आजाद हिंद फौज की स्थापना--सुभाष चंद्र बोस-Establishment of Azad Hind Fauj - Subhash Chandra Bose
आजाद हिंद फौज की स्थापना--सुभाष चंद्र बोस
Establishment of Azad Hind Fauj - Subhash Chandra Bose संस्थापक-सुभाष चंद्र बोस
समय- 1943ई. स्थान-सिंगापुर वास्तविक संस्थापक-मोहन सिंह( भारतीय सेना के अधिकारी कैप्टन) जन्म- 23 जनवरी 1897 स्थान-कटक (उड़ीसा )
स्नातक की उपाधि-1919 में (कलकत्ता विश्वविद्यालय ) इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा पास की- 1920 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल- 1921 में राजनीतिक गुरु-चितरंजन दास पहली बार सजा-दिसंबर 1921 में (छह माह) कारावास का दंड-11 बार
कोलकाता के मेयर- 1923 में इंडिपेंडेंस लिंग का गठन- 1927 जापान जर्मनी युद्ध में शामिल- 7 दिसंबर 1941 सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिए गए नारे- दिल्ली चलो और तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा शहीद दिवस मनाया- 22 सितंबर 1944 मृत्यु 18 अगस्त-1945 को मृत्यु का कारण- विमान में आग लग जाने के स्थान-फारमोसा द्विप ताइपे
नेताजी की उपाधि-जर्मनी
फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना- सुभाष चंद्र बोस द्वारा (जर्मनी) सुभाष चंद्र बोस द्वारा पहली बार दिया गया नारा-जय हिंद
जिस समय भारत के अंदर जनता भारत छोड़ो आंदोलन के द्वारा चेतावनी दे रही थी वह अधिक समय तक गुलामी की बेडियो को स्वीकार नहीं करेगी उसी समय देश के बाहर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष की तैयारी हो रही थी जिसमें यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत के रणबांकुरे अपने शौर्य का प्रदर्शन देश को गुलाम बनाए रखने के लिए नहीं अपितू गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए करेंगे
सुभाष चंद्र बोस का जीवन परिचय
नेताजी के नाम से विख्यात सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 18697 को उड़ीसा के कटक में मध्यमवर्गीय बंगाली गृहस्थ में हुआ था
उन्होंने 1919 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की इसके बाद वह इंग्लैंड चले गए थे
1920 में इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा में बैठे और योग्यता क्रम में उनका चौथा स्थान था लेकिन इस से भी इन्होंने त्याग पत्र दे दिया
1921 में स्वराज चितरंजन दास व गांधी जी की प्रेरणा से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए
चितरंजन दास जी सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक गुरु थे
उन्हें पहली बार दिसंबर 1921 में 6 महीने की सजा हुई और उसके बाद अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए उन्हें 11 बार कारावास का दंड दिया गया
बोस बाबू देशबंधु चितरंजन दास से प्रभावित हुए और शीघ्र ही उनके सबसे विश्वास पात्र प्रतिनिधि और दाहिना हाथ बन गए
1923 में उन्होंने स्वराज दल के गठन और कार्यक्रम का समर्थन किया है
उनका विचार था कि अंग्रेजों का विरोध भारतीय विधान परिषद के अंदर भी होना चाहिए
1923 में जब चितरंजन दास कोलकाता के महापौर बने तो सुभाष चंद्र बोस कोलकाता निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (मेयर) नियुक्त किए गए
25 अक्टूबर 1924 को बंगाल सरकार ने उनकी राजनीतिक गतिविधियों के लिए उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया और मांडले (बर्मा)की जेल में भेज दिया गया
16 मई 1927 को उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया
1927 में ही उन्होंने धारा सभा वअसेंबली का चुनाव लड़ा और इंडिपेंडेंस लीग का गठन किया
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी दल के कट्टर विरोधी थे
1928 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के समय उन्होंने विशेष समिति में नेहरू रिपोर्ट द्वारा अनुमोदित प्रादेशिक शासन स्वायत्तता अथवा औपनिवेशिक स्वराज संबंधी प्रस्ताव का डटकर विरोध किया था
1929 में इन्हें फिर से 6 महीने की सजा हुई थी
1938 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन की इन्होंने अध्यक्षता की और
1939 में महात्मा गांधी के विरोध के बाद भी कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए
संभवत यह महात्मा गांधी की सबसे बड़ी हार थी
लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी में महात्मा गांधी के समर्थकों का बहुमत था
सुभाष चंद्र बोस ने अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में सुझाव दिया कि स्वाधीनता की राष्ट्रीय मांग एक निश्चित समय के अंदर पूरी करने के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने रखी जाए और ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्धारित अवधि मे मांग पूरी न करने पर सविनय अवज्ञा आंदोलन और सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर देना चाहिए
लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बहुसंख्यक सदस्य जो महात्मा गांधी के कट्टर अनुयायी थे के निरंतर विरोध के फलस्वरुप उन्हें अप्रैल 1939 में अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे देना पड़ा
सुभाष चंद्र बोस की जर्मन यात्रा
कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद 1939 में सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया उन्होंने इसे विदेशों की सहायता द्वारा भारतीय स्वतंत्रता प्राप्त करने का स्वर्ण अवसर समझा
लेकिन 1940 में ही ने दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया और उनके घर में ही नजरबंद कर दिया गया
लेकिन सुभाष चंद्र बोस 26 जनवरी 1941 को पुलिस की नजरों में धूल झोंककर एक पठान जियाउद्दीन के वेश में घर से बाहर निकले और गाड़ी में सवार होकर कलकत्ता से पेशावर पहुंचे
उनके साथी भगतराम ने 21 जनवरी 1941 को काबुल पहुंचा दिया उसके बाद सुभाष चंद्र बोस काबुल से रूस वहां से जर्मनी पहुंच गए
वहां उनकी मुलाकात हिटलर से हुई थी हिटलर ने उन्हें हर तरह की सहायता देने का वचन किया
जो भारतीय सैनिक इटली और जर्मनी के हाथ में पड़ गए थे उन सब को बुला कर उन्होंने मुक्ति सेना बनाई थी और इसका दफ्तर ड्रेसडन (जर्मनी) बनाया
उन्होंने वर्ल्ड इन रेडियो से भारत समर्थक तथा अंग्रेजी विरोधी भाषण प्रसारित किए
उन्होंने भारतीयों को अंग्रेजी दासता से मुक्ति प्राप्त करने के लिए विद्रोह करने का सुझाव दिया
जर्मनी की जनता ने उन्हें नेताजी से संबोधित किया
7 दिसंबर 1941 को जापान जर्मनी के साथ युद्ध में शामिल हो गया
जापान ने 16 फरवरी 1942 को संसार के सबसे प्रसिद्ध अंग्रेजों के समुद्री गढ़ सिंगापुर को फतह कर लिया
उसके बाद जापान ने मवाया से वर्मा तक सारा प्रदेश जीत लिया
रासबिहारी बोस द्वारा इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना
इन ही दिनों भारत के पुराने व प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस जापान में अप्रवासी थे
उन्होंने 28-30 मार्च 1942 को टोक्यो में मलाया से वर्मा तक रहने वाले सभी भारतीय नेताओं का सम्मेलन बुलाया
जिसमें उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता लीग (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग) और आजाद हिंद फौज बनाने की घोषणा की
जिसके बाद 14 जून से 23 जून 1942 तक बैंकॉक में रास बिहारी बोस की अध्यक्षता में एक सम्मेलन हुआ जिसे बैंकॉक सम्मेलन के नाम से जाना जाता है
इस में जापान से बर्मा तक के देशों में रहनेवाले असंख्य भारतीय सम्मिलित हुए
इस सम्मेलन में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना विधिवत रूप से की गई और सुभाष चंद्र बोस के पूर्वी एशिया बुलाने का निमंत्रण दिया गया
सुभाष चंद्र बोस ने बैंकॉक सम्मेलन के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए 13 जून 1943 टोकियो पहुंचे
जापान के प्रधानमंत्री तोजो ने उनका स्वागत किया
सुभाष चंद्र बोस ने स्पष्ट किया कि वह भारत की स्वतंत्रता चाहते हैं उन्होंने जापान की यह मांग स्वीकार कर ली थी कि युद्ध के समय जापान भारत की अधिनता में रहेगा
सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना प्रथम संदेश भारतीयों को सौंप दिया यह संदेश राष्ट्र के नाम था
??आजाद हिंद फौज का इतिहास??
आजाद हिंद फौज का जन्म अपने आप में कोई स्वतंत्र घटना नहीं थी वह उस प्रक्रिया का एक नतीजा थी जो भारतीय सैनिकों में राष्ट्रभक्ति की ज्वाला को प्रज्वलित कर रही थी
18 57 के बाद पहले महाराष्ट्रीय विप्लव को जन्म देने में पहल सैनिकों के द्वारा की गई थी
1947 की आजादी के पूर्व की अंतिम महत्वपूर्ण लड़ाइयां शाही नौसेना में विप्लव भी सैनिकों का कार्य था
इन दोनों घटनाओं के मध्य अप्रैल 1930 में पेशावर में सैनिकों ने चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इंकार कर मानवता, सांप्रदायिक सद्भाव ,देश भक्ति और सच्चे शौर्य का वास्तविक प्रदर्शन किया था
आजाद हिंद फौज और उसका संघर्ष ही शानदार परंपरा का एकमात्र था
इस समय भारत में स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन किए जा रहे थे उसी समय आजाद हिंद फौज का निर्माण प्रारंभ हो गया था
आजाद हिंद फौज का नाम सुभाष चंद्र बोस के साथ जुड़ा हुआ है किंतु सत्य है यह है कि
इसकी स्थापना का श्रेय भारतीय सेना के एक अधिकारी कैप्टन मोहन सिंह को जाता है
भारतीय सेना के कैप्टन मोहन सिंह ने कुछ सैनिकों के साथ अपने आपको जापानी सैनिकों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था जब जापानी सेना ने मलाया पर विजय प्राप्त कर ली थी
