Samanya Gyan Logo
Background

Master महाराणा प्रताप की जीवनी | PART 02 | हिन्दुआ सूरज

Join thousands of students accessing our vast collection of expertly curated tests, daily quizzes, and topic-wise practice materials for comprehensive exam preparation.

आपके ज्ञानवर्धन और प्रतियोगी परीक्षाओं को ध्यान में रखते हुए  से वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारियों के लिए हमने पिछले भाग 1 में संक्षिप्त जीवन परिचय, जन्म और बाल्यकाल, अकबर का चितौड़ पर आक्रमण, महाराणा प्रताप को झुकाने के लिए अकबर के असफल प्रयास, महाराणा प्राप्त और मानसिंह की भेंट, हल्दीघाटी के महासंग्राम का वर्णन किया था जिसे पढ़ने के लिए आप नीचे दिए भाग 1 पर क्लिक करके पढ़ सकते है अब आगे - वीर योद्धा महाराणा प्रताप | PART 01 | मेवाड़ केसरी

शक्तिसिंह का हृदय परिवर्तन

शक्ति सिंह ने महाराणा प्रताप के घायल और लहुलुहान शरीर और घायल चेतक को युद्ध भूमि से निकलते हुए देख लिया था। उसने यह भी देखा कि झाला नरेश में किस तरह अपनी जान देकर महाराणा प्रताप को बचाया। प्रताप के लिए हजारों राजपूतों ने हंसते-हंसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।

यदि उसने हल्दी घाटी में घुसने और महाराणा प्रताप की कमजोरियों को मुगलों के सामने ना बताया होता तो आज के युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता।इतिहास महाराणा प्रताप के साथ-साथ शक्तिसिंह पर भी उतना ही गर्व करता है।शक्तिसिंह ने तुरंत ही अपने घोड़े की ऐड लगाई और उधर चल पड़ा जिस और चेतक गया था। सलीम ने घोषणा भी कर डाली कि-- " प्रताप युद्ध के मैदान में से जिंदा भाग गया है उसको जिंदा पकड़ कर लाने वाले को भारी इनाम दिया जाएगा।" यह घोषणा सुन दो मुगल सैनिक (जिसमें एक खुरासाण और दूसरा अफगान था।)  प्रताप के पीछे भाग खङे हुए।शक्ति सिंह ने यह भी नजारा देखा।

शक्तिसिंह समझ गए कि मुगल शहजादा के भारी इनाम के लालच में ये दुष्ट राणा प्रताप का पीछा कर रहे है ।उसने अपने घोड़े को पवन वेग से दौड़ाया।युद्ध के मैदान से निकलने के बाद चेतक की गति कुछ धीमी पड़ गई थी। चेतक के पैर से भी रक्त की धारा बही जा रही थी। महाराणा प्रताप भी लगभग अच्छी स्थिति में  आ गये थे। चेतक भी बहुत तेजी से भागा परंतु, दुर्भाग्यवश एक बड़ा सा नाला उसके बीच रास्ते में आ गया। यह नाला एक पहाङी को दूसरी पहाङी से अलग करता था। इन दोनों पहाङियों के बीच की लंबाई 27 फुट की बताई जाती है। चेतक वह घोड़ा था, जो अपने स्वामी के इशारे को अच्छी तरह से समझता था, वह अपने स्वामी के इशारे से वायु वेग में दौड़ता जानता था।

शक्ति सिंह यह सारा नजारा देख रहा था। उस समय उसके हृदय में अपने प्रति ग्लानी की भावना प्रकट होने लगी। वह अपने आप से पूछने लगा कि जब मेवाड़ के लिए एक पशु भी अपनी मातृभूमि और अपने स्वामी भक्ति में अपना प्राण न्योछावर कर सकता है।  मैं तो मनुष्य हूं, दो मुगल सैनिक  प्रताप की ओर बढ़ने लगे जैसे ही दोनों मुगल सैनिकों ने महाराणा प्रताप मर प्राणघातक वार करने का प्रयास किया, वैसे ही शक्ति सिंह ने वायु गति से झपटकर दोनों का सिर काट फेंका।

तब शक्ति सिंह ने प्रताप को आवाज लगायी- “ओ नीले घोङे रा असवार”

