निर्माण आठवीं सदी में चित्रांगद मौर्य मेवाड़ शासक ना कि मौर्य शासक द्वारा बनवाया गया बाद में इस पर अधिकांश निर्माण में आधुनिकरण कुंभा ने करवाया चार दिवारी, सात द्वार, विजय स्तंभ, कुंभ, स्वामी मंदिर, कुंभा के महल का मंदिर
कहावत कहा जाता है कि गढ़ तो चित्तौड़गढ़ बाकी सब गढ़ैया राजस्थान का दक्षिण पूर्वी द्वार है यहां पर तीन जोहर व साके हुए हैं पहला 1303 में शासक रतन सिंह पदमनी द्वारा अलाउद्दीन के आक्रमण के समय दूसरा 1534- 35 में शासक विक्रमादित्य कर्मावती अथार्थ कर्णावती विक्रमादित्य की माता इस इस समय गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब कर्मावती ने हुमायु से सहायता हेतु राखी भेजी पर हुमायूं सहायतार्थ नहीं आ सके तीसरा 1567- 68 में उदय सिंह चित्तौड़ का शासन जयमल फत्ता को सौंपकर स्वयं उदयपुर गए तब अकबर के आक्रमण से जयमल फत्ता की किले की रक्षा करते हुए वीरगति होने पर राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया जौहर जो हर केवल महिलाएं अग्नि में कूदकर आत्मोत्सर्ग करते हैं
साका ?जौहर के साथ पुरूष भी केसरिया बाना पहनकर युद्ध करते हुए अपना आत्मोत्सर्ग करते हैं
विजय स्तंभ नौखंड वाला यह स्थान 120 फीट ऊंचा है इसके यह नो खंड नौ निधियों के प्रतीक है इसका निर्माण महाराणा कुंभा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में करवाया था इसके सभी मंजिलों पर विभिन्न देवी देवताओं के चित्र उत्कीर्ण है जो रामायण में महाभारत से संबंधित है इसे हिंदू देवी-देवताओं का अजायबघर कहा जाता है
पद्मिनी महल चित्तौड़ दुर्ग में राणा रतन सिंह की प्रसिद्ध सुंदरी रानी पद्मिनी का महल एक सुंदर जलाशय के मध्य स्थित है चौगान के निकट ही एक झील के किनारे रावल रत्नसिंह की रानी पद्मिनी के महल बने हुए हैं। एक छोटा महल पानी के बीच में बना है, जो जनाना महल कहलाता है व किनारे के महल मरदाने महल कहलाते हैं। मरदाना महल मे एक कमरे में एक विशाल दपंण इस तरह से लगा है कि यहाँ से झील के मध्य बने जनाना महल की सीढियों पर खड़े किसी भी व्यक्ति का स्पष्ट प्रतिबिंब दपंण में नजर आता है, परंतु पीछे मुड़कर देखने पर सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति को नहीं देखा जा सकता अलाउद्दीन खिलजी ने यहीं खड़े होकर रानी पद्मिनी का प्रतिबिंब देखा था। इनके दक्षिण पूर्व में गोरा बादल के महल हैं
राणा बनवीर ने इस दुर्ग पर लघु दुर्ग के रूप में नो कोटा मकान या नव लखा भंडार बनवाया ?जिसका उद्देश्यभीतर किला बनाना था बनवीर की दीवार के पश्चिमी सिरे पर एक अर्द्ध वृत्ताकार अपूर्ण बुर्ज बना है, जिसे बनवीर ने अपनी सुरक्षा व अस्र-शस्र के भण्डार हेतु बनवाया था। इसकी पेंचिदी बनावट को कोई लख (जान) नहीं सकता था। अतः इसे नवलखा भण्डार कहा जाता था। कुछ लोग यह बताते हैं कि यहाँ नौ लाख रुपयों का खजाना रहता था, जिससे इसका नाम नौ लखा भण्डार पड़ा।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग की पूर्वी प्राचीन के निकट एक सात मंजिला जैन कीर्ति स्तंभ है जिसे आदिनाथ का स्मारक माना जाता है इसका निर्माण बघेरवाल जैन जीजा के द्वारा करवाया गया था
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में महाराणा कुंभा द्वारा निर्मित विष्णु के वराह अवतार का मंदिर में नीलकंठ का मंदिर में मीराबाई का मंदिर भी दर्शनीय है कुंभ श्याम के मंदिर के प्रांगण में ही एक छोटा मंदिर है, जिसे कृष्ण दीवानी भांतिमति मीराँबाई का मंदिर कहते हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार पहले यह मंदिर ही कुंभ श्याम का मंदिर था, लेकिन बाद में बड़े मंदिर में नई कुंभास्वामी की प्रतिमा स्थापित हो जाने के कारण उसे कुंभश्याम का मंदिर जानने लगे और यह मंदिर मीराँबाई का मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इस मंदिर के निज भाग में भांतिमति मीरा व उसके आराध्य मुरलीधर श्रीकृष्ण का सुंदर चित्र है। मंदिर के सामने ही एक छोटी-सी छतरी बनी है। यहाँ मीरा के गुरु स्वामी रैदास के चरणचिंह (पगलिये) अंकित हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महाभारत काल में भीम ने इस दुर्ग की पहाड़ी पर घुटने के बल से पानी निकाला था वह स्थान वर्तमान में भीमतल के नाम से प्रसिद्ध है लेकिन कर्नल टॉड के अनुसार यह यह मौर्य वंशीय राजा भीम था?
