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Comprehensive study materials and practice resources for मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति
मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति भारतीय अर्थव्यवस्था के दो महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, जो देश के आर्थिक संतुलन और विकास को दिशा प्रदान करते हैं। मौद्रिक नीति (Monetary Policy) का उद्देश्य मुद्रा आपूर्ति और ब्याज दरों को नियंत्रित करना है, जबकि राजकोषीय नीति (Fiscal Policy) सरकार के राजस्व और व्यय के प्रबंधन से संबंधित होती है। यदि आप UPSC, RAS, SSC, MPPSC, UPPSSC, School Teacher, Lecturer, REET, UGC NET जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, तो यह विषय आपके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यहाँ प्रस्तुत Notes आपकी तैयारी को और मजबूत करेगा तथा Concepts को Clear करने में मदद करेगा। तो तैयार हो जाइए अपने Economy GK को “Boost Up” करने और सफलता की ओर एक कदम आगे बढ़ाने के लिए!

मौद्रिक नीति सरकार तथा देश के केंद्रीय बैंक की उस नियंत्रण नीति को कहा जाता है, जिसके अंतर्गत मुद्रा के मूल्य में स्थायित्व लाने एवं अन्य कुछ निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मुद्रा एवं साख की मात्रा, उसकी लागत (अथार्त ब्याज दर) तथा उसके उपयोग को नियंत्रित करने के उपाय किए जाते हैं देश का केंद्रीय बैंक ( भारत में RBI ) मुद्रा बाजार में संतुलन स्थापित करने हेतु प्राय मुद्रा आपूर्ति को एक उपकरण के रूप में प्रयुक्त करता है अथवा बाजार ब्याज दर को प्रभावित करने के लिए अपनाता है केंद्रीय बैंक की इसी नीति को जिसे वह देश की मुद्रा बाजार में संतुलन स्थापित करने अथवा बाजार ब्याज दर को प्रभावित करने ( अर्थव्यवस्था में वृद्धि तथा स्थिरता लाने हेतु) हेतु अपनाता है, "मौद्रिक नीति" कहते हैं संक्षिप्त शब्दों में कहें तो मौद्रिक नीति से अभिप्राय केंद्रीय बैंक की साख नियंत्रण नीति से है
मौद्रिक नीति के उद्देश्य- मौद्रिक नीति एक महत्वपूर्ण साधन है जिसकी सहायता से समष्टिपुरक आर्थिक नीति के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है | यह उल्लेखनीय है कि किसी देश में मौद्रिक नीति का निर्माण तथा कार्यान्वयन देश का केंद्रीय बैंक करता है| भारत जैसे कुछ देशों में केंद्रीय बैंक ( भारत का केंद्रीय बैंक रिजर्व बैंक है ) सरकार की ओर से कार्य करता है तथा उसके आदेशों तथा व्रहत दिशा निर्देशों के अनुसार कार्य करता है| राजकोषीय नीति के समान ही मौद्रिक नीति का भी व्रहत उद्देश्य उत्पादन के पूर्ण रोजगार स्तर पर साम्य की स्थापना करना तथा अर्थव्यवस्था में कीमत स्थिरता को सुनिश्चित करना है| मौद्रिक नीति समग्र मांग के स्तर को प्रभावित कर के पूर्ण रोजगार अथवा संभावी उत्पादन स्तर पर अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाने के उद्देश्य से मुद्रा की पूर्ति तथा ब्याज दर में परिवर्तन करने से संबंधित होती हैं|