राजस्थानी भाषा के ये बोल सुन महाराणा ने पीछे मुङकर देखा तो पाया कि पीछे मुगल सैनिकों की लाशें पड़ी हुई है और भाई शक्ति दौङे आ रहे है। महाराणा रुके और  एक भावुकता भरी आवाज उनके मुख से निकली " इस समय में पूरी तरह से असहाय हूं मौत ने मुझे जीते जी मार डाला है, अब में तलवार नहीं उठाऊंगा, आप अपनी इच्छा पूरी कर सकते हो "शक्ति बोले- "नहीं भैया मैं आपकी आंखों से आंसू नहीं देख सकता, मुझे क्षमा कर दीजिए भैया क्षमा

राणा ने फिर से अपनी गर्दन घुमा ली और चेतक के शरीर से लिपट कर रोने लगे और बोले-  “तुम मेरे ही नहीं पूरे मेवाड़ के अपराधी हो शक्ती सिंह ! तुने अपनी मातृभूमि के साथ विश्वासघात किया है। अब मैं तुम्हारी आंखें में प्रायश्चित के आंसू देख रहा हूं। जी करता है कि अपने छोटे भाई को गले लगा लुँ परंतु, यह क्षत्रिय धर्म मुझे अपनी अनुमति नहीं देता है। मैं मेवाड़ी सिपाही हूं और तुम मेवाड़ द्रोही ।शक्तिसिंह तुम मेरी नजरों से दूर हो जाओ, मैं नहीं चाहता कि मेरे मन में कोई जिम्मेदारी उभरे। मैं अब जा रहा हूं भैया !”

शक्ति सिंह ने भावावेग में शीतल मन से  कहा - “बस मेरा एक निवेदन मान लो भैया! मेरा यह घोड़ा लो और तुरंत ही यहां से दूर चले जाओ, आपकी अभी तक मेवाड़ को जरूरत है। आप यह युद्ध हारे नहीं हो। केवल ऐसी परिस्थिति आ गई की युद्ध को रोकना पङ रहा है।मै आपके चरणो में सौगंध खाकर कहता हूँ कि, मेरी यह तलवार अब मेवाड़ के साथ होगी अपनी करनी से मेरे पर लगे कलंक को धो लूंगा और अगर जीवन बचा रहा, तो आपके गले लग लूंगा”

शक्ति सिंह की बातें सुन रहे , प्रताप की आंखों से बहते हुए आंसू उनके चेहरे पर लगे हुए खून को धो रहे थे। परंतु शक्तिसिंह अब यह नहीं समझ पाया था।, कि अब जो आंसू राणा की आंखों से बह रहे थे, वह अपने छोटे भाई के लिए थे राणा ने अपने आप को संभालना और चेतक की ओर देखा तो पाया की चेतक की इहलीला समाप्त हो चुकी हैं। इस पर अपने स्वामिभक्त घोङे को खो कर महाराणा पागलों की तरह जोर जोर से रोने लगे। शक्ति सिह ने राणा को सान्त्वना दी। और अपना घोड़ा राणा को देते हुए नजरें झुकाए खड़ा रहा।

“मैं तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलूंगा शक्तिसिंह ! तुमने मुझ असहाय की जान लेने वाले मुगल सैनिक को मार कर मेरी जान बचाई है। और अभी सुरक्षित स्थान पर पहुंचने के लिए अपना घोङा दे रहे हो। मेवाड़ याद रखेगा तुम्हारी यह भूमिका”

राणा तुरंत घोड़े पर सवार हुए उनके चरण छूने के लिए  शक्ति सिंह ने हाथ आगे बढ़ाया पर, तब तक राणा घोड़े की एड ले चुके थे। पवन वेग से घोड़ा दौड़ते हुए राणा कुछ ही समय में शक्ति सिंह की आंखों से ओझल हो गये ।