दुर्ग के पूर्व की ओर सूरज पोल का दरवाजा में दूसरी ओर लाखोटा बारी स्थित है दुर्ग के प्रथम दरवाजेका नाम पाडव पोल पटवनपोल है जिसके बाहर स्थित चबूतरे पर प्रतापगढ़ के ठाकुर बाघसिंह का स्मारक है दूसरा द्वार भैरव पोल कहलाता है जहां जयमल राठौड़ वह तुल्ला राठौड़ की छतरियां है तीसरा द्वार गणेश पोल चौथा द्वार लक्ष्मण पोल है पांचवा द्वारा जोड़नपोल है और इसके पश्चात छटा द्वार रामपोल है जो बड़ा है रामपुर के पास की फतेह सिंह सिसोदिया का स्मारक स्मारक के पास तुलजा माता का मंदिर है
इस दुर्ग में बनवीर द्वारा बनवाया गया अंतर दुर्ग है जिसे कोटा मकान या नवलखा भंडार कहा जाता है
श्रृंगार चौधरी यह मूल रूप से शांतिनाथ का जैन मंदिर हैयहाँ से प्राप्त शिलालेखों से यह ज्ञात होता है कि भगवान शान्तिनाथ की चौमुखी प्रतिमा की प्रतिष्ठा खगतरगच्छ के आचार्य जिनसेन सूरी ने की थी, परंतु मुगलों के आक्रमण से यह मूर्ति विध्वंस कर दी गई लगती है। अब सिर्फ एक वेदी बची है, जिसे लोग चौरी बतलाते हैं। मंदिरों की बाह्य दीवारों पर देवी-देवताओं व नृत्य मुद्राओं की अनेकों मूर्तियाँ कलाकारों के पत्थर पर उत्कीर्ण कलाकारी का परिचायक है
दुर्गा का सातवां द्वार त्रिपोलिया कहा जाता है इसी के पास कुंभा के महान हैं चित्तौड़गढ़ दुर्गचित्तौड़गढ़ दुर्ग में जयमल की हवेली है जिसका निर्माण महाराजा उदयसिंह के काल में हुआ था
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में राजस्थान का प्राचीनतम सूर्य मंदिर है जो वर्तमान में कालिका माता का मंदिर है मूल रूप से यह मंदिर एक सूर्य मंदिर था। निजमंदिर के द्वार तथा गर्भगृह के बाहरी पार्श्व के ताखों में स्थापित सूर्य की मूर्तियाँ इसका प्रमाण है बरसों तक यह मंदिर सूना रहा। उसके बाद इसमें कालिका की मूर्ति स्थापित की गई। मंदिर के स्तम्भों, छतों तथा अन्तःद्वार पर खुदाई का काम दर्शनीय है। महाराणा सज्जनसिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। चूंकि इस मंदिर में मूर्ति प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ल अष्टमी को हुई थी, अतः प्रति वर्ष यहाँ एक विशाल मेला लगता है।
दुर्ग में फतेह प्रकाश महल के पास 11 वीं शताब्दी का बना 27 देवरिया का मंदिर सतबीस देवरिया मंदिर है
भामाशाह की हवेली यह इमारत एक समय मेवाड़ की आनबान के रक्षक महाराणा प्रताप को मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सब कुछ दान करने वाले प्रसिद्ध दानवीर दीवान भामाशाह की याद दिलाने वाली है। कहा जाता है कि हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप का राजकोष खाली हो गया था व मुगलों से युद्ध के लिए बहुत बड़ी धनराशि की आवश्यकता थी। ऐसे कठिन समय में प्रधानमंत्री भामाशाह ने अपना पीढियों से संचित धन महाराणा को भेंट कर दिया। कई इतिहासकारों का मत है कि भामाशाह द्वारा दी गई राशि मालवा को लूट कर लाई गई थी, जिसे भामाशाह ने सुरक्षा की दृष्टि से कहीं गाड़ रखी थी।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में परमार राजा भोज द्वारा बनवाया गया समिद्धेश्वर (समाधीश्वर) महादेव का मंदिर है गौमुख कुण्ड के उत्तरी छोर पर यह भव्य प्राचीन मंदिर है, जिसके भीतरी और बाहरी भाग पर बहुत ही सुन्दर खुदाई का काम है। इसका जीर्णोद्वार महाराजा मुगल ने करवाया नागर शैली के बाहर से अंदर से सादगीपूर्ण है
चितौड़गढ़, वह वीरभूमि है, जिसने समूचे भारत के सम्मुख शौर्य, देशभक्ति एवं बलिदान का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। यहाँ के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए असिधारारुपी तीर्थ में स्नान किया। वहीं राजपूत वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किये। इन स्वाभिमानी देशप्रेमी योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि पूरे भारत वर्ष के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर रह गयी है। यहाँ का कण-कण हममें देशप्रेम की लहर पैदा करता है। यहाँ की हर एक इमारतें हमें एकता का संकेत देती हैं।
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