एक धार्मिक व्यक्ति प्रीतम सिंह और जापानी सैनिक अधिकारी मेजर फूजीहारा ने इन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रोत्साहित किया
सिंगापुर के पतन के बाद 40,000 भारतीय सैनिकों ने अपने आप को मेजर फूजीहारा को सोप दिया
मेजर फूजीहारा ने यह सारे सैनिक कैप्टन मोहन सिंह को सौंप दिए
कैप्टन मोहन सिंह राष्ट्रप्रेमी थे उन्होंने भारतीय सैनिकों को अपने साथ लेकर उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया इस प्रकार सितंबर 1942 में औपचारिक रूप से आजाद हिंद फौज का गठन हो गया था
आजाद हिंद फौज का उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना था
अगस्त 1942 तक इस फौज में 16000 सैनिकों की एक डिविजन तैयार हो गई थी
मोहन सिंह का लक्ष्य इस सेना का और अधिक विस्तार करने का था
किंतु इस प्रश्न पर उनका जापानियों और रास बिहारी बोस से मतभेद हो गया
इन मतभेदों के चलते जापानियों ने मोहन सिह को नजर बंद कर दिया
पूरी संभावना थी की मोहन सिंह के मंच से हटने के साथ ही आजाद हिंद फौज के इतिहास के अध्याय भी समाप्त हो जाएगा
लेकिन इसी समय सुभाष चंद्र बोस के पूर्व एशिया में पहुंचने से आजाद हिंद फौज के इतिहास में नया मोड़ आया
आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन
सुभाष चंद्र बोस महान देश भक्त थे वह प्रत्येक घटनाक्रम पर इस दृष्टि से विचार करते थे कि इसका क्या प्रभाव भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति पर पड़ेगा
1931 से ही जब विश्वयुद्ध की संभावना दिखने लगी तो सुभाष का विचार बन गया कि इस युद्ध का लाभ भारत की आजादी प्राप्त करने के लिए उठाया जाना चाहिए
सुभाष चंद्र बोस का कहना था कि भारत को तुरंत ही आवश्यकता इस बात की है कि ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष छेड़ दिया जाए और किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जाए
इस संघर्ष को किस तरह और किसके साथ मिलकर आरंभ किया जाए इस पर उनका मत था कि गांधीजी के अहिंसा के दार्शनिक विचारों को या नेहरू की धूरी विरोधी विदेशी नीति की भावना को मार्ग में नहीं आने देना चाहिए
अपनी इस विचारधारा के साथ सुभाष चंद्र बोस ने युद्ध आरंभ होते ही देश की जनता से अपील की कि वह युद्ध में अंग्रेजो की किसी प्रकार से सहायता ना करें
अपने दल फॉरवर्ड ब्लॉक के नेतृत्व में उन्होंने 6 अप्रैल 1940 को सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ कर दिया
इस समय सुभाष चंद्र बोस का दृढ विश्वास था कि अंग्रेज युद्ध में हारेंगे स्वतंत्रता के लिए भारतीयों को संघर्ष करना ही पड़ेगा यदि भारत ब्रिटेन से लड़ने वाली शक्तियों के साथ सहयोग करेगा तो भारत को स्वतंत्रता मिल जाएगी
इन मान्यताओं के चलते ही 17 जनवरी 1941 को साम्राज्यवादी पुलिस की आंखों में धूल झोंककर सुभाष चंद्र बोस भारत से निकलकर काबुल और वहां से मास्को होते हुए 28 मार्च को बर्लिन पहुंच गए थे
वहां पहुंच कर उन्होंने जर्मन सरकार के सामने प्रस्ताव रखा कि उन्हें बर्लिन रेडियो से ब्रिटिश विरोधी प्रचार करने दिया जाए युद्धबंदी भारतीय सैनिकों को लेकर सेना का गठन करने दिया जाए जर्मनी और उसके मित्र भारत की स्वतंत्रता की घोषणा करें
सुभाष की पहली दो बातें स्वीकार कर ली गई और जनवरी 1942 तक यूरोप में भारतीय सेना की दो टुकड़ों का गठन हो गया
लेकिन भारत की स्वतंत्रता की घोषणा में जर्मनी ने कोई रुचि नहीं दिखाई इससे सुभाष चंद्र बोस को निराशा हुई
उसी समय दक्षिण पूर्व एशिया में 28 से 30 मार्च के टोक्यो सम्मेलन द्वारा रासबिहारी बोस ने एक इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का गठन किया और भारतीय मुक्ति सेना के गठन का निर्णय लिया
टोक्यो सम्मेलन के फैसलों की पुष्टि बैंकॉक सम्मेलन( 15 से 22 जून 1942) में की गई और सुभाष को नवगठित लीग की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया
सुभाष चंद्र बोस में 8 फरवरी 1943 को जर्मनी छोड़ा
एक रोमांचक समुद्री व हवाई यात्रा के उपरांत 13 जून को वह टोकियो पहुंचे और जापान ने भारत को स्वतंत्र कराने में पूर्ण मदद देने का वचन दिया
इसके पश्चात सुभाष चंद्र बोस 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर पहुंचा
5 जुलाई 1943को सिंगापुर में सुभाष चंद्र बोस ने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की अध्यक्षता ग्रहण की और आजाद हिंद फौज की कमान संभाली राज बिहारी बहुत केवल मुख्य परामर्शदाता बन गये सुभाष चंद्र बोस नेताजी कहलाने लगे
21 अक्टूबर1943 को आजाद हिंद सरकार का विधिवत उद्घाटन हुआ
21 अक्टूबर 1943 को चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार की स्थापना की
सुभाष चंद्र बोस की सरकार ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में जयहिंद को अभिवादन के रूप में टैगोर की कविता को राष्ट्रगान के रुप में स्वीकार किया