हल्दीघाटी युद्ध की समीक्षा

महाराणा जब शक्तिसिंह के घोड़े पर चढकर सकुशल युद्धभूमि से निकल गए तब मुगलों की सेना में हाहाकार मच गया था। सभी मुगल सैनिकों को पता चल गया था, कि राणा युद्धभूमि से बच निकले हैं, मानसिंह भी सहम गया था। और सलीम से कहने लगा कि इतनी विशाल मुगल सेना के तोपों के प्रहार के बीच से प्रताप कैसे बच निकला होगा? इतने में सूचना आई कि राणा का घोड़ा नाले के उस पार मरा पड़ा है। और दो मुगल सैनिकों के भी सिर कटे हुए हैं।

शक्तिसिंह भी उसी रास्ते से वापस युद्ध भूमि की और आ रहा है। यह बात सुनकर सलीम को पता चल गया था, कि शक्ति सिंह ने ही विश्वासघात किया है, नहीं तो महाराणा बच नहीं पाते । जब शक्तिसिंह से सलीम ने पूछा कि सच बताओ आपको किसी तरह का दण्ड नहीं दिया जाएगा। तो शक्ति सिंह ने कहा कि "एक राजपूत भाई अपने लहू लुहान और असहाय भाई को मरते हुए कैसे देख सकता है। एक जानवर(चेतक) ने भी स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए मरते दम तक प्रताप को सकुशल नाला पार करवाया, तो मैं तो एक इंसान हूं ! और मानवता के नाते अपने भाई को मेरा घोड़ा दिया और उस पर प्राणघातक हमला करने वाले मुगलों को काट फेंका।"

सलीम ने अपनी प्रतिज्ञा स्वरूप दंड तो नहीं दिया लेकिन, अपनी सेना से शक्ति सिंह को सदा के लिए निर्वाचित कर दिया और शक्ति सिंह वापस मेवाड़ की ओर चल पड़ा। उधर महाराणा का भील सैनिकों ने बड़ा ही स्वागत किया। जब महाराणा भील सैनिकों के साथ बातें करने लगे- " यह 3 दिनों का बड़ा विनाशकारी युद्ध था । इसमें हमारे महान वीर योद्धा मारे गए। जब उन्हें चेतक  स्मरण आया तो फूट-फूट कर रोने लगे और कहा कि अगर चेतक - सा स्वामी भक्त घोड़ा मेरे पास नहीं होता, तो प्रताप आज यहां नहीं होता।

मुगलों की सेना भी वापस दिल्ली चल पड़ी और अकबर के पास संदेश भिजवाया कि युद्ध को जीत लिया है ।लेकिन, महाराणा युद्ध भूमि से जीवित बच निकले हैं ।यह सुनकर अकबर बहुत ही क्रोधित हुआ, और जब उसने सैनिकों को देखा तो ऐसे नजर आ रहे थे। जैसे उन्हे बंदी गृह से पीट-पीटकर निकाला है। महाराणा की 20,000 सैनिकों की सेना ने मुगलों के एक लाख सैनिकों को इतना रौंद डाला था। कि वह चलने में भी असमर्थ दिखाई दे रहे थे।

इस युद्ध में  महाराणा  के भी 14  हजार सैनिक मारे गए थे| तथा महाराणा के निकटवर्ती 500 कुटुंबी ग्वालियर के भूतपूर्व राजा रामसा है तथा 330 तोमर वीरों के साथ रामसा का पुत्र खांडेराव भी मारा गया था|

निष्कर्ष तौर पर यह कहा जा सकता है कि इस युद्ध में जीत किसी की भी नहीं मानी जाती है| महाराणा प्रताप युद्ध भूमि से सकुशल बच निकले तथा शत्रु सेना के द्वारा तोपों के प्रयोग के कारण मेवाड़ सैनिकों की काफी जनहानि हुई थी | कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार यह युद्ध अनिर्णायक माना जा सकता है|

महाराणा प्रताप का संघर्षपूर्ण जीवन

अकबर धीरे-धीरे पुनः लगभग संपूर्ण मेवाड़ पर अपना आधिपत्य जमा चुका था। और राणा प्रताप के पास भी बहुत बड़ी चुनौती थी। धीरे-धीरे करके महाराणा अपनी मातृभूमि को मुगलों के चंगुल से स्वतंत्र कराते चले गए लेकिन, इस बात का जब अकबर को पता चला तो उसे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि, हल्दीघाटी जैसे विशाल युद्ध में भी महाराणा की छोटी सी सेना ने इतना शौर्य और पराक्रम दिखाया था, जिससे अकबर भी लोहा मान चुका था। लेकिन अब अकबर धीरे-धीरे महाराणा को पकड़ना चाहता था।

