मूंगे की चट्टानें या प्रवाल भित्तियाँ(Coral reefs or coral reefs)

मूंगे की चट्टानें या प्रवाल भित्तियाँ(Coral reefs or coral reefs)


समुद्र में स्थित ये प्रवाल भित्तियाँ अर्थात मूंगे की चट्टानें वास्तव में कैल्शियम कार्बोनेट के कंकाल (ढाँचे) वाले प्रवालों से ही निर्मित चट्टानें हैं। इसमें भी मुख्य बात यह है कि इन सुंदर चट्टानों का निर्माण करने वाले मूंगे (प्रवाल) भी एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया के मार्फत एक बहुत सूक्ष्म जलीय जीव से निर्मित होते हैं। इस सूक्ष्म जलीय जीव को मूंगे (प्रवाल) का जल-जीव या ‘पोलिप’कहा जाता है।

मूंगे का निर्माण प्रवाल जल-जीव या पोलिप से होता है। इस पोलिप में लगभग एक सेंटीमीटर लंबी एक थैली जैसी रचना होती है जिसके ऊपरी सिरे पर अग्रमुखीय तस्तरी-सा मुख होता है। यह मुख सीधा आमाशय में खुलता है। मुख के चारों ओर अंगुलियों जैसे संस्पर्शकों के कई घेरे होते हैं। कैल्शियम कार्बोनेट का कंकाल इसकी तली पर स्थित होता है।

पोलिपों के मुख पर स्थित संस्पर्शक लगातार गतिशील रहते हैं। गतिशील संस्पर्शक जल में उपस्थित छोटे प्लावकों को पकड़कर मुख द्वारा सीधे अमाशय में पहुँचाते हैं। यह कार्य रात में ज्यादा होता है तथा पोलिप की भोजन आपूर्ति कहलाता है। संस्पर्शक जल में डूबते हुए कणों को भी एक-दूसरे संस्पर्शक पर गिरने एवं जमने से रोकते हैं ताकि ऐसे कण तली की ओर जाकर कंकाल निर्माण में सहभागी हो सकें। चूँकि प्रवाल का निर्माण अत्यंत धीमी गति से होता है फलतः समुद्री खरपतवार, समुद्री जीवों के अवशेष, उनके आवरणों के टुकड़े और मिट्टी इन प्रवालों के बीच जमते रहते हैं।

?प्रवाल भित्तियाँ उत्तरी एवं दक्षिणी ठंडे प्रदेशों के बजाय ऐसे समुद्रों में ज्यादा पाई जाती हैं जिनका जल गर्म होता है। भित्ति बनाने वाले प्रवालों को गर्म, स्वच्छ और उथले जल की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि ये महाद्वीपीय तटों पर 28 अंश उत्तरी और 28 अंश दक्षिणी अक्षांश के बीच पाई जाती हैं। भित्ति बनाने वाले प्रवाल विश्व के दो भागों में सीमित हैं। इनमें एक भाग है कैरीबियन महासागर क्षेत्र और दूसरा भाग है भारतीय एवं पश्चिमी प्रशांत महासागर क्षेत्र। ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्व में भी प्रवाल भित्तियों का विस्तार है। प्रवाल भित्तियों का निर्माण विभिन्न प्रकार की प्रवाल जातियाँ मिलकर करती हैं। भारतीय प्रवाल भित्तियों में प्रवालों की लगभग 500 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

प्रवाल भित्तियाँ मूल रूप से तीन प्रकार की होती हैं- 

1. तटीय या झालरदार

2. अवरोधक तथा

3. एटॉल।

तटीय प्रवाल भित्तियाँ प्रवालों की ऐसी सरंचनाएँ हैं जो समुद्र-तल पर मुख्य भूमि के निकट किनारों पर स्थित होती हैं। ये मुख्यतया चट्टानों के टुकड़ों मृत प्रवालों और मिट्टी से बनती हैं। इनमें जीवित प्रवाल प्रायः बाहरी किनारों एवं ढलानों पर पाए जाते हैं। भित्तियों की ऊपरी सतह मृत प्रवालों से बनी होती है। ये भित्तियाँ उन स्थलों पर होती हैं जहाँ तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से ऊपर हो, लवणता 35 प्रतिशत और पंकिलता न्यून हो। भारत में ये भित्तियाँ मन्नार की खाड़ी तथा अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह में पाई जाती हैं

अवरोधक प्रवाल भित्तियाँ भी तटीय प्रवाल भित्तियों की तरह ही होती हैं परंतु ये किनारे से दूर स्थित होती हैं और इनके तथा किनारे के बीच सैकड़ों किलोमीटर चौड़ा लैगून होता है। लैगून की चौड़ाई कम होते जाने पर अंततः अवरोधक प्रवाल भित्ति भी तटीय प्रवाल भित्ति में रूपांतरित हो जाती है। इन भित्तियों में प्रवालों की बढ़ोत्तरी बाहरी वृद्धि केंद्रों पर प्रचुरता से होती है। संसार की सबसे बड़ी अवरोधक प्रवाल भित्ति ऑस्ट्रेलिया की ‘ग्रेट बैरियर रीफ’है। ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पश्चिमी तट पर 2010 किलोमीटर तटीय लंबाई पर फैली इन भित्तियों का क्षेत्रफल 260000 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ प्रवालों को 400 जातियाँ तथा मछलियों की 1500 प्रजातियाँ हैं। ये भित्तियाँ भी 15000 वर्ष पुरानी मानी जाती हैं।

एटॉल एक ऐसा प्रवाल द्वीप होता है जो एक केंद्रीय लैगून के चारों ओर प्रवाल भित्तियों की एक पट्टी का बना होता है। इस प्रकार एटॉल ऐसी भित्तियाँ होती हैं जो उथले लैगूनों के किनारे-किनारे होती हैं और उन्हें चारों तरफ से घेर लेती हैं।

प्रवाल भित्तियाँ विश्व का दूसरा सबसे समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र है। यह अनेक जीवों एवं वनस्पतियों का आश्रय स्थल है।

प्रवाल भित्तियाँ सजावटी मछली, मोलस्क जाति के जीव तथा इकाइनोडर्मेटा संघ के जीवों का आवास एवं आहार-स्थल हैं। प्रवाल का प्रयोग मानव सदियों से रत्न के रूप में करता आया है। प्रवाल का प्रयोग औषधियों में भी होता रहा है। वर्तमान में भी इन्हें अर्णुदरोधी, दर्दरोधी एवं प्रदाहरोधी दवाओं में काम में लेने के साथ-साथ मधुमेह, बवासीर और मूत्र रोगों के उपचार में भी काम में लाया जाता है। प्रवाल भित्तियों को कई उपयोगी पदार्थ, यथा—छन्नक, फर्शी, पेंसिल, टाइल आदि बनाने में भी काम में लाया जाता है। शृंगार सामग्री में तो इनकी गुलाबी, बैंगनी एवं नारंगी रंग की कसीदाकारी में बहुत ही काम आती है।

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