यही पर सुभाष चंद्र बोस ने सेना को दिल्ली चलो और तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा दिया था वह स्वयं ही इस सरकार के प्रधानमंत्री और मुख्य सेनापति बन गए तथा अपने पद की शपथ ग्रहण की जो इस प्रकार थी
सुभाष चंद्र बोस की शपथ मैं सुभाष चंद्र बोस ईश्वर की पवित्र सौगंध खाकर कहता हूं कि में भारत और अपने देश के 38 करोड़ लोगों को स्वतंत्र करूंगा मैं सुभाष चंद्र बोस अपने जीवन के अंतिम क्षण तक स्वतंत्रता के पवित्र युद्ध को जारी रखूंगा
संसार की नौ शक्तियों ने जिसमें जापान, जर्मनी ,वर्मा, फिलीपींस, कोरिया, इटली ,चीन, मांचूको और आयरलैंड सम्मिलित थे इन सभी ने इस सरकार को मान्यता दी
इस सरकार ने 23 अक्टूबर 1943 को मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी थी
अंडमान और निकोबार टापू भारतीय भूमि के वह भाग थे जिन पर आजाद हिंद फौज सरकार को सबसे पहले अधिकार मिला
8 नवंबर 1943 को अंडमान और निकोबार द्वीप नेताजी की इस अस्थाई सरकार को जापान के द्वारा सौंपा गया था
नेताजी स्वयं इन द्वीपो में आए और अंडमान का नाम शहीदी द्वीप और निकोबार का नाम स्वराज द्वीप रखा
30 दिसंबर 1943को स्वतंत्र भारत का झंडा इन द्वीपो पर फहराता दिया गया
आजाद हिंद फौज का सैनिक अभियान
आजाद हिंद फौज का सैनिक अभियान फरवरी-मार्च 1944 में प्रारम्भ हुआ था
4 फरवरी 1944 को आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजो पर आक्रमण किया
मई में उसने माडोक पर अधिकार कर भारत भूमि पर कदम रखा और सितंबर तक कैप्टन सूरजमल के नेतृत्व में सैनिक टुकड़ी वहॉ बनी रही
मई मास में ही जापान की सेना के साथ मिलकर आजाद हिंद फौज ने कोहिमा ,रामू पलेन,तिद्दिम,इत्यादि भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया
आजाद हिंद फौज की सेना असम में कोहिमा तक पहुंच गई कोहिमा के स्थान पर तिरंगा झंडा गाड़ दिया गया
22 सितंबर 1944 को सुभाष ने शहीदी दिवस मनाया शहीदी दिवस के अवसर पर उन्होंने सिपाहियों को संबोधित करते हुए कहा हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज में हैं तुम मुझे अपना खून दो और मैं तुम्हें अपनी स्वतंत्रता देता हूं यह स्वतंत्रता की देवी की मांग है
द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग्य ने जापान का साथ नहीं दिया जर्मनी ने भी हार मान ली जापान के अधिन जो भी प्रदेश थे उन सब पर दोबारा अंग्रेजों का कब्जा हो गया
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु ऐसी परिस्थिति में 1945 में सुभाष चंद्र बोस बैंकॉक से टोक्यो रवाना हुए लेकिन फारमोसा द्वीप(ताइपेई) के पास विमान में आग लग जाने के कारण 18 अगस्त 1945 को उनकी मृत्यु हो गई ??????????
??आजाद हिंद फौज के सैनिक अभियान की असफलता??
आजाद हिंद फौज का यह अभियान असफल रहा
जापानियों की पराजय के साथ ही आजाद हिंद फौज की भी पराजय हो गई और उसके अधिकांश सैनिक युद्ध बंदी बना लिए गए
आजाद हिंद फौज की पराजय अप्रत्याशित नहीं थी सत्य तो यह है कि उसे अत्यंत विषम परिस्थिति में संघर्ष करना पड़ रहा था
उनके पास उत्कट देशभक्ति की भावना और देश पर मर मिटने का संकल्प था
लेकिन केबल इन पर युद्ध नहीं जीते जा सकते हैं
आजाद हिंद फौज की हार और 18 अगस्त 1945 को फारमोसा में वायुयान दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के साथ स्वतंत्रता संघर्ष का यह अध्याय यहीं पर समाप्त हो जाता है
आजाद हिंद फौज पर इतिहासकारों के विचार भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में आजाद हिंद फौज का अपना अलग ही स्थान है
इतिहासकार सुमित सरकार
इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार केवल सैन्य दृष्टि से तो आजाद हिंद फौज का महत्त्व बहुत अधिक नहीं रहा और यदि वह अधिक प्रभावी रही भी होती तो उसका आगमन बहुत देर से हुआ था क्योंकि 1944 तक धुरी शक्तियॉ सर्वत्र पीछे हटी लगी
तात्कालिक उपलब्धि नगण्य होते हुए भी आजाद हिंद फौज के संघर्ष ने गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ा
इसी प्रभाव के माध्यम से उसके वास्तविक महत्त्व को आकां जा सकता है
सुभाष व आजाद हिंद फौज के आलोचक को भी स्वीकार करना पड़ा कि
उनका अनुपम त्याग शौर्य और बलिदान भारतीयों को अपने देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्रेरणा देता रहेगा
इतिहासकार ताराचंद इतिहासकार ताराचंद ने आजाद हिंद फौज के संघर्ष के महत्व पर कई दृष्टि से विचार किया है 1. सर्वप्रथम तो उनके विचार में इस संघर्ष के कारण भारत का प्रश्न ब्रिटिश साम्राज्य के संकुचित दायरे से निकलकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विस्तृत क्षेत्र में चला गया 2. दूसरे उनके अनुसार आजाद हिंद फौज ने भारत के विदेशी शासकों को चेतावनी दी थी कि वह भारत के वेतन भोगी सैनिकों की स्वामी भक्ति पर भारत को अपने अधीन बनाए रखने के लिए भरोसा नहीं कर सकते
इस अहसास में अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए प्रेरित करने में मुख्य भूमिका का निर्वाह किया
संस्थापक-सुभाष चंद्र बोस
समय- 1943ई. स्थान-सिंगापुर वास्तविक संस्थापक-मोहन सिंह( भारतीय सेना के अधिकारी कैप्टन) जन्म- 23 जनवरी 1897 स्थान-कटक (उड़ीसा )
स्नातक की उपाधि-1919 में (कलकत्ता विश्वविद्यालय ) इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा पास की- 1920 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल- 1921 में राजनीतिक गुरु-चितरंजन दास पहली बार सजा-दिसंबर 1921 में (छह माह) कारावास का दंड-11 बार
कोलकाता के मेयर- 1923 में इंडिपेंडेंस लिंग का गठन- 1927 जापान जर्मनी युद्ध में शामिल- 7 दिसंबर 1941 सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिए गए नारे- दिल्ली चलो और तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा शहीद दिवस मनाया- 22 सितंबर 1944 मत्यु 18 अगस्त-1945 को मृत्यु का कारण- विमान में आग लग जाने के स्थान-फारमोसा द्विप ताइपे
नेताजी की उपाधि-जर्मनी
फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना- सुभाष चंद्र बोस द्वारा (जर्मनी) सुभाष चंद्र बोस द्वारा पहली बार दिया गया नारा-जय हिंद
जिस समय भारत के अंदर जनता भारत छोड़ो आंदोलन के द्वारा चेतावनी दे रही थी वह अधिक समय तक गुलामी की बेडियो को स्वीकार नहीं करेगी उसी समय देश के बाहर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष की तैयारी हो रही थी जिसमें यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत के रणबांकुरे अपने शौर्य का प्रदर्शन देश को गुलाम बनाए रखने के लिए नहीं अपितू गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए करेंगे
सुभाष चंद्र बोस का जीवन परिचय
नेताजी के नाम से विख्यात सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 18697 को उड़ीसा के कटक में मध्यमवर्गीय बंगाली गृहस्थ में हुआ था
उन्होंने 1919 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की इसके बाद वह इंग्लैंड चले गए थे
1920 में इंडियन सिविल सर्विस परीक्षा में बैठे और योग्यता क्रम में उनका चौथा स्थान था लेकिन इस से भी इन्होंने त्याग पत्र दे दिया
1921 में स्वराज चितरंजन दास व गांधी जी की प्रेरणा से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए
चितरंजन दास जी सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक गुरु थे
उन्हें पहली बार दिसंबर 1921 में 6 महीने की सजा हुई और उसके बाद अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए उन्हें 11 बार कारावास का दंड दिया गया
बोस बाबू देशबंधु चितरंजन दास से प्रभावित हुए और शीघ्र ही उनके सबसे विश्वास पात्र प्रतिनिधि और दाहिना हाथ बन गए
1923 में उन्होंने स्वराज दल के गठन और कार्यक्रम का समर्थन किया है
उनका विचार था कि अंग्रेजों का विरोध भारतीय विधान परिषद के अंदर भी होना चाहिए
1923 में जब चितरंजन दास कोलकाता के महापौर बने तो सुभाष चंद्र बोस कोलकाता निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (मेयर) नियुक्त किए गए
25 अक्टूबर 1924 को बंगाल सरकार ने उनकी राजनीतिक गतिविधियों के लिए उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया और मांडले (बर्मा)की जेल में भेज दिया गया
16 मई 1927 को उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया
1927 में ही उन्होंने धारा सभा वअसेंबली का चुनाव लड़ा और इंडिपेंडेंस लीग का गठन किया
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी दल के कट्टर विरोधी थे
1928 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के समय उन्होंने विशेष समिति में नेहरू रिपोर्ट द्वारा अनुमोदित प्रादेशिक शासन स्वायत्तता अथवा औपनिवेशिक स्वराज संबंधी प्रस्ताव का डटकर विरोध किया था
1929 में इन्हें फिर से 6 महीने की सजा हुई थी
1938 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन की इन्होंने अध्यक्षता की और
1939 में महात्मा गांधी के विरोध के बाद भी कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए
संभवत यह महात्मा गांधी की सबसे बड़ी हार थी
लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी में महात्मा गांधी के समर्थकों का बहुमत था
सुभाष चंद्र बोस ने अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में सुझाव दिया कि स्वाधीनता की राष्ट्रीय मांग एक निश्चित समय के अंदर पूरी करने के लिए ब्रिटिश सरकार के सामने रखी जाए और ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्धारित अवधि मे मांग पूरी न करने पर सविनय अवज्ञा आंदोलन और सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर देना चाहिए
लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बहुसंख्यक सदस्य जो महात्मा गांधी के कट्टर अनुयायी थे के निरंतर विरोध के फलस्वरुप उन्हें अप्रैल 1939 में अध्यक्ष पद से त्याग पत्र दे देना पड़ा
सुभाष चंद्र बोस की जर्मन यात्रा
कांग्रेस से इस्तीफा देने के बाद 1939 में सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया
सितंबर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया उन्होंने इसे विदेशों की सहायता द्वारा भारतीय स्वतंत्रता प्राप्त करने का स्वर्ण अवसर समझा
लेकिन 1940 में ही ने दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया और उनके घर में ही नजरबंद कर दिया गया
लेकिन सुभाष चंद्र बोस 26 जनवरी 1941 को पुलिस की नजरों में धूल झोंककर एक पठान जियाउद्दीन के वेश में घर से बाहर निकले और गाड़ी में सवार होकर कलकत्ता से पेशावर पहुंचे
उनके साथी भगतराम ने 21 जनवरी 1941 को काबुल पहुंचा दिया उसके बाद सुभाष चंद्र बोस काबुल से रूस वहां से जर्मनी पहुंच गए
वहां उनकी मुलाकात हिटलर से हुई थी हिटलर ने उन्हें हर तरह की सहायता देने का वचन किया
जो भारतीय सैनिक इटली और जर्मनी के हाथ में पड़ गए थे उन सब को बुला कर उन्होंने मुक्ति सेना बनाई थी और इसका दफ्तर ड्रेसडन (जर्मनी) बनाया
उन्होंने वर्ल्ड इन रेडियो से भारत समर्थक तथा अंग्रेजी विरोधी भाषण प्रसारित किए
उन्होंने भारतीयों को अंग्रेजी दासता से मुक्ति प्राप्त करने के लिए विद्रोह करने का सुझाव दिया
जर्मनी की जनता ने उन्हें नेताजी से संबोधित किया
7 दिसंबर 1941 को जापान जर्मनी के साथ युद्ध में शामिल हो गया
जापान ने 16 फरवरी 1942 को संसार के सबसे प्रसिद्ध अंग्रेजों के समुद्री गढ़ सिंगापुर को फतह कर लिया
उसके बाद जापान ने मवाया से वर्मा तक सारा प्रदेश जीत लिया
रासबिहारी बोस द्वारा इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना
इन ही दिनों भारत के पुराने व प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस जापान में अप्रवासी थे
उन्होंने 28-30 मार्च 1942 को टोक्यो में मलाया से वर्मा तक रहने वाले सभी भारतीय नेताओं का सम्मेलन बुलाया
जिसमें उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता लीग (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग) और आजाद हिंद फौज बनाने की घोषणा की
जिसके बाद 14 जून से 23 जून 1942 तक बैंकॉक में रास बिहारी बोस की अध्यक्षता में एक सम्मेलन हुआ जिसे बैंकॉक सम्मेलन के नाम से जाना जाता है
इस में जापान से बर्मा तक के देशों में रहनेवाले असंख्य भारतीय सम्मिलित हुए
इस सम्मेलन में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना विधिवत रूप से की गई और सुभाष चंद्र बोस के पूर्वी एशिया बुलाने का निमंत्रण दिया गया
सुभाष चंद्र बोस ने बैंकॉक सम्मेलन के निमंत्रण को स्वीकार करते हुए 13 जून 1943 टोकियो पहुंचे
जापान के प्रधानमंत्री तोजो ने उनका स्वागत किया
सुभाष चंद्र बोस ने स्पष्ट किया कि वह भारत की स्वतंत्रता चाहते हैं उन्होंने जापान की यह मांग स्वीकार कर ली थी कि युद्ध के समय जापान भारत की अधिनता में रहेगा
सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना प्रथम संदेश भारतीयों को सौंप दिया यह संदेश राष्ट्र के नाम था
आजाद हिंद फौज का इतिहास
आजाद हिंद फौज का जन्म अपने आप में कोई स्वतंत्र घटना नहीं थी वह उस प्रक्रिया का एक नतीजा थी जो भारतीय सैनिकों में राष्ट्रभक्ति की ज्वाला को प्रज्वलित कर रही थी
18 57 के बाद पहले महाराष्ट्रीय विप्लव को जन्म देने में पहल सैनिकों के द्वारा की गई थी
1947 की आजादी के पूर्व की अंतिम महत्वपूर्ण लड़ाइयां शाही नौसेना में विप्लव भी सैनिकों का कार्य था
इन दोनों घटनाओं के मध्य अप्रैल 1930 में पेशावर में सैनिकों ने चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से इंकार कर मानवता, सांप्रदायिक सद्भाव ,देश भक्ति और सच्चे शौर्य का वास्तविक प्रदर्शन किया था
आजाद हिंद फौज और उसका संघर्ष ही शानदार परंपरा का एकमात्र था
इस समय भारत में स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन किए जा रहे थे उसी समय आजाद हिंद फौज का निर्माण प्रारंभ हो गया था
आजाद हिंद फौज का नाम सुभाष चंद्र बोस के साथ जुड़ा हुआ है किंतु सत्य है यह है कि
इसकी स्थापना का श्रेय भारतीय सेना के एक अधिकारी कैप्टन मोहन सिंह को जाता है
भारतीय सेना के कैप्टन मोहन सिंह ने कुछ सैनिकों के साथ अपने आपको जापानी सैनिकों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था जब जापानी सेना ने मलाया पर विजय प्राप्त कर ली थी
एक धार्मिक व्यक्ति प्रीतम सिंह और जापानी सैनिक अधिकारी मेजर फूजीहारा ने इन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रोत्साहित किया