उसने मेवाड़ को अपने अधीन करने की लालसा तो छोड़ रखी थी। और वह किसी भी तरह महाराणा प्रताप को पकड़ना चाहता था। इसीलिए उन्होंने अपने गुप्तचरों को संपूर्ण मेवाड़ में फैला दिया। महाराणा के पास में भील सेना थी। जो सदा से ही बहादुरी के साथ में राणा की रक्षा और मेवाड़ को बचाने के लिए हमेशा अपनी जान को हथेलियों पर लिए तत्पर थी।

उन दिनों आगरा के किले में नौरोज का मेला लगा रहता था। इस मेले की यही एकमात्र विशेषता थी, कि इसमें केवल महिला ही भाग लेती थी। और पुरुष भाग नहीं ले सकते थे। तथा इसमें सामानों की खरीद बिक्री भी महिलाओं के द्वारा ही की जाती थी। लेकिन अकबर ही एकमात्र ऐसा पुरुष था। जो इस मेले में भाग लेता था।  उस समय लगभग संपूर्ण राजपूत अकबर के अधीन हो चुके थे ।और नौरोज में अकबर द्वारा घिनौनी हरकत से महिलाओं और कुंवारी लड़कियों की इज्जत के साथ में खिलवाड़ किया जाता था। इस बात को लेकर राजपूतो में भी चर्चा होने लगी लेकिन कोई इसका विरोध करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।

एक बार सम्राट अकबर ने अपने दरबारी कवि पृथ्वीराज की पत्नी जोशाबाई के साथ में अभद्र व्यवहार किया। वह एक पतिव्रता स्त्री थी, और उन्होंने यह सब सहन नहीं किया और अपने पति को यह सारी घटना सुना कर आत्महत्या कर डाली। 

जोधा बाई की आत्महत्या का समाचार राजपूतों में जंगल की आग की तरह फैल गया। संपूर्ण राजपूत जाति में अकबर के प्रति आक्रोश की ज्वाला भङक उठी अकबर भी जल्द ही चौकन्ना हो गया ।और उन्होंने  इस मेले को बंद करवा दिया। लेकिन राजपूतों का अकबर के प्रति जो आक्रोश था। वह अभी तक शांत नहीं हुआ। इनमें से वह राजपूत भी शामिल थे, जो हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के विरुद्ध लड़े थे।

जोधाबाई के हत्याकांड के मामले ने संपूर्ण राजपूतो के हृदय को झकझोर दिया। और वह महाराणा प्रताप के विरुद्ध में लड़े जाने वाले युद्ध से स्वयं को दोषी मानने लगे ।उधर  महाराणा प्रताप अकबर की नींद उड़ाते हुए जंगलों में भटक रहे थे। और उन्हें दुख तो तब होता था, जब उनकी जान बचाने के लिए कोई अन्य राजपूत अपनी जान दे देता था। अकबर भी इस बात से आशंकित था कि कहीं राजपूतों के दिलों में भी अकबर के प्रति प्यार और स्वाभिमा उत्पन्न न हो जाए।

हल्दी घाटी के युद्ध ने महाराणा प्रताप के शौर्य को सदा के लिए और ऊंचा कर दिया था। और हर तरफ महाराणा प्रताप और चेतक की वीरगाथा गूंज रही थी। कवि और लेखक भी महाराणा प्रताप के ऊपर अपनी रचनाएं रचने लगे। महिलाएं भी उनके गीत गाने लगी । चारों तरफ अजीब सा माहौल फैल गया था । और महाराणा प्रताप की जय जयकार होने लग गई थी।  असहाय और साधनहीन प्रताप भीलों की मेहरबानी पर दिन काट रहे थे । अकबर ने उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए जगह जगह अपने जासूस छोड़ रखे थे.

मुगलों की सेना महाराणा के नाम से ही थम जाती थी। लेकिन अकबर के आदेश के नीचे  विवश थी। महाराणा के लिए भील अपनी जान की बाजी लगाने में भी  परवाह नहीं कर रहे थे। कभी-कभी तो ऐसे मौके आते थे, जब महाराणा और उनके परिवार सहित भोजन करने लगते तो  अकबर की छोटी-छोटी सैनिक टुकड़ी उन पर हमला कर देती थी। तथा भोजन वही धरा रह जाता था । एक बार तो  महाराणा ने दिन में चार बार भोजन बनाया ,लेकिन चार बार ही मुगलों की सैनिक टोली के आक्रमण से भागना पङा

पृथ्वीराज राठौड़ द्वारा महाराणा को प्रोत्साहन

महाराणा प्रताप जंगलों में भटकते भटकते बहुत ही व्यथीत हो गए थे। और उन्हें चिंता तो इस बात की थी ,कि उनके छोटे-छोटे पुत्र और उनकी पत्नी भी इस भयंकर कष्ट की भागीदार बनी हुई है। एक रोज की घटना है जब महाराणा ने अपने चार दिनों से भूखे पुत्रों के लिए घास की रोटियां बनाई और आधी-आधी अपने पुत्रों  को दे दी; जब बालक अमर सिंह आधी रोटी को खाने ही वाले थे , कि अचानक एक जंगली बिलाव आया और रोटी को झपट कर ले भागा|

इस पर बालक अमर सिंह जोर-जोर से चीखने लगे जब महाराणा ने यह नजारा देखा तो उसे यह सब सहन नहीं हुआ। और कहा कि- 

लडयो घणो हूं सहयो घणो मेवाडी मान बचावण नै , हूं पाछ नही राखी रण में बैरया रो खून बहावण में ,
जद याद करू हळदी घाटी नैणा मे रगत उतर आवै , सुख दुख रो साथी चेतकडो सूती सी हूक जगा ज्यावै ,
पण आज बिलखतो देखूं हूंजद राज कंवर नै रोटी नै, तो क्षात्र - धरम नै भूलूं हूंभूलूं हिंदवाणी चोटी नै मेहलां में छप्पन भोग जका मनवार बिना करता कोनी, सोनै री थाळयां नीलम रै बाजोट बिना धरता कोनी,
हाय जका करता पगल्या फ़ूला री कंवरी सेजां पर , बै आज रूळे भूखा तिसिया हिंदवाणै सूरज रा टाबर ,
आ सोच हुई दो टूक तडक राणा री भीं बजर छाती , 

महाराणा अंदर से टूट चुके थे। उन्होंने कलम और पन्ना उठाकर अकबर को पत्र लिखने की सोच डाली। उन्होंने अपनी द्वंदात्मक स्थिति में अकबर से संधि पत्र लिखते हुए कहा ।

आंख्यां मे आंसू भर बोल्या मैं लिख स्यूं अकबर नै पाती , पण लिखूं किंयां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियोलियां ,
चितौड खडयो है मगरां मे विकराळ भूत सी लियांछियां , मै झुकूं कियां ? है आणा मनैकुळ रा केसरिया बानां री ,
मैं बुझूं किंयां ? हूं सेस लपट आजादी रै परवानां री , पण फ़ेर अमर री बुसक्यां राणा रो हिवडो भर आयो ,
मैं मानूं हूं दिल्लीस तनै समराट सनेसो कैवायो ।

जब अकबर ने यह पत्र देखा तो उसे अपने आंखों पर भरोसा नहीं हुआ कि--" वह महाराणा जो संधि तो क्या संधि करने वाले मानसिंह जैसे राजपूतों से इतनी नफरत करता था कि उसके साथ में भोजन करना भी अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझता था। वह भी कभी इस प्रकार का संधि पत्र कैसे लिख सकता है ।"   "राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो सपनूं सो सांचोपण नैण करयो बिसवास नहीं जद बांच बांच नै फ़िर बांच्यो ,

कै आज हिंमाळो पिघळ बह्योकै आज हुयो सूरज सीटळ , कै आज सेस रो सिर डोल्योआ सोच हुयो समराट विकळ"

उसने सोचा कि अगर यह सत्य है तो पृथ्वीराज के पास ही इसे क्यों नहीं पढ़ाया जाए जिससे उसका भी स्वाभिमान और प्रताप के प्रति अटूट आस्था चूर हो जाए।

"बस दूत इसारो पा भाज्या पीथळ नै तुरत बुलावणनै , किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावणनै" ,

पृथ्वीराज राठौड़ बीकानेर नरेश रायसिंह का छोटा भाई था।वह भी प्रताप की तरह अपने स्वाभिमान और हिंदू गौरव तथा संस्कृति को बचाने के जुर्म में अकबर के बंदी गृह में केद था।

बी वीर बाकुडै पीथळ नै रजपूती गौरव भारी हो , बो क्षात्र धरम रो नेमी हो राणा रो प्रेम पुजारी हो ,
बैरयां रै मन रो कांटो हो बीकाणूं पूत खरारोहो , राठौड रणां मे रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो घावां पर लूण लगावण नै ,पीथळ नै तुरत बुलायो हो,

पृथ्वीराज राठौड़ वाकपटु और एक अच्छे कवि भी थे । अकबर ने कहा कि आप जिस प्रताप की दुहाई देते नहीं थकते, उसने आज दिल्ली सम्राट के समक्ष अपने घुटने टेक दिए हैं। यदि यकीन नहीं आता तो इस पत्र को पढ़े जिसे स्वयं अकबर द्वारा  लिखा गया है।

पण टूट गयो बीं राणा रो तूं भाट बण्यो बिड्दावै हो, मैं आज तपस्या धरती रो मेवाडी पाग़ पग़ां मेहै ,
अब बात मनै किण रजवट रै रजपूती खून रगां मे है ?"

पृथ्वीराज को विश्वास नहीं हो रहा था, जब पत्र को देखा तो  कुछ समय तो मन मसोसकर रह गए। लेकिन फिर अकबर से कहा कि अकबर यह लेखनी प्रताप की नहीं है और आपके साथ में किसी ने छल किया है।" महाराणा प्रताप अपनी जान की बाजी लगा सकता है, लेकिन अकबर के सामने इस प्रकार के पत्र लिखने की हिम्मत नहीं कर सकता।" ?

जद पीथळ कागद ले देखी राणा री सागी सैनाणी , पगा स्यूं धरती खसक गईअंाख्यां मे आयो भर पाणी ,
पण फ़ेर कही ततकाल संभल आ बात सफ़ा ही झूठी है , राणा री पाग़ सदा ऊंची राणा री आण अटूटी है ।"

पृथ्वीराज बहुत चतुर थे उन्होंने अकबर से कहा कि अभी तक भी अगर आपको  यकीन नहीं हो रहा है, तो मुझे प्रत्युत्तर के रूप में पत्र लिखने का आदेश दीजिए! तब अकबर ने कहा आप निसंकोच पत्र भिजवा दीजिए।

ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं राणा ने कागद खातर , लै पूछ भलांई पीथळ तूंआ बात सही बोल्यो अकबर"
अब पृथ्वीराज को मौका मिल गया और उन्होंने कुछ इस प्रकार से पत्र लिखा?
म्हे आज सुणी है नाहरियो स्याळां रे सागे सोवैलो , म्हे आज सुणी है सूरजडो बादळ री ओटां खोवैलो ,
म्हे आज सुणी है चातकडो धरती रो पाणी पीवैलो , म्हे आज सुणी है हाथीडो कूकर री जूणां जीवैलो ,
म्हे आज सुणी है थकां खसमअब रांड हुवेली रजपूती , म्हे आज सुणी है म्यानां मेंतलवार रवैली अब सूती,
तो म्हारो हिवडो कांपै है मूंछयां री मोड मरोड गई, पीथळ नै राणा लिख भेजो आ बाट कठै तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़तां हीराणा री अंाख्यां लाल हुई , धिक्कार मनै हूं कायर हूं नाहर री एक दकाल हुई ,
हूं भूख मरुं हूं प्यास मरुं मेवाड धरा आजाद रवै हूं, घोर उजाडा मे भटकूंपण मन में मां री याद रवै ,
हूं रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला, ओ सीस पडै पण पाघ़ नही दिल्ली रो मान झुकाऊंला ।
पीथळ के खिमता बादळ रीजो रोकै सूड़ ऊगाळी नै, सिंघा री हाथळ सह लेवैबा कूख मिली कद स्याळी नै ?
धरती रो पाणी पिवै इसी चातग री चूंच बणी कोनी , कूकर री जूणां जिवै इसीहाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां मे तलवार थकांकुण रांड कवै है रजपूती ? म्यानां रैै बदळै बैरयां रीछात्यां मे रेवै ली सूती ,
मेवाड धधकतो अंगारो आंध्यां मे चमचम चमकैलो, कडखै री उठती तानां पर पग पग खांडो खडकैलो ,
राखो थे मंूछयां एठयोडी लोही री नदी बहा दंयूला , हूं अथक लडूंला अकबर स्यूंउजड्यो मेवाड बसा दयूंला ,
जद राणा रो संदेशो गयो पीथळ री छाती दूणी ही, हिंदवाणो सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही"

भामाशाह की दानशीलता

राणा प्रताप ने पृथ्वीराज का पत्र पढ़कर स्वाभिमान की रक्षा करने का निर्णय लिया, परंतु मौजूदा परिस्थितियों में पर्वतीय स्थानों में रहते हुए मुगलों का प्रतिरोध करना संभव नहीं था| अतः उन्होंने रक्तरंजित चित्तौड़ और मेवाड़ को छोड़कर दूरवर्ती स्थान पर जाने का विचार किया| सभी सरदार भी प्रताप के साथ चलने को तैयार हो उठे चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके हृदय से जाती रही थी |

अतः प्रताप ने सिंध नदी के किनारे पर स्थित सोजती राज्य की तरफ बढ़ने की योजना बनाई ताकि बीच का मरुस्थल शत्रु को उन से दूर रखें अरावली  को पार कर जब राणा मरुस्थल के किनारे पहुंचे ही थे कि एक आश्चर्यचकित घटना ने उन्हें पुनः वापस लौटने के लिए विवश कर दिया, मेवाड़ के वृद्ध मंत्री भामाशाह ने अपने जीवन में काफी संपत्ति अर्जित कर रखी थी वह अपनी संपूर्ण संपत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उसने राणा से मेवाड़ के उद्धार की याचना की

यह संपत्ति इतनी अधिक थी कि उससे 10 वर्षों तक 25000 सेनिको का खर्चा पूरा किया जा सकता था भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धार कर्ता के रुप में आज भी बड़े गौरव के साथ में लिया जाता है भामाशाह  ने इस अपूर्व त्याग से प्रताप की सोई हुई शक्ति  फिर से जागृत हो उठी

महाराणा प्रताप का विजय अभियान

दिवेर का युद्ध 1582 

यह युद्ध राणा प्रताप और और अकबर के चाचा सेरमा सुल्तान खान के मध्य लड़ा गया था| इसमें राणा प्रताप की सेना ने मुगलों को कड़ी शिकस्त दी| मुगलों ने भी जमकर सामना किया था ,बहुत से मुगल मारे गए  बाकी बचे मुगल सैनिक पास की छावनी की ओर भाग गए | राजपूतों ने आमर तक उनका पीछा किया और उस मुग़ल छावनी में अधिकांश सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया | इसी समय कमलमीर पर आक्रमण किया वहां का सेनानायक अब्दुल्ला मारा गया और  दुर्ग पर प्रताप का अधिकार हो गया| थोड़े ही दिनों में एक के बाद एक करके प्रताप ने 32 दुर्गों पर अधिकार कर लिया और दुर्गा में नियुक्त मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार कर मेवाड़ राजपूतों को नियुक्त कर दिया|

1585 में राणा प्रताप ने अपनी राजधानी चित्तौड़ से चावंड में स्थापित कर ली थी. क्योंकि ,चित्तौड़ में नागिन कुए में देवराज नामक राजपूत ने छल कपट से जल मे जहर मिला कर  विषाक्त बना दिया था. जो पीने योग्य नहीं रह गया , इसीलिए प्रताप ने अपनी राजधानी को चावंड नामक स्थान पर स्थापित कर दी थी. जो सन 1615 तक मेवाड़ की राजधानी रही और वहां पर अनेक महलों का निर्माण भी करवाया| तथा चामुंडा माता का पवित्र मंदिर भी बनवाया| 

1586 तक चित्तौड़, अजमेर, मांडलगढ़ को छोड़कर संपूर्ण मेवाड़ पर प्रताप का अधिकार कर लिया था; तथा अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर ली, राजा मानसिंह को उसके देशद्रोह का बदला देने के लिए महाराणा ने आमेर राज्य के समृद्ध नगर मालपुरा को लूटकर नष्ट कर दिया| उसके बाद उदयपुर की ओर बढे मुगल सेना बिना युद्ध के ही वहां से भाग गई, और उदयपुर पर महाराणा का अधिकार हो गया| अकबर ने थोड़े समय के लिए युद्ध बंद कर दिया|

संपूर्ण जीवन युद्ध करते और भयानक कठिनाइयों का सामना करके राणा ने जिस तरह से जीवन व्यतीत किया था, उसकी वीरता इस संसार मैं सदा अमर रहेगी ! उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अंत तक निभाया; तथा राजमहलों को छोड़कर राणा ने पिछोला झील के निकट अपनी कुछ झोपड़ियां बनवाई ताकि  वर्षा में  आश्रय लिया जा सके| झोपड़ियों में प्रताप ने अपना जीवन बिताया | अब जीवन का अंतिम समय निकट आ गया था| प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी; परंतु उस प्रतिज्ञा को पूर्णत  पूरी तो नहीं कर सके; लेकिन उन्होंने अपनी थोड़ी सी सेना के बल पर मुगलों को धूल चटा दी अंततः अकबर को भी मुंह की खानी पड़ी और युद्ध बंद करना पड़ा|

महाराणा प्रताप का निधन

राणा प्रताप जब अपने विश्वसनीय सरदारों के साथ में बैठे थे| तो उन्होंने सरदारों से कहा  कि:--" एकदिन इस कुटिया में प्रवेश करते समय अमर सिंह अपने सर की पगड़ी उतारना भूल गए परिणामस्वरुप द्वार के एक बांस से टकराकर पगड़ी नीचे गिर पड़ी। दूसरे दिन उसने मुझसे कहा कि पिताजी यहां बड़े महल क्यों नहीं बनवा देते?

कुछ क्षण चुप रहा और कहा कि इस झोपड़ी के स्थान पर आलीशान महल बनेंगे। मेवाड़ की दुरावस्था भूलकर अमर सिंह यहां पर अनेक प्रकार के भोग विलास करेगा। अमर के विलासी होने पर मातृभूमि की वह स्वाधीनता जाती रहेगी, जिसके लिए मैंने लगातार 25 वर्षों तक कष्ट उठाए हैं ।  हर तरह के सुख भोग छोड़कर वह इस गोरववंशी मेवाड़ की रक्षा नहीं कर सकेगा; और आप लोग उसके अनर्थकारी उदाहरण का अनुसरण करके मेवाड़ के पवित्र यश को कलंक लगा दोगे|"

प्रताप का यह वाक्य पूरा होते ही समस्त सरदारों ने कहा:-"महाराज !

हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ लेते हैं ,कि जब तक हम में से एक भी जीवित रहेगा उस दिन तक कोई भी तुर्क मेवाड़ की तरफ आंख उठाकर देखने का साहस नहीं कर सकेगा। जब तक मेवाड़ पूर्णतः मुगलों से स्वतंत्र नहीं होता, तब तक हम इसी प्रकार की कुटिया में ही निवास करेंगे"

इस संतोषजनक वाणी को सुनते ही मेवाङ के स्वाभिमान का दीप सदा के लिए बुझ गया।  29 जनवरी 1597 का दिन था। इस प्रकार एक ऐसे राजपूत के जीवन का अवसान हो गया; जिसकी स्मृति आज भी प्रत्येक भारतवंशी को प्रेरित कर रही है। इस संसार में जितने दिनों तक वीरता का सम्मान रहेगा उतने ही दिनों तक प्रताप की वीरता, महात्मय और गौरव जग के नेत्रों के सामने अचल भाव से विराजमान रहेंगे ।और उतने ही दिनों तक हल्दीघाटी" मेवाड़ की थर्मोपल्ली" और दिवेर "मेवाड़ का मैराथन "के नाम से पुकारा जाएगा।

Leave a Reply