अधिक स्पष्ट रूप से, मंदी के समय मौद्रिक नीति के अंतर्गत कुछ ऐसे मौद्रिक उपायों को अपनाया जाता है जो मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि दर में कमी करते हैं ताकि अर्थव्यवस्था में समग्र मांग प्रोत्साहित हो एवं मंदी की स्थिति से उबरा जा सके| इसके विपरीत मुद्रास्फीति के समय मौद्रिक नीति मुद्रा की पूर्ति को कठोरता से नियंत्रित करके तथा ब्याज दरों में वृद्धि करके सामग्र व्यय को कम करने का प्रयास करती है ताकि मुद्रास्फीति को नियंत्रित किया जा सके तथापि यह उल्लेखनीय है कि भारत जैसे विकासशील देश में पूर्ण रोजगार अथवा संभावी उत्पादन स्तर पर संतुलन प्राप्त करने के अतिरिक्त मौद्रिक नीति की अर्थव्यवस्था के उद्योग तथा कृषि दोनों क्षेत्र में आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना भी होता है| इस प्रकार विकासशील देशों के लिए मौद्रिक नीति के निम्नलिखित तीन महत्वपूर्ण उद्देश्य होते हैं-
1 पूर्ण रोजगार या उत्पादन के संभावी स्तर पर आर्थिक स्थिरता को सुनिश्चित करना|
2 मुद्रास्फीति तथा मुद्रा अपस्फीति को नियंत्रित करके कीमत स्थिरता प्राप्त करना|
3 अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना|
भारत में मौद्रिक नीति का प्रमुख लक्ष्य दो उद्देश्य को प्राप्त करना माना गया है प्रथम मूल्य स्थिरता को बढ़ावा देना और दूसरा अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्र के लिए पर्याप्त मात्रा में बैंक कर्ज की उपलब्धि को सुनिश्चित करना ताकि वृद्धि दर को ऊंचा किया जा सके मौद्रिक नीति के उद्देश्य बहुत कुछ आर्थिक नीति के उद्देश्य से ही प्रभावित होते हैं भारत जैसे विकासशील देश के लिए मौद्रिक नीति के उद्देश्य माने जा सकते हैं
1 उत्पादन की अधिकतम संभाव्य स्थिति को प्राप्त करना
2 विकास की दर को ऊंचा करना
3 मूल्य स्थिरता की स्थिति प्राप्त करना अथवा मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करना
4 रोजगार के अवसर बढ़ाना
5 आयुर्वेद के वितरण की अस्मिता कम करने में मदद देना
6 भुगतान संतुलन को कम करना मौद्रिक नीति के उपरोक्त लक्ष्यों का समर्थन करते हुए भारतीय रिजर्व बैंक की "मौद्रिक नीति का लक्ष्य कीमत स्थिरता के साथ विकास होता है"
रेपो दर ( Repo Rate ) :- वह ब्याज दर जिस पर रिज़र्व बैंक एक दिन-एक रात की तात्कालिक आवश्यकता के लिये बैंकों को नकदी उपलब्ध कराता है| कई बार अपने रोज़मर्रा के कामकाज के लिये बैंकों को भी बड़ी-बड़ी रकमों की ज़रूरत पड़ जाती है और ऐसी स्थिति में वह देश के केंद्रीय बैंक से ऋण लेते हैं| इस तरह के ओवरनाइट ऋण पर रिज़र्व बैंक जिस दर से उनसे ब्याज वसूल करता है, उसे रेपो रेट कहते हैं।|
रिवर्स रेपो दर ( Reverse Repo Rate ):- यह रेपो रेट से उलट होता है अर्थात् जब कभी बैंकों के पास दिन-भर के कामकाज के बाद बड़ी धनराशि बची रह जाती है, तो वे उसे रिज़र्व बैंक में जमा कर देते हैं, जिस पर उन्हें ब्याज दिया जाता है। रिज़र्व बैंक इस ओवरनाइट रकम पर जिस दर से ब्याज अदा करता है, उसे रिवर्स रेपो रेट कहते हैं।
नकद आरक्षित अनुपात ( Cash Reserve Ratio - CRR ) :- प्रत्येक बैंक को अपने कुल कैश रिज़र्व का एक निश्चित हिस्सा रिज़र्व बैंक के पास रखना ही होता है, जिसे नकद आरक्षित अनुपात कहा जाता है। ऐसा इसलिये किया जाता है, ताकि किसी भी समय किसी भी बैंक में बहुत बड़ी तादाद में जमाकर्त्ताओं को रकम निकालने की ज़रूरत महसूस हो, तो बैंक को पैसा चुकाने में दिक्कत न हो। यह ऐसा साधन है, जिसकी सहायता से रिज़र्व बैंक बिना रिवर्स रेपो रेट में बदलाव किये बाज़ार से नकदी की तरलता को कम कर सकता है, क्योंकि CRR बढ़ाए जाने की स्थिति में बैंकों को अपनी नकदी का ज़्यादा बड़ा हिस्सा रिज़र्व बैंक के पास रखना होगा और उनके पास ऋण के रूप में देने के लिये कम रकम रह जाएगी।