सिंगापुर के पतन के बाद 40,000 भारतीय सैनिकों ने अपने आप को मेजर फूजीहारा को सोप दिया
मेजर फूजीहारा ने यह सारे सैनिक कैप्टन मोहन सिंह को सौंप दिए
कैप्टन मोहन सिंह राष्ट्रप्रेमी थे उन्होंने भारतीय सैनिकों को अपने साथ लेकर उन्होंने आजाद हिंद फौज का गठन किया इस प्रकार सितंबर 1942 में औपचारिक रूप से आजाद हिंद फौज का गठन हो गया था
आजाद हिंद फौज का उद्देश्य भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना था
अगस्त 1942 तक इस फौज में 16000 सैनिकों की एक डिविजन तैयार हो गई थी
मोहन सिंह का लक्ष्य इस सेना का और अधिक विस्तार करने का था
किंतु इस प्रश्न पर उनका जापानियों और रास बिहारी बोस से मतभेद हो गया
इन मतभेदों के चलते जापानियों ने मोहन सिह को नजर बंद कर दिया
पूरी संभावना थी की मोहन सिंह के मंच से हटने के साथ ही आजाद हिंद फौज के इतिहास के अध्याय भी समाप्त हो जाएगा
लेकिन इसी समय सुभाष चंद्र बोस के पूर्व एशिया में पहुंचने से आजाद हिंद फौज के इतिहास में नया मोड़ आया
आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन
सुभाष चंद्र बोस महान देश भक्त थे वह प्रत्येक घटनाक्रम पर इस दृष्टि से विचार करते थे कि इसका क्या प्रभाव भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति पर पड़ेगा
1931 से ही जब विश्वयुद्ध की संभावना दिखने लगी तो सुभाष का विचार बन गया कि इस युद्ध का लाभ भारत की आजादी प्राप्त करने के लिए उठाया जाना चाहिए
सुभाष चंद्र बोस का कहना था कि भारत को तुरंत ही आवश्यकता इस बात की है कि ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष छेड़ दिया जाए और किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जाए
इस संघर्ष को किस तरह और किसके साथ मिलकर आरंभ किया जाए इस पर उनका मत था कि गांधीजी के अहिंसा के दार्शनिक विचारों को या नेहरू की धूरी विरोधी विदेशी नीति की भावना को मार्ग में नहीं आने देना चाहिए
अपनी इस विचारधारा के साथ सुभाष चंद्र बोस ने युद्ध आरंभ होते ही देश की जनता से अपील की कि वह युद्ध में अंग्रेजो की किसी प्रकार से सहायता ना करें
अपने दल फॉरवर्ड ब्लॉक के नेतृत्व में उन्होंने 6 अप्रैल 1940 को सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ कर दिया
इस समय सुभाष चंद्र बोस का दृढ विश्वास था कि अंग्रेज युद्ध में हारेंगे स्वतंत्रता के लिए भारतीयों को संघर्ष करना ही पड़ेगा यदि भारत ब्रिटेन से लड़ने वाली शक्तियों के साथ सहयोग करेगा तो भारत को स्वतंत्रता मिल जाएगी
इन मान्यताओं के चलते ही 17 जनवरी 1941 को साम्राज्यवादी पुलिस की आंखों में धूल झोंककर सुभाष चंद्र बोस भारत से निकलकर काबुल और वहां से मास्को होते हुए 28 मार्च को बर्लिन पहुंच गए थे
वहां पहुंच कर उन्होंने जर्मन सरकार के सामने प्रस्ताव रखा कि उन्हें बर्लिन रेडियो से ब्रिटिश विरोधी प्रचार करने दिया जाए युद्धबंदी भारतीय सैनिकों को लेकर सेना का गठन करने दिया जाए जर्मनी और उसके मित्र भारत की स्वतंत्रता की घोषणा करें
सुभाष की पहली दो बातें स्वीकार कर ली गई और जनवरी 1942 तक यूरोप में भारतीय सेना की दो टुकड़ों का गठन हो गया
लेकिन भारत की स्वतंत्रता की घोषणा में जर्मनी ने कोई रुचि नहीं दिखाई इससे सुभाष चंद्र बोस को निराशा हुई
उसी समय दक्षिण पूर्व एशिया में 28 से 30 मार्च के टोक्यो सम्मेलन द्वारा रासबिहारी बोस ने एक इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का गठन किया और भारतीय मुक्ति सेना के गठन का निर्णय लिया
टोक्यो सम्मेलन के फैसलों की पुष्टि बैंकॉक सम्मेलन( 15 से 22 जून 1942) में की गई और सुभाष को नवगठित लीग की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया
सुभाष चंद्र बोस में 8 फरवरी 1943 को जर्मनी छोड़ा
एक रोमांचक समुद्री व हवाई यात्रा के उपरांत 13 जून को वह टोकियो पहुंचे और जापान ने भारत को स्वतंत्र कराने में पूर्ण मदद देने का वचन दिया
इसके पश्चात सुभाष चंद्र बोस 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर पहुंचा
5 जुलाई 1943को सिंगापुर में सुभाष चंद्र बोस ने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की अध्यक्षता ग्रहण की और आजाद हिंद फौज की कमान संभाली राज बिहारी बहुत केवल मुख्य परामर्शदाता बन गये सुभाष चंद्र बोस नेताजी कहलाने लगे
21 अक्टूबर1943 को आजाद हिंद सरकार का विधिवत उद्घाटन हुआ
21 अक्टूबर 1943 को चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार की स्थापना की
सुभाष चंद्र बोस की सरकार ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में जयहिंद को अभिवादन के रूप में टैगोर की कविता को राष्ट्रगान के रुप में स्वीकार किया
यही पर सुभाष चंद्र बोस ने सेना को दिल्ली चलो और तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा दिया था वह स्वयं ही इस सरकार के प्रधानमंत्री और मुख्य सेनापति बन गए तथा अपने पद की शपथ ग्रहण की जो इस प्रकार थी
सुभाष चंद्र बोस की शपथ? मैं सुभाष चंद्र बोस ईश्वर की पवित्र सौगंध खाकर कहता हूं कि में भारत और अपने देश के 38 करोड़ लोगों को स्वतंत्र करूंगा मैं सुभाष चंद्र बोस अपने जीवन के अंतिम क्षण तक स्वतंत्रता के पवित्र युद्ध को जारी रखूंगा
संसार की नौ शक्तियों ने जिसमें जापान, जर्मनी ,वर्मा, फिलीपींस, कोरिया, इटली ,चीन, मांचूको और आयरलैंड सम्मिलित थे इन सभी ने इस सरकार को मान्यता दी
इस सरकार ने 23 अक्टूबर 1943 को मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी थी
अंडमान और निकोबार टापू भारतीय भूमि के वह भाग थे जिन पर आजाद हिंद फौज सरकार को सबसे पहले अधिकार मिला
8 नवंबर 1943 को अंडमान और निकोबार द्वीप नेताजी की इस अस्थाई सरकार को जापान के द्वारा सौंपा गया था
नेताजी स्वयं इन द्वीपो में आए और अंडमान का नाम शहीदी द्वीप और निकोबार का नाम स्वराज द्वीप रखा
30 दिसंबर 1943को स्वतंत्र भारत का झंडा इन द्वीपो पर फहराता दिया गया
आजाद हिंद फौज का सैनिक अभियान
आजाद हिंद फौज का सैनिक अभियान फरवरी-मार्च 1944 में प्रारम्भ हुआ था
4 फरवरी 1944 को आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजो पर आक्रमण किया
मई में उसने माडोक पर अधिकार कर भारत भूमि पर कदम रखा और सितंबर तक कैप्टन सूरजमल के नेतृत्व में सैनिक टुकड़ी वहॉ बनी रही
मई मास में ही जापान की सेना के साथ मिलकर आजाद हिंद फौज ने कोहिमा ,रामू पलेन,तिद्दिम,इत्यादि भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया
आजाद हिंद फौज की सेना असम में कोहिमा तक पहुंच गई कोहिमा के स्थान पर तिरंगा झंडा गाड़ दिया गया
22 सितंबर 1944 को सुभाष ने शहीदी दिवस मनाया शहीदी दिवस के अवसर पर उन्होंने सिपाहियों को संबोधित करते हुए कहा हमारी मातृभूमि स्वतंत्रता की खोज में हैं तुम मुझे अपना खून दो और मैं तुम्हें अपनी स्वतंत्रता देता हूं यह स्वतंत्रता की देवी की मांग है
द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग्य ने जापान का साथ नहीं दिया जर्मनी ने भी हार मान ली जापान के अधिन जो भी प्रदेश थे उन सब पर दोबारा अंग्रेजों का कब्जा हो गया
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु ऐसी परिस्थिति में 1945 में सुभाष चंद्र बोस बैंकॉक से टोक्यो रवाना हुए लेकिन फारमोसा द्वीप(ताइपेई) के पास विमान में आग लग जाने के कारण 18 अगस्त 1945 को उनकी मृत्यु हो गई
आजाद हिंद फौज के सैनिक अभियान की असफलता
आजाद हिंद फौज का यह अभियान असफल रहा
जापानियों की पराजय के साथ ही आजाद हिंद फौज की भी पराजय हो गई और उसके अधिकांश सैनिक युद्ध बंदी बना लिए गए
आजाद हिंद फौज की पराजय अप्रत्याशित नहीं थी सत्य तो यह है कि उसे अत्यंत विषम परिस्थिति में संघर्ष करना पड़ रहा था
उनके पास उत्कट देशभक्ति की भावना और देश पर मर मिटने का संकल्प था
लेकिन केबल इन पर युद्ध नहीं जीते जा सकते हैं
आजाद हिंद फौज की हार और 18 अगस्त 1945 को फारमोसा में वायुयान दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के साथ स्वतंत्रता संघर्ष का यह अध्याय यहीं पर समाप्त हो जाता है
आजाद हिंद फौज पर इतिहासकारों के विचार भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में आजाद हिंद फौज का अपना अलग ही स्थान है
इतिहासकार सुमित सरकार
इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार केवल सैन्य दृष्टि से तो आजाद हिंद फौज का महत्त्व बहुत अधिक नहीं रहा और यदि वह अधिक प्रभावी रही भी होती तो उसका आगमन बहुत देर से हुआ था क्योंकि 1944 तक धुरी शक्तियॉ सर्वत्र पीछे हटी लगी
तात्कालिक उपलब्धि नगण्य होते हुए भी आजाद हिंद फौज के संघर्ष ने गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ा
इसी प्रभाव के माध्यम से उसके वास्तविक महत्त्व को आकां जा सकता है
सुभाष व आजाद हिंद फौज के आलोचक को भी स्वीकार करना पड़ा कि
उनका अनुपम त्याग शौर्य और बलिदान भारतीयों को अपने देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्रेरणा देता रहेगा
इतिहासकार ताराचंद इतिहासकार ताराचंद ने आजाद हिंद फौज के संघर्ष के महत्व पर कई दृष्टि से विचार किया है 1. सर्वप्रथम तो उनके विचार में इस संघर्ष के कारण भारत का प्रश्न ब्रिटिश साम्राज्य के संकुचित दायरे से निकलकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विस्तृत क्षेत्र में चला गया 2. दूसरे उनके अनुसार आजाद हिंद फौज ने भारत के विदेशी शासकों को चेतावनी दी थी कि वह भारत के वेतन भोगी सैनिकों की स्वामी भक्ति पर भारत को अपने अधीन बनाए रखने के लिए भरोसा नहीं कर सकते
इस अहसास में अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए प्रेरित करने में मुख्य भूमिका का निर्वाह किया
0 Comments