “वण्डरफुल.....वण्डरफुल शॉट!”। खून से लथपथ आजाद ने एक पेड़ का सहारा लेकर लगभग आधे घंटे तक अकेले पुलिस फोर्स से मोर्चा लिया। इतने गंभीर समय में भी आजाद को यह याद था कि वह कितनी गोली खर्च कर चुके है। उन्हें याद था कि उनके पास अब सिर्फ एक ही गोली बची है साथ ही जीते जी कैद न होने की अपनी कसम भी याद थी। खून से लथपथ आजाद ने अपनी कनपटी पर पिस्तौल रखी और स्वंय को इन सभी बंधनों से आजाद कर लिया। अपने इन शब्दों को खुद ही सार्थक कर गयेः-

“दुश्मनों की गोलियों का हम सामना करेंगें, आजाद हैं, आजाद हैं, आजाद ही रहेंगें।”

आजाद जीते जी अंग्रेजो की कैद में नहीं आये। वे आजाद थे और मरते दम तक आजाद ही रहें। पुलिस में उनका खौफ जीते जी था किन्तु वह उनके मरने के बाद भी कम न हुआ। जब उनका शरीर बेजान धरती पर लुढ़क गया तब भी बहुत देर तक कोई भी उनके पास आने का साहस न कर पाया। फिर एक अधिकारी ने उनके पैर में गोली मारकर देखा कि वास्तव मर गये है या जीवित है, कोई प्रतिक्रिया न आने पर पुलिस अधिकारी उनके शव के करीब गये।

धीरे धीरे यह खबर आग की तरह फैल गयी कि अल्फ्रेड पार्क में आजाद शहीद हो गये और पार्क के चारों ओर उस महान क्रान्तिकारी के पहले और आखिरी दर्शन करने के लिये भीड़ लग गयी। भीड़ पर भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। चारों तरफ शोर और कोलाहल बढ़ने लगा। पुलिस दंगा होने के भय से उनके पार्थिव शरीर को ट्रक में भर कर ले गयी और उसका पोस्टमार्टम करने के बाद किसी गुप्त स्थान पर अंतिम संस्कार कर दिया गया।

अगले दिन आजाद की अस्थियों को चुनकर युवकों ने एक बहुत बड़ा जलूस निकाला। शाम को सभा हुई आजाद की शहादत को सम्मानित करते हुये उन्हें भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी गयी। ब्रिटिश सरकार आजाद को मार कर भी मार न सकी। अपनी इस जीत पर भी वह हार गयी। आजाद जो अलख जगाने के लिये शहीद हो गये वह भारत के हर नवयुवक के मन में जल गयी स्वतंत्रता के लिये आन्दोलन और तेज हो गया और अन्त में आजाद का आजाद भारत का सपना 15 अगस्त 1947 को पूरा हुआ।

आजाद की शहादत पर नेताओं के कथन:-
27 फरवरी को आजाद की मृत्यु के बाद देश के महान नेताओं ने आजाद को श्रद्धांजलि देते हुये कहा थाः ––

  • पं. मदनमोहन मालवीय – “पंड़ित जी की मृत्यु मेरी निजी क्षति है। मैं इससे कभी उबर नहीं सकता।”

  • मोहम्मद अली जिन्ना – “देश ने एक सच्चा सिपाही खोया है।”

  • महात्मा गाँधी – “चन्द्रशेखर की मृत्यु से मैं आहत हूँ। ऐसे व्यक्ति युग में एक ही बार जन्म लेते हैं। फिर भी हमें अहिंसक रुप से ही विरोध करना चाहिये।”

  • पं. जवाहरलाल नेहरु – “चन्द्रशेखर की शहादत से पूरे देश में आजादी के आंदोलन का नये रुप में शेखनाद होगा। आजाद की शहादत को हिन्दुस्तान हमेशा याद रखेगा।”


चन्द्रशेखर आजाद के विचार: –
★“दुश्मनों की गोलियों का सामना हम करेंगें, आजाद है, आजाद ही रहेंगें।”
★“एक प्लेन (वायुयान) जमीन पर सदैव सुरक्षित रहता है, किन्तु उसका निर्माण इसलिये नहीं हुआ बल्कि इसलिये हुआ है कि वह कुछ उद्देश्यपूर्ण खतरों को उठाकर जीवन की ऊँचाईयों को छूऐ।”
★“जब संसार तुम्हें घुटनों पर ले आये तो याद रखो कि तुम प्रार्थना करने की सबसे अच्छी स्थिति में हो”
★“जीवन के तीन साधारण नियम हैः- यदि जो आप चाहते हो उसका पीछा नहीं करोगे तो उसे कभी पा नहीं सकते; यदि कभी पूछोगें नहीं तो उत्तर सदैव ना रहेगा; यदि आप आगे के लिये कदम नहीं उठाओगे, तो आप सदैव उसी स्थान पर रहोगे। इसलिये उसे पाने के लिये आगे बढ़ो”
★“जब गाँव के सभी लोग बारिश के लिये प्रार्थना करने का निश्चय करते है, उस प्रार्थना वाले दिन केवल एक व्यक्ति छाते के साथ आता है – यही विश्वास है”
★“हर रात जब हम सोने के लिये बिस्तर पर जाते है, हम नहीं जानते कि हम कल सुबह उठेगें भी या नही फिर भी हम आने वाले कल की तैयारी करते है – इसे ही आशा कहते है”।
★“जब आप बच्चे को हवा में उछालते हो तो वह बच्चा हँसता है क्योंकि वह जानता है कि आप उसे पकड़ लोगे – यही भरोसा है”
★“यह मत देखों कि दूसरे तुम से बेहतर कर रहे है, प्रतिदिन अपने ही रिकार्ड को तोड़ो क्योंकि सफलता सिर्फ तुम और तुम्हारे बीच का संघर्ष है।”
★“यदि आप अभी और कभी नाकाम नहीं हुये हो तो यह इस बात का संकेत है कि आप कुछ बहुत नया नहीं कर रहे हो।”

विशेष:-
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जिस पार्क में उनका निधन हुआ था उसका नाम परिवर्तित कर चंद्रशेखर आजाद पार्क और मध्य प्रदेश के जिस गांव में वह रहे थे उसका धिमारपुरा नाम बदलकर आजादपुरा रखा गया।

Leave a Reply