सांविधिक चलनिधि अनुपात (Statutory Liquidity Ratio - SLR):- वाणिज्यिक बैंकों के लिये अपने प्रतिदिन के कारोबार के बाद नकद, सोना और सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश के रूप में एक निश्चित धनराशि रिज़र्व बैंक के पास रखना ज़रूरी होता है। वह रेट जिस पर बैंक यह पैसा सरकार के पास रखते हैं, उसे SLR कहते हैं| इसके तहत अपनी कुल देनदारी के अनुपात में सोना सरकारी अनुमोदित बांड्स के रूप में रिज़र्व बैंक के पास रखना होता है।
सीमांत स्थायी सुविधा (Marginal Standing Facility - MSF):- यह वह दर है जिससे रिज़र्व बैंक से एक रात के लिये कर्ज़ लिया जा सकता है। यह 2011-2012 में आरबीआई की मौद्रिक नीति के बाद अस्तित्व में आया।
बैंक दर (Bank Rate):- जिस सामान्य ब्याज दर पर रिज़र्व बैंक द्वारा अन्य बैंकों को पैसा उधार दिया जाता है उसे बैंक दर कहते हैं। इसके द्वारा रिज़र्व बैंक साख नियंत्रण (Credit Control) करने का काम करता है।
सामान्य बोलचाल की भाषा में किसी वित्तीय वर्ष में कुल सरकारी आय और कुल सरकारी व्यय का अंतर राजस्व घाटा कहलाता है, जबकि किसी वित्तीय वर्ष के राजस्व घाटे और सरकार द्वारा लिये गए ऋण पर ब्याज तथा अन्य देयताओं के भुगतान का योग राजकोषीय घाटा कहलाता है। सरल शब्दों में कहें तो सरकार की कुल आय और व्यय में अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है| इससे पता चलता है कि सरकार को कामकाज चलाने के लिये कितनी उधारी की ज़रूरत होगी| कुल राजस्व का हिसाब-किताब लगाने में उधारी को शामिल नहीं किया जाता। राजकोषीय घाटा आमतौर पर राजस्व में कमी या पूंजीगत व्यय में अत्यधिक वृद्धि के कारण होता है।
सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (सीएसओ) पर भारतीय अर्थव्यवस्था के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं के बारे में सर्वेक्षण करने की ज़िम्मेदारी है इसके लिये सीएसओ गाँवों और शहरों में घरों और उद्यमों से जानकारियाँ प्राप्त करता है, ताकि विकास और प्रशासनिक फैसलों के लिये ठोस योजना तैयार करने के लिये आँकड़ों के डेटाबेस को अद्यतन बनाया जा सके।
सूरज गुप्ता ने मौद्रिक नीति के 4 संकेतक बताए हैं जो कि इस प्रकार है
1 उच्च शक्ति प्राप्त मुद्रा
2 मुद्रा की पूर्ति
3 बैंक साख एवं
4 ब्याज की दरें
इन संकेतों के आधार पर ही हम मुद्रा नीति के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं उपयुक्त संकेत को भी से ब्याज की दर सबसे कमजोर संकेतक उसके बाद उत्तमता की दृष्टि से स्थान आता है बैंक साख का , मुद्रा की पूर्ति उससे बेहतर और उच्च शक्ति प्राप्त मुद्रा को सबसे सर्वश्रेष्ठ माना जा सकता है ब्याज की दर को सबसे कमजोर संकेतक इसलिए माना गया है कि इस पर गैर नीति तत्वों का ज्यादा असर पड़ता है और मुद्रा की पूर्ति में परिवर्तनों का प्रभाव ब्याज की दरों पर कई बार भी लंबे अंतराल के बाद पड़ता है इसलिए मौद्रिक नीति के संकेत को भी उच्च शक्ति प्राप्त मुद्रा को बेहतर बौद्धिक संकेतक माना जा सकता है यह मुद्रा गुणक से मिलकर मुद्रा की पूर्ति पर सक्रिय प्रभाव डालता है
Specially thanks to Post Authors - कुम्भा राम लीलावत, राजपाल हनुमानगढ़