जैन धर्म (Jainism)

जैन धर्म (Jainism)


जैन धर्म के अनुसार जैन धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं। ये है -
1 ऋषभदेव या आदिनाथ   2 अजितनाथ   3 सम्भवनाथ   4 अभिनन्दन   5 सुमतिनाथ   6 पद्मप्रभु  7 सुपार्शवनाथ   8 चन्द्रप्रभु   9 सुविधिनाथ    10 शीतलनाथ     11 श्रेयांसनाथ       12 वासुपूज्य    13 विमलनाथ     14 अनन्तनाथ      15 धर्मनाथ  16 शान्तिनाथ   17 कुन्दुनाथ   18 अरहनाथ     19 मल्लिनाथ   20 मुनि सुब्रत    21 नेमिनाथ    22 अरिष्टनेमि    23 पार्शवनाथ    24 महावीर स्वामी 

⚜ जैन परम्परा के अनुसार इस धर्म में 24 तीर्थंकर हुए हैं। इनमें प्रथम ऋषभदेव है। किन्तु 23वें तीर्थंकर पार्शवनाथ को छोड़कर पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध हैं।
⚜पार्श्वनाथ का काल महावीर से 250 ई. पू. माना गया है। इनके अनुयायियों को निर्ग्रन्थ कहा जाता था।
⚜जैन अनुश्रतियाँ के अनुसार पार्श्वनाथ को 100 वर्ष की आयु में 'सम्मेद' पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ।
⚜ पार्शवनाथ द्वारा प्रतिपादित चार महाव्रत इस प्रकार हैं - सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय। बाद में महावीर स्वामी ने इसमें ब्रह्मचार्य को ओर जोड़ा । जिससे यह पंचमहाव्रत कहलाये।
⚜ महावीर स्वामी जैनियों के 24वें तीर्थंकर एवं जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक माने जाते हैं।
⚜महावीर का जन्म वैशाली के समीप कुण्डग्राम में ज्ञातृक कुल के प्रधान सिद्धार्थ के यहां 540 ई. पू. में हुआ। माता का नाम त्रिशला जो लिच्छवि राजकुमारी थी तथा इनकी पत्नी का नाम यशोदा था।
⚜यशोदा से जन्म लेने वाली महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का विवाह जामिली नामक एक क्षत्रिय से हुआ। वह महावीर का प्रथम शिष्य था।
⚜30 वर्ष की अवस्था में महावीर ने गृहत्याग कर दिया।
⚜ 12वर्ष की कठोर तपस्या व साधना के बाद 42 वर्ष की अवस्था में महावीर को जुम्भिकग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे एक साल के वृक्ष नीचे कैवल्य (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हुआ।
⚜ कैवल्य प्राप्त हो जाने के बाद महावीर केवलीन, जिन, अर्ह, एवं निर्ग्रन्थ जैसी उपाधियां मिली। 72 वर्ष की आयु में पावा में 468 ई. पू. में निर्वाण प्राप्त हुआ।
⚜जैन धर्म में निर्वाण जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। कर्मफल का नाश तथा आत्मा से भौतिक तत्व हटाने से निर्वाण सम्भव हैं।
⚜ भिक्षुओं के लिए पंच महाव्रत और गृहस्थों के लिए पंच अणुव्रतों की व्यवस्था है। 

⚜ जैन धर्म में ज्ञान को अनेक प्रकार से परिभाषित किया है ➖
? मति - इन्द्रिय जनित ज्ञान
?श्रुति - श्रवण ज्ञान
? अवधि - दिव्य ज्ञान
? मनः पर्याय - अन्य व्यक्तियों के मन मस्तिष्क का ज्ञान
? कैवल्य - पूर्ण ज्ञान
⚜ जैन धर्मानुसार ज्ञान के तीन स्रोत है - 1. प्रत्यक्ष    2. अनुमान  तथा    3. तीर्थंकरों के वचन
⚜ मोक्ष पश्चात जीवन आवागमन के चक्र से छुटकारा पा जाता है तथा वह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है। इन्हें जैन शास्त्रों में अनन्त चतुष्टय की संज्ञा दी गई है।
⚜ स्यादवाद (अनेकान्तवाद) आज अथवा सप्तभंगीनय को ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत कहा जाता है।
⚜ महावीर ने अपने जीवन काल में एक संघ की स्थापना की जिसमें 11 प्रमुख अनुयायी सम्मिलित थे। ये गणधर कहलाये। महावीर के जीवन काल में ही 10 गणधर की मृत्यु हो गयी, महावीर के बाद केवल सुधर्मण जीवित था।

 जैन धर्म की प्रमुख विशेषताएँ 
? जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है किन्तु उनका स्थान जीन से नीचे रखा गया है।
? जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है पर सृष्टिकर्त्ता के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारता हैं।
? बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था की निन्दा नहीं की गई है।
? जैन धर्म पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करता है। उनके अनुसार कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण है।
? जैन धर्म में मुख्यतः सांसारिक बधनों से मुक्ति पाने के उपाय बतायें है।
? जैन धर्म में अहिंसा पर विशेष बल दिया गया है। इसमें कृषि एवं युद्ध में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
? जैन धर्म में सल्लेखना से तात्पर्य है -"उपवास द्वारा शरीर का त्याग ।"
? कालान्तर में जैन धर्म दो भागों में विभाजित हो गया -
1. तेरापन्थी (श्वेताम्बर)
2. समैया  (दिगम्बर)
? भद्रबाहु एवं उनके अनुयायियों को दिगम्बर कहा जाता है। ये दक्षिणी जैनी भी कहे जाते थे।
? स्थुलभद्र एवं उनके अनुयायियों को श्वेताम्बर कहा गया। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोगों ने ही सर्वप्रथम महावीर एवं अन्य तीर्थंकरों की पूजा आरम्भ की। ये सफेद वस्त्र धारण करते थे।
? जैनों के उत्तर भारत में दो प्रमुख केन्द्र उज्जैन एवं मथुरा थे।
? दिलवाड़ा में जैन तीर्थंकरों आदिनाथ व नेमिनाथ आदि के मन्दिर तथा खजुराहों में पार्श्वनाथ आदिनाथ के मन्दिर आदि।
?जैन परम्परा के अनुसार अरिष्टनेमि भागवत धर्म के वासुदेव कृष्ण के समकालीन थे।
? जैनियों के चार शिक्षा, अन्न, चिकित्सा व आवास के सिद्धांत जैनियों में लोकप्रिय थे।
? दक्षिण भारत में गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट व चालुक्य राजाओं ने जैन धर्म को प्रश्रय दिया।
? ऋग्वेद में केवल दो तीर्थंकरों ऋषभदेव व अरिष्टनेमि का उल्लेख मिलता हैं।
? विