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Master वीर योद्धा महाराणा प्रताप | PART 01 | मेवाड़ केसरी

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जन्म - 9 मई 1540  कुम्भलगढ दुर्गवीर योद्धा महाराणा  प्रताप Biography
पिता- महाराणा उदयसिंह
माता - महारानी जयवन्ता कुँवर
उपनाम - कीका एवं पातल

पत्नी - छीरबाई (जैसलमेर)
राज्यभिषेक-  1572 फरवरी 28  गोगुन्दा
निधन- 29 जनवरी 1597
8 खम्भों की छतरी- बाडोली, उदयपुर

संक्षिप्त परिचय
 

हिन्दुस्तान वीर योद्धा और रण बांकुरो की मातृभूमि रही हैं, यहां के वीर सपूतों ने समय समय पर अपनी वीरता का परिचय देते हुए विदेशी आक्रांताओं से लोहा लिया है। और हिन्दुस्तान के गौरव को सदा ऊँचा उठाया है। इनमें मेवाड़ के महाराणा  प्रताप सिंह का नाम भी हिन्दुस्तान के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है , जिनकी वीरता, साहस , और रण क्षेत्र में बेहतरीन प्रदर्शन का राजस्थान का कण कण साक्षी है । महाराणा प्रताप के नाम से सम्पूर्ण हिन्दुस्तान गुंजायमान है जिन्होंने जलालुद्दीन अकबर जैसे सम्राट को छटी का दूध याद दिला दिया था। 

महाराणा एक कुशल राजनीतिज्ञ, आदर्श शासक और सच्चे प्रजा पालक वीर योद्धा थे। यह वह समय था जब आमेर नरेश भगवानदास और मानसिँह जैसे सत्ता लोलुप शासको ने अपनी मान मर्यादा और मातृभूमि को बेचकर  विदेशी तुर्कों के तलवे चाटने शुरू कर दिये थे, और मुगलों से अपनी बहन -बेटियों के वैवाहिक संबंध जोङने में भी जरा सी भी हिचकिचाहट नहीं की , दूसरी ओर मेवाड़ के "हिन्दुआ सूरज" ने  अपने अदम्य पौरुष के बल पर अपनी मातृभूमि और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए अपना सम्पूर्ण राजशी सुख-भोग त्यागकर सदैव मुगलों से डटे रहे।

अपनी मातृभूमि और प्रजा के संरक्षण के लिए इस तरह का प्रण लेने वाले शासक हिन्दुस्तान के इतिहास में बिरले ही मिलते हैं। अकबर ने राणा को झुकाने हेतु अपना सम्पूर्ण बुद्धि-बल , बाहुबल और धनबल लगा दिया था लेकिन इस सच्चे राजपूत योद्धा को झुकाना लोहे के चने चबाने से क्या कम था? प्रताप का प्रण था कि - "बप्पा रावल के वंशज मात-पिता , गुरु और मातृभूमि के अलावा किसी के समक्ष नतमस्तक नहीं होंगे।" 

महाराणा ने अकबर को कभी बादशाह के रुप में सम्बोधित नहीं किया उनका मानना था कि "अकबर एक विदेशी तुर्क है और सदा तुर्क ही रहेगा।" हमें यह मानकर चलना चाहिए कि प्रताप का विचार कभी भी  साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं रहा है उनका विरोध सिर्फ विदेशी आक्रांताओं से रहा था और इसके लिए वे सदैव संघर्षरत रहते हुए अपने अदम्य इच्छा शक्ति और रण-कौशल  से अंततः मेवाड़ को मुगलों से स्वाधीन कराने में सफल सिद्ध हुए।

महाराणा प्रताप का जन्म और बाल्यकाल

भारत के महान वीर योद्धा महाराणा प्रताप का जन्म  9 मई 1540 को कुंभलगढ़ दुर्ग में पिता उदयसिंह के घर में माता जयवंता कुंवर की कोख से ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को हुआ था। आज भी प्रत्येक भारतीय माता की यही अभिलाषा  रहती है कि वह प्रताप जैसे वीर सपूत को जन्म देकर अपनी कोख को धन्य बनावें

"माई एड़ा पूत जण जेहड़ा राणा प्रताप।
सुतो उजके निंद मे जाण सिराणे सांप।।"

महाराणा उदयसिंह की कहानी पन्ना धाय से जुड़ी है जिसने स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए अपने पुत्र का बलिदान करके  सत्तालोलुप दासीपुत्र बनवीर से उदय सिंह की जान बचाई थी। महाराणा प्रताप का जन्म ही युद्धों में ही हुआ था, एक तरफ उदय सिंह अपनी मातृभूमि को पाने के लिए जोधपुर नरेश के साथ बनवीर से युद्ध कर रहे थे, इसी युद्ध के क्षणों में भगवान एकलिंग जी के अवतार के रूप में प्रताप इस धराधाम पर पधारे।

उनके जन्मोत्सव में चार चांद तब लगे जब उदय सिंह बनवीर को परास्त कर चित्तौड़ किला अपने अधीन कर आए थे और चित्तौड़गढ़ पर धूमधाम से कुँवर की जयंती मनाई थी। यह राजनीतिक उथल-पुथल का समय था प्रताप के जन्म के 300 वर्ष पहले ही विदेशी मुसलमानों ने भारत पर आधिपत्य जमा रखा था प्रताप के जन्म से पूर्व भारत में हुमायूं का शासन था और उस समय अफगान शासक फरीद (शेर शाह सूरी) उनको चुनौती दे रहा था| शेरशाह सूरी और हुमायूं के मध्य 25 जून 1539 को चौसा का युद्ध हुआ इसमें से शेरशाह विजयी हुआ था।

15 मई 1540 के बिलग्राम या कन्नौज के युद्ध में भी हुमायूं पूरी तरह परास्त हुआ इसके पश्चात शेरशाह सूरी ने  बड़ी सेना के साथ राजपूताने पर आक्रमण किया उनकी सेना ने बहुत से इलाके को जीत लिया, अनेक गांवों को तहस-नहस कर दिया तत्पश्चात चित्तौड़ पर आक्रमण किया महाराणा उदय सिंह के पास उसकी विशाल सेना का जवाब नहीं था उन्होंने कूटनीति का सहारा लेते हुए शेरशाह सूरी से संधि कर डाली और इसके बदले उन को आधा मेवाड़ शेरशाह के हवाले करना पड़ा

22 मई 1545 को शेरशाह सूरी मर गया और उदय  सिंह ने धीरे-धीरे सम्पूर्ण मेवाङ पर पुनः आधिपत्य जमा लिया
प्रताप बचपन से ही बहादुर और अपनी वीरता दिखा कर लोगों को अचंभित कर देते थे वे जितनेट वीर थे उतने ही स्वभाव से सरल और सहज भी तथा बहुत साहसी और निडर थे।

बच्चों के साथ ढाल और तलवार से खेल खेलते और युद्धाभ्यास करते थे अपने नेतृत्व के गुण इसी अवस्था में जागृत होने लगे थे, उन्हे अपने गुरु राघवेंद्र का भरपूर सहयोग मिला और उन्होंने ही आपको सही दिशा प्रदान की । गुरु जी ने शक्ति सिंह, सागर और जगमाल को भी शिक्षा दी थी। उदय सिंह जब भी प्रताप को देखते तो अपना हृदय उल्लास से भर जाता था उन्हें विश्वास था कि मेवाड़ का भविष्य प्रताप के हाथों में ही सुरक्षित रह सकता है।

लगभग 10 वर्षों के लंबे समय के बाद उदय सिंह ने अफगानों से आक्रमण करने का निर्णय लिया वे अपने सभी राजकुमारों को सुरक्षित स्थान में पहुंचाना चाहते थे, लेकिन प्रताप  केवल 13 वर्ष के थे। उन्होने किसी से युद्ध की खबर सुनी वह इस युद्ध में भाग लिए बगैर कैसे रह सकते थे पिता की आज्ञा के बिना ही वह युद्ध में कूद पड़े और राजपूत योद्धाओं ने भी उनका भरपूर सहयोग किया महाराणा उदय सिंह ने इस  युद्ध में बड़ी मशक्कत से जीत हासिल की थी जब इस बात का पता महाराणा उदय सिंह को लगा कि प्रताप ने भी इस युद्ध में  भाग लिया था, तो उन्होंने कुॅवर को अपने गले लगाया और खुशी के मारे फूट-फूट कर रोने लगे ।

जब भी प्रेम मेवाड़ की जनता प्रताप को देखती थी तो उनका हृदय हर्ष और उल्लास से भर उठता था प्रताप कभी-कभी तो जन सेवा में इतने मग्न हो जाते थे कि स्वयं राजकुमार होना भूल जाते थे। इस प्रकार प्रताप अपने वीर गाथा को बिखेरते हुए धीरे-धीरे बड़े होने लगे

अकबर का चित्तौड़ पर आक्रमण

जब प्रताप 14 वर्ष के थे तो अकबर 13 वर्ष की आयु में ही दिल्ली के सम्राट बन बैठे थे। अकबर नाबालिग होने के कारण बैरम खां के संरक्षण में दिल्ली की राजगद्दी पर बैठे थे। राजपूताना को जीतना अकबर की सदा से ही ख्वाहिश रही थी जब अकबर ने महाराणा उदय सिंह को पत्र भिजवाया तो महाराणा ने कड़े शब्दों से प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि--  "सिसोदिया वंश कभी भी किसी विदेशी ताकतों के आगे नहीं झुका है और ना ही तुर्कों के समक्ष झुकेगा" इससे अकबर अत्यंत क्रोधित हुआ और 20 अक्टूबर 1567 को बैरम खान के नेतृत्व में विशाल सेना को भेजा और 6 माह तक चित्तौड़ पर डेरा डाले रखा 

इस भंयकर संग्राम में अकबर ने 30,000 नागरिकों का निर्मम नरसंहार कराया तथा राजपूत पत्नियों ने भी अपने सतित्व की रक्षा के लिए जोहर में कूद पड़ी। अपने सरदारों की विनम्र अपील के कारण उदय सिंह उदयपुर में लौट आया।यह नरसंहार प्रताप ने खुद अपनी आंखों से देखा था जिससे उनके दिल में तुर्कों के खिलाफ क्रांति की ज्वाला भड़क उठी और मुगलों से लोहा लेने की अटल प्रतिज्ञा कर डाली थी

महाराणा प्रताप का राज्यभिषेक

महाराणा उदय सिंह के पुत्रों में महाराणा प्रताप सबसे बङे थे। उदय सिंह भी प्रताप को ही मेवाड़ के शासक के रूप में देखना चाहते थे। लेकिन उन्हें अपनी छोटी रानी धीर बाई से अत्यंत लगाव था, और उनसे सदा आशंकित भी रहता था ,कि कहीं छोटी रानी अपने पुत्र जगमाल को राजगद्दी सौंपने का दबाव न डाल दे। संयोगवश यही हुआ एक बार रानी धीर बाई रुष्ट हो गई और महाराणा को अपने कक्ष में आने का आदेश दे डाला और उत्तराधिकारी का दायित्व जगमाल को सौपने की इच्छा व्यक्त की, 

अब महाराणा पत्नी के मोह में फंस गये तथा बहुत बैचेन हो उठे ,अन्ततः दबाव में आकर आंतरिक तौर पर जगमाल को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। यह अविवेकपूर्ण कदम उठाने के बाद उदय सिंह कुछ समय बाद ही स्वर्ग सिधार गये। प्रताप मेवाङ की जनता में बहुत लोकप्रिय हो चुके थे और मेवाड़ की जनता भी प्रताप को ही उत्तराधिकारी घोषित करना चाहती थी। महाराणा के इस निर्णय से मेवाड़ की जनता अब तक अनभिज्ञ थी। 

उदय सिंह के दाहसंस्कार का समय आया तो प्रताप सहित सभी पुत्र अंतिम संस्कार में चिता को अग्नि देने में शामिल हो गए थे। लेकिन जगमाल नजर नहीं आ रहा था । (राजपूत जाति में यह परम्परा है कि जब पुराने शासक की मृत्यु हो जाती है तब उत्तराधिकारी अंतिम संस्कार में शामिल न होकर उसके स्थान पर राजगद्दी को संभालता है क्योंकि राजगद्दी कभी खाली नहीं रहती) मेवाड़ की जनता ने यह सब भांप लिया और कानाफूसी शुरू हो गई तथा ग्वालियर के महाराजा ने सागर से जगमाल के बारे में पूछा तो सागर ने बताया कि "जगमाल राज्य  के उत्तराधिकारी है और वह मेवाड़ की गद्दी संभाल रहे हैं" 

यह बात संपूर्ण मेवाड़ की जनता को पता चली तो संपूर्ण मेवाड़ की जनता में ज्वाला भड़क उठी, क्योकि जगमाल अयोग्य और भोग विलासी प्रवृत्ति का शासक था। इसी समय पाली के आखैराज चौहान, ग्वालियर के सामंत और कृष्ण चुंडावत ने मिलकर जगमाल को सिंहासन से हटाकर प्रताप को राजगद्दी सौपी|

प्रताप यह नहीं चाहते थे कि भाई भाई से लड़ाई करके राज्य का उत्तराधिकार छिना जाए जगमाल के प्रति प्रताप का अटुट विश्वास और स्नेह का भाव था। लेकिन मेवाड़ की जनता को यह सब बर्दाश्त नहीं था कि जगमाल जैसा अयोग्य शासक मेवाङ की गद्दी सम्भाले, वह मेवाड़ के लिए एक योग्य और प्रताप जैसा कुशल शासक  चाहते थे| 

29 फरवरी 1573 को अखेराज सोनगरा, कृष्णदास ,और ग्वालियर के शासकों ने मिलकर प्रताप को गोगुंदा में राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया लेकिन  1 मार्च 1573 को राज्याभिषेक का जश्न कुंभलगढ़ दुर्ग में मनाया, महाराणा के लिए यह राजसिंहासन कांटों के ताज से कम नहीं था, क्योंकि मेवाड़ मुगलों और अफगानों के निरंतर आक्रमणों से जर्जर हो चुका था। प्रताप के भाइयों ने भी प्रताप के समक्ष विद्रोह कर दिया, और शत्रु अकबर से जा मिले थे।

जगमाल परिवार सहित जहाजपुर तहसील जो अजमेर  रियासत में स्थित है वहां चला गया जहां से अकबर का आश्रय मिल गया और अकबर ने उनका स्वागत किया और सिरोही रियासत सौंप दी। जगमाल सन् 1583 में देवङा सुरताण के हाथों दांताणी के युद्ध मे मारा गया,  इस युद्ध मे जगमाल के साथ मुगल सेना भी थी, लेकिन राजस्थान के इतिहास मे सबसे कम चर्चित रहने वाले इस युद्ध मे देवङा चौहानो ने मुगलो के छक्के छुङा दिये थे और जगमाल को अपनी जान गँवानी पङी।

शक्ति सिंह, सागर सिंह आदि भाई भी प्रताप के धुर विरोधी बन बैठे थे । मेवाड़ के सैनिक भी 1567 के आक्रमण से मारे गए थे, अब कुछ बचे कुचे सैनिक और सामंतो के साथ नगर को बसाना और अकबर जैसे धुर विरोधी शत्रु से लोहा लेना लोहे के चने चबाने से कम नहीं था। लेकिन महाराणा विपरीत परिस्थितियों में भी मुगलों से कभी भी नहीं झुके और अपना हौसला  सदा बुलंद रखा है।

विपरीत परिस्थितियों को देखते हुए महाराणा प्रताप ने मेवाङ की जनता के समक्ष संकल्प लिया कि "- मां भवानी और भगवान एकलिंग जी की सौगंध खाकर कहता हूं कि जब तक मेवाड़ का चप्पा-चप्पा इन विदेशियों से स्वतंत्र नहीं करा लूंगा चैन से नहीं बैठूंगा जब तक मेवाड़ की पुण्य भूमि पर एक भी मातृभूमि का शत्रु रहेगा तब तक खुले अंबर में रहूंगा, अवनि पर सोऊंगा, पत्थरों में खाना खाऊंगा और सर्वस्व राजशी सुख -भोग को त्याग  दूंगा, सोने चांदी के बर्तन और आरामदायक सेज की तरफ आंख उठाकर भी कभी नहीं देखूंगा और सदा संघर्ष के जीवन में अग्रसर रहूंगा

उसी क्षण चारों तरफ से आवाज आयी कि "हम सब अपने महाराणा के एक इशारे पर अपना तन मन सब कुछ न्योछावर कर देंगे" प्रताप ने पुनः विश्वास दिलाते हुए कहा कि “आप लोगों ने मुझे जो विश्वास प्रदान किया है प्रताप दम रहते उस पर रत्ती भर भी आंच नहीं आने देगा”

"जय स्वदेश" "जय मातृभूमि" “जय मेवाड़”

तत्पश्चात सभी सामन्तों और राजपूतों ने मातृभूमि की रक्षार्थ निष्ठावान रहने की शपथ ग्रहण करते हुए समारोह का समापन किया।

प्रताप को झुकाने हेतु अकबर का असफल प्रयास

जलालुद्दीन अकबर राजनैतिक कूटनीति में सिद्धहस्त था उस पर संपूर्ण हिंदुस्तान को अपने अधीन करने का भूत सवार था। इसके लिए उन्होंने दो तरह की नीति अपना रखी थी। सुलह कुल की नीति और साम्राज्यवाद की नीति

सुलह कुल की नीति के तहत अकबर की यही मंशा रही थी कि जहां तक संभव हो शत्रु को आपसी समझौते और लालच से अधीन करें ,और यदि वह इसमें असफल रहता तो साम्राज्यवाद नीति के तहत युद्ध और मार-काट से भयभित्त करके शत्रु को अधीन कर लेता और यही नीति उन्होंने महाराणा प्रताप के समक्ष उपयोग में लाई, 

सुलह कुल की नीति के तहत प्रताप को अपने अधीन झुकाने के लिए सर्वप्रथम उसने अपने चतुर चालाक और वाकपटु  विश्वसनीय सामंत जलाल खान को नवंबर 1572 को महाराणा प्रताप के पास भेजा महाराणा ने जलाल खान का आदर-सत्कार और अभिवादन किया जलाल खां ने बड़ी चतुराई से प्रताप को समझाने की कोशिश की लेकिन महाराणा ने बड़े ही चातुर्यपूर्ण तरीके से जवाब दिया कि "प्रताप बप्पा रावल का वंशज है और बप्पा रावल के वंशज अपने माता पिता गुरु और मातृभूमि के अलावा किसी के आगे नतमस्तक नहीं होंगे, आप जाकर अकबर से कह देना कि प्रताप अकबर से युद्ध करने को तैयार है लेकिन अपनी मातृभूमि से कभी भी समझौता करने वाला नहीं है" इसी प्रकार जलाल खाली हाथ वापस लौटकर आया ।

इसके 4 महीने बाद अकबर ने अपने नवरत्नों में से एक फर्जंद राजा मानसिंह को 1573 में प्रताप को समझाने हेतु चित्तौड़ भेजा और कहा कि एक राजपूत ही राजपूत शासक को मना सकता है। मान सिंह भी मत में चूर पगड़ी पहन के घोड़े पर चढ़ा और मेवाड़ की ओर निकल पङा और प्रताप के सामने वही घिसी पिटी बात को दोहराने लगा ।

महाराणा ने मान सिंह को कड़े शब्दों में प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह बप्पा रावल का वंशज है ना कि.... जिन्होंने अपनी बहन बेटियों को मुगलों के हवाले करने में लज्जा नहीं रखी लेकिन यह प्रताप सच्चा राजपूत है जो विदेशी मुगलों से लड़ने की हिम्मत रखता है और अपनी मान मर्यादा और मातृभूमि के लिए मर मिटने को तैयार है। यह सब सुनकर मानसिंह आग बबूला हो गया और वहां से आमेर की ओर निकल पड़ा।

दोनों के असफल प्रयासों से अकबर भी आगबबूला हो उठा और उसने मान सिंह के पिता भगवान दास को सितंबर 1573 को प्रताप को राजी करने के लिए मेवाड़ भेजा। भगवानदास भी अपनी खिचड़ी नहीं पका सका।

25 दिसंबर 1576 को अपने वित्त मंत्री टोडरमल को भेजा परंतु प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की अब अकबर भी बेचैनी महसूस करने लगा और सोचा कि अब तो प्रताप के अहंकार को चूर करने का एकमात्र ही जरिया है, और वह साम्राज्यवादी नीति इस नीति के तहत  शहजादा सलीम और मानसिंह को आदेश दे डाला की युद्ध की तैयारी की जाए, और महाराणा प्रताप के गर्व को मिट्टी मे  मिला दाया जाए। 

राणा प्रताप सिंह जी भी अकबर की नीति को भाँप  चुके थे और बार बार अकबर द्वारा भेजे गए दूत और प्रताप द्वारा मना करने का परिणाम युद्ध ही था। प्रताप ने भी अपनी सैन्य तैयारियां शुरू कर दी थी और युद्ध के लिए सदैव तत्पर रहने लगे।

महाराणा प्रताप और मानसिंह की भेंट

आमेर नरेश मानसिंह शोलापुर विद्रोह को दबाने के बाद दिल्ली की ओर लौट रहे थे, तब उन्हे उनके दिल में एक अरमान उठा और अपने साथियो से कहा कि चलो मेवाङ महाराणा प्रताप सिंह से मिलेंगे और मेवाड़ को दिल्ली सल्तनत के अधीन करने में सफल सिद्ध होंगे। इसी बहाने उन्होंने महाराणा प्रताप के पास अपना दूत भेजा दूत ने महाराणा को आमेर नरेश का संदेश दे दिया। (अबुल फजल ने राणा प्रताप और मानसिंह की भेंट स्थान गोगुन्दा बताया है। लेकिन रत्नाकर के अमर महाकाव्य के अनुसार राणा ने मानसिंह के आतिथ्य में उदयसागर झील के किनारे भोज का आयोजन किया और वही उनकी मुलाकात हुई थी। और यही प्रमाणित मानी जाती हैं।) राणा ने मानसिह का अभिवादन किया और भोजन की व्यवस्था करवायी।

उन दिनों राणा प्रताप अपनी प्रतीज्ञानुसार पत्तों की पत्तल्लो पर भोजन कर रहे थे और उनकी प्रेरणा से राजपूत योद्धा भी पत्तों की पत्तल्लो पर भोजन ग्रहण कर रहे थे। अपने राज्य को मुगलों के अधीन से स्वाधीन करने के लिए वह तपस्वी की तरह जीवन यापन कर रहे थे। इसके बावजूद भी उन्होंने मानसिंह के लिए सोने के बर्तनों की व्यवस्था की और उन में तरह-तरह के व्यंजनों के साथ मानसिंह को भोजन परोसा गया। राणाप्रताप की बड़े बेटे अमर सिंह ने भोजन की व्यवस्था की और भोजन तैयार होने पर मानसिंह से भोजन प्रारंभ करने को कहा

मानसिंह ने द्वार की ओर देखा और बोले कि आपके पिता श्री नहीं आ रहे हैं क्या वे हमारे साथ में भोजन नहीं करेंगे ? अमर सिंह अपनी नजरें जमीन पर गङाते हुए बोले कि "पिताश्री के सर में दर्द है और वह जल्दी ही आ रहे हैं आप भोजन प्रारंभ कीजिए" मानसिंह ने अमर सिंह की बात को भांप लिया और जल्द ही कङे स्वरों में बोले कि "मैं जान चुका हूं यह सर दर्द क्यों हो रहा है।" मैं सर दर्द का भी समुचित उपचार जानता हूं ,और अगर महाराणा ने इसी वक़्त मेरे साथ में भोजन  ग्रहण नहीं किया तो मैं भी यहां भोजन करना श्रेयस्कर नहीं समझूंगा। 

अमरसिंह ने फिर से विनती की आप भोजन कीजिए । महाराणा जल्द ही आने वाले हैं इससे क्रोधित होकर मानसिंह बोले कि आज महाराणा ने मेरे साथ में जैसा व्यवहार किया है क्या यह व्यवहार राजपूत को शोभा देता है ? इसी वक्त महाराणा भी सामने आ गये और बोले "राजपूतों को क्या शोभा देता है और क्या नहीं इसका फैसला कब से करने लगे राजा मानसिंह"

मानसिंह ने कहा कि "महाराणा आप ने मेरा अपमान किया है" प्रत्युत्तर में प्रताप ने कहा "कि मैं किसी का अपमान नहीं कर सकता आप जैसे राजपूतों के साथ मैं भोजन करना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझता हूं" मानसिंह उच्च स्वर में बोले "महाराणा ! आप जानते हो किसके साथ में बात कर रहे हो"

महाराणा ने कङे शब्दो मे कहा कि "मैं तो उन्हीं के साथ में बात कर रहा हूं जिनके पिता ने अपनी बहन को मुगल अकबर के साथ ब्याही ताकि मुगलों के साथ में अपने वैवाहिक संबंध बनाकर युद्ध से मुक्त हो सके। मै यह भी जानता हूँ मान सिंह ! कि आप अकबर के सबसे विश्वसनीय सेनापति है और आपको सबसे अधिक 7000 तक का मनसबदार प्राप्त है" | इस पर मानसिंह ने कहा कि यह सब कुछ जानते हुए भी आपने मेरा अपमान करने की हिम्मत कैसे दिखाई ।

"अपमान नहीं किया है मानसिंह मैंने तो सिर्फ बस आपको विश्वास दिलवाया है कि आपने किस प्रकार से अपनी गर्दन बचाने के लिए अपनी मां को मुगलों के समक्ष बंधक बना रखा है इसके बावजूद यदि आप तलवार उठा कर मुगलों से लड़ाई लड़ते और उसमें अगर आप मां के लिए कुर्बान भी हो जाते तो आने वाली पीढ़ियां आप पर गौरव महसूस करती और यदि आप जीवित बच जाते तो आज मैं भी आपके साथ में भोजन करता और इस आपके लिए गौरव महसूस करता" 

इस पर मानसिंह बोला कि महाराणा आप के मुख से जातीय स्वाभिमान और राष्ट्र भक्ति की बू आ रही है । अब वह समय चला गया और हाथ मलते रहने से कुछ नहीं होगा प्रताप अभी भी समय है और आप जल्द ही दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार कर लीजिए और मेवाड़ में होने वाले इस भयंकर नरसंहार से राजपूत वंश को बचाने की कृपा करें नहीं तो राजपूत कौम का एक भी बीज नहीं रहेगा और संपूर्ण राजपूत जाति का अंत हो जाएगा, और आने वाली पीढ़ियां भी इतिहास में पढेगी कि राजपूत भी एक कौम होती थी। हमारा नामो निशान मिट जाएगा प्रताप सिंह!

प्रताप सिंह ने आवाज में चीखते हुए कहा मान सिंह आपकी और हमारी सोच में यही तो अंतर है जो जाति अपनी कौम को बचाने के प्रयास में रहती है उसका सदा ही विनाश हो जाता है और उसका नामो निशान मिट जाता है लेकिन वह जाती जो अपनी मां मातृभूमि और संस्कृति को बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगाकर कुर्बानी दे देती है वह सदा के लिए अमर हो जाती है! आप जैसे कायरों का नाम इतिहास में काले अक्षरों से उत्तीर्ण होगा मानसिंह।

मान सिंह आग बबूला हो उठा और बोला कि आप का जवाब अब युद्ध भूमि में ही दिया जाएगा, इसके लिए तैयार हो जाइए तब महाराणा ने कहा कि जल्दी आइए हमारी तलवारे रणभूमि में आपका स्वागत करेंगी। पास मे खङे अमर सिंह ने कह दिया कि मानसिंह आते वक्त अपने फूफा जी (अकबर) को भी साथ में लाना मत भूलना।

इस पर मानसिह अत्यंत क्रोधित हो उठा और दिल्ली की ओर चल पड़ा उधर प्रताप ने सरदारों की ओर हुए मुस्कुराते हुए कहा कि "चलो अब इतिहास में तो हम पर युद्ध छेड़ने का इल्जाम नहीं लगेगा शत्रु स्वयं ही इसकी शुरुआत करेगा।"  राणा ने सरदारो से कहा कि “युद्ध लड़ने से हमारा तात्पर्य केवल खुद की प्रतिरक्षा नहीं बल्कि राजपूताना के गौरव का इस प्रकार से इतिहास रचना है कि आने वाली पीढ़ियां युगों युगों तक इस राजपूती शौर्य को याद रखें”

मानसिंह का दिल्ली आगमन और युद्ध की तैयारी

मानसिंह मेवाड़ से अपमानित होकर जब अकबर के समक्ष उपस्थित हुआ और अकबर को यही हाल बताया तो अकबर भी आग बबूला हो उठा और बोला कि अब राजपूत का बदला एक राजपूत ही लेगा और कहा कि "मानसिंह अब वह समय आ गया है ,और हमारे धैर्य का बांध भी टूटने लग गया है जाओ और युद्ध की तैयारी करो और शहजादा सलीम को भी आदेश दे दो कि जल्द से जल्द युद्ध की तैयारी करें, और सेना लेकर मेवाड़ पर आक्रमण करें, प्रताप को जिंदा या मुर्दा मेरे समक्ष पेश किया जाए" अकबर को प्रणाम कर मानसिंह वहां से चला गया अकबर मन ही मन सोचने लगा कि राजपूत भी कैसी जाति है कुछ समय पहले, जो मानसिंह राणा प्रताप की प्रशंसा करते नहीं थकता था ,और आज वह राणा के विनाश का सबब बन रहा है ,राणा प्रताप को धूल में मिलाने का सही समय आ गया है।

मानसिंह और शक्ति सिंह के सामूहिक प्रयासों से संपूर्ण मेवाड़ पर अधिकार किया जाएगा अकबर ने शक्ति सिंह को बुलाया और कहा कि शक्तिसिंह अब आपके प्रतिशोध का समय आ गया है ,और आपके भाई ने स्वयं ही अपनी विनाश लीला का फरमान जारी कर दिया है।  जल्द ही युद्ध के लिए तैयारी करनी शुरु कर दो, तब शक्ति सिंह ने कहा जहांपनाह हम तो कभी के तैयार है, और जल्द से जल्द हमें आज्ञा देने की कृपा करें! इस पर अकबर ने घर के भेदी शक्ति सिंह से मेवाड़ के संपूर्ण रहस्य को जाना, और प्रताप के युद्ध कौशल और राजनैतिक कूटनीति को भी भली प्रकार से समझा।

शक्ति सिंह ने कहा कि प्रताप के पास में 20,000 हजार सैनिक है और काफी भील जाति भी है, यह एक ऐसी जंगली जाति जो छुपकर वार करने मे माहिर है और अपने धनुष बाणों से शत्रु को भेद डालती है। इससे सावधान होना पहली प्राथमिकता होगी ।

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राणा प्रताप को अपनी शक्ति और राजपूताना के स्वाभिमान पर अटूट विश्वास था वे जानते थे कि अकबर से युद्ध करना सर्वनाश को आमंत्रण देना है। लेकिन वह अकबर के सामने झुकना भी अपने स्वाभिमान के खिलाफ समझते थे। उनका मानना था कि यदि अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तो आने वाली पीढ़ियों के लिए यह घातक सिद्ध होगा आने वाली पीढियाँ हमारे ऊपर थूका करेगी। 

इसी तरह संपूर्ण राजपूत जाति बिना किसी प्रतिशोध से मुगलों के सामने झुकती गई तो राजपूत ही नहीं संपूर्ण हिंदू संस्कृति का ही एक दिन सर्वनाश हो जाएगा तथा अन्याय और अत्याचार का विरोध ही एकमात्र मानव धर्म है। गुलामी के सौ वर्षों से भी ज्यादा प्रताप को आजादी का एक पल भी प्रिय था। उन्हे गुलामी की चुपड़ी रोटी की बजाए  स्वाधीनता के रूप में घास की रोटी भी अत्यंत मीठी लगती थी। यही कारण था कि प्रताप अपने चारो ओर दबाव के बावजूद भी युद्ध मे कूद पङे।

हल्दीघाटी का महासंग्राम

अकबर अपनी सुलह कुल की नीति के सारे प्रयासों से असफल रहा। तत्पश्चात युद्ध की ठानी और 3 अप्रैल 1576 को मानसिंह, अरशद खा और सलीम को मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजा। यह युद्ध महाराणा प्रताप और अकबर के प्रधान सेनापति मानसिंह के मध्य  21 जून 1576 को लड़ा गया। (ए एल श्रीवास्तव ने इसकी तारीख 18 जून भी बताई है।इसे हल्दीघाटी का युद्ध, खमनोर का युद्ध या गोगुंदा का युद्ध भी कहा जाता है। यह है युद्ध राजसमंद से 21 किलोमीटर आगे खमनौर और भागलपुर नामक गांव के मध्य तथा बनास नदी के तट पर रक्त तलाई नामक स्थान पर लड़ा गया था।

राजस्थान इतिहास के पितामह कर्नल जेम्स टॉड ने इसे मेवाड़ की थर्मोपोली कहा है। इस युद्ध में पहले मुगल सेना हार रही थी, लेकिन मुगलों की ओर से मिहत्तर खाँ ने अकबर के आने की अफवाह फैला दी जिससे मुगल सैनिकों में जोश आ गया था। इस युद्ध में विख्यात मुगल लेखक बदायूनी भी उपस्थित तथा उसने अपनी पुस्तक "मुंतखब-उल -तवारीख" में युद्ध का वर्णन किया।

इस युद्ध में मुगलों का सेनापति मानसिंह था। महाराणा प्रताप का एकमात्र मुस्लिम सेनापति हकीम खां सूरी था।अबुल फजल ने हल्दीघाटी के युद्ध को खमनौर का युद्ध तथा अल बदायूनी ने गोगुंदा का युद्ध कहा है। आसफ खाँ ने हल्दीघाटी के युद्ध को जेहाद (धर्म युद्ध) घोषित किया ।

हल्दी घाटी युद्ध का वर्णन

इस युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से लगभग 20,000 सैनिकों ने भाग लिया था। महाराणा प्रताप के हाथी रामप्रसाद ने अकबर के हाथी हवाई ने और मानसिंह के हाथी मर्दाना ने भी भाग लिया था। युद्ध में चेतक की बहुत ही महत्ति भूमिका रही थी। यह महाराणा का बहुत ही प्रिय घोड़ा था। महाराणा और मुगल सैनिको के बीच घमासान युद्ध शुरू हो गया था

महाराणा प्रताप ने जब देखा कि मुगल सेना हल्दीघाटी के पीछे वाले रास्ते से आगे बढ़ रही है, तो उन्हे समझते देर ना लगी कि, किसने उन्हें यह रास्ता सुझाया होगा। अब राणा प्रताप ने आगे बढ़कर हल्दीघाटी में ही मुगल सेना को दबोचने की रणनीति बनाई राणा का आदेश पाते ही राजपूत नंगी तलवार लिए मुगल सेना पर टूट पड़े। पहले ही हमले में राणा प्रताप ने मुगल सेना के छक्के छुड़ा दिए। देखते-ही-देखते मुगल सेना की लाशें बिछने लगी।

मुगल सेना मे मान सिंह सेना के बीचो-बीच था। जगन्नाथ कच्छवाह, गयासुद्दीन असद हरावल में थे। राणा प्रताप की सेना के बीच में स्वयं राणा प्रताप और दाहिनी ओर रामशाह तोमर तथा बाँई ओर रामदास राठौर थे। राणाप्रताप ने मुगल सेना पर अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी। अतिरिक्त सेना के रूप में केवल पूंजा भील था। शहजादा सलीम अपने हाथी पर सवार था। उसने देखा कि महाराणा प्रताप अपनी तलवार से मुगल सैनिकों को गाजर मूली की तरह काटे जा रहा है ,और मुगल सैनिक के पैरों उखड़ने लग गये। इस स्थति में सलीम ने तोपें चलाने का आदेश दे डाला। तोपों के गोले जब निकलने लगे तो राणा की सेना के पास मुगल सेना की तोपों का कोई जवाब नहीं था। उन की ढाल, तलवार, बरसे और बाणें उनकी तोपों के आगे बोने पड़ने लग गये थे।

अचानक से लड़ाई का रुख बदल गया। राजपूतों की लाशें बिछने लगी। राजपूत सैनिकों की एक कड़ी को तोपें बंद करने हेतु आगे बढ़ाया गया। सैकड़ों सैनिक अपनी जान हथेली में रखकर उन तोपों को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ गई, परंतु इसके विपरीत तोप के गोले उनके शरीर की धज्जियां उड़ाने लगे। यह देखकर महाराणा को बहुत दुख हुआ परंतु, यह कड़वी सच्चाई थी कि, तोपों की मार को परवाह किए बगैर राणा प्रताप की सेना दुगुनी उत्साह के साथ मुगल सेना पर टूट पड़ी ओर मुगल सैनिकों की लाछै बीछ गई थी।

पूरा युद्ध क्षेत्र  लहुलुहान हो गया था। मुगल सेना के तोपों से निकले गोलों से राजपूत सेना में कहर ढा गया था। संख्या में 4 गुनी होते हुए भी मुगल सेना राजपूत सेना के सामने टिक नहीं पा रही थी। युद्ध के दौरान कई ऐसे मौके आए जब मुगल सेनिक भाग खड़े हुए। परंतु मिहित्तर खाँ ने अकबर के आने की झुठी अफवाह फैलाकर मुगल सेना मे पुनः उत्साह भर दिया था।

हल्दीघाटी के युद्ध में तीसरा दिन निर्णायक रहा आज के युद्ध में महाराणा प्रताप ने फैसला कर लिया था। कि वह मानसिंह को अवश्य ढूंढ निकालेंगे वह बहुत ही खूबसूरत सफेद घोड़े चेतक पे बैठे शत्रुओं का संहार करते हुए मानसिंह से दूर चले गए सैनिकों का सिर काटते हुए वह मुगल सेना के बीचो-बीच जा पहुंचे।

उन पर रणचंडी सवार थी देखते ही देखते उन्होंने सैकड़ों मुगलों की लाशें बिछा दी। अब वह मुगल सेना के बीचो बीच लगभग अकेले थे ।तभी उनकी नजर सहजादे सलीम पर पड़ गई सलीम बड़े हाथी पे सवार होकर लोहे की मजबूत सलाखों से बने पिंजरे में सुरक्षित बेठा युद्ध का संचालन कर रहा था।

महाराणा ने सलीम को देखा और चेतक को उसकी ओर मोड लिया। सलीम ने जैसे ही देखा कि महाराणा उसकी ओर आ रहा है, उसने अपने महावत को आदेश दिया कि हाथी को दूसरी दिशा में मोड़कर दूर ले जाया जाए, जब तक उनके पास पहुंचते कुशल मुगल सेना की टुकड़ी ने उन पर जानलेवा हमला कर दिया।

अचानक से महाराणा की नजर मानसिंह पर पड़ी और महाराणा का खून खोलने लगा। मानसिंह हाथी पर सवार था, उसके पास अंग रक्षकों का एक बड़ा जमावड़ा था। मानसिंह के सुरक्षा आयुध को तीर की तरह चीरते हुए महाराणा का चेतक हाथी के बिल्कुल ही नजदीक पहुंच गया ।मानसिंह को खत्म करने के लिए महाराणा प्रताप ने दाहिने हाथ में भाला संभाला और चेतक को इशारा किया कि, हाथी के सामने से उछल कर गुजरे *चेतक ने महाराणा का इशारा समझ कर ठीक वैसा ही किया परंतु चेतक  के पैर पर हाथी के सूंड से लटके तलवार का बङा घाव लग गया। 

चेतक का पैर घायल हो गया परंतु, महाराणा उसे देख ना पाए घायल होने के क्रम में ही महाराणा ने पूरी एकाग्रता से भाले को मानसिंह के मस्तक की ओर फेंका परंतु चेतक के घायल होने के कारण उनका निशाना चूक गया और भाला हाथी में बैठे महावत को छुता हुआ लोहे की चादर में जा अटका तब तक महाराणा की ओर सैनिक दौड़ पड़े और मानसिंह महाराणा के डर से कांपता हुआ हाथी के हावड़ा में जा छिपा । अब मानसिह हावड़ा से टकराकर गिर गया मान सिंह को खतरे में देख माधव सिंह कछुआ महाराणा पर अपने सैनिकों के साथ टूट पड़े उसने महाराणा पर प्राणघातक हमला किया

अपने प्राणों की परवाह किए बगैर महाराणा लगातार शत्रुओं से लोहा लेते रहे स्वामी भक्ति दिखा रहा चेतक भी हर संभव मदद किए जा रहा था। चेतक का पिछला पैर बुरी तरह से घायल हो चुका था। लेकिन यह दूसरे घोङो की तरह घायल हो जाने पर युद्ध भूमि में थक कर बैठ जाने वालों में से नहीं था। झालावाड के झाला मन्नाजी (महाराणा प्रताप के मामा) ने जब यह देखा कि महाराणा प्रताप बुरी तरह से घायल हो गए और लगातार शत्रु से लड़े जा रहे हैं तब वो अपना घोड़ा दौड़ते हुए 

महाराणा के निकट जा पहुंचे उन्होंने जल्दी से महाराणा का मुकट निकाला और कहा मातृभूमि की सौगंध तुम यहां से दूर चले जाओ महाराणा! तुम्हारा जीवित रहना हम सबके लिए बहुत जरूरी है। महाराणा ने उनका विरोध किया परंतु कहीं और सैनिकों ने उन पर दबाव डाला कि आप चले जाइए । अगर आप जीवित रहेंगे तब फिर से मेवाड़ को स्वतंत्र करा सकते हैं । महाराणा का घोड़ा चेतक अत्यंत संवेदनशील था ,अपने स्वामी को संकट में देख तुरंत ही उसने महाराणा को युद्ध क्षेत्र से दूर ले गया । मन्ना जी अकेले ही मुगल सेना के बीच घिर चुके थे। मुग़ल सेना उन्हे महाराणा समझ कर बुरी तरह से टूट पड़ी उन्होंने बहुत देर तक अपने शत्रुओं का सामना किया परंतु अंत में वीरगति को प्राप्त हुए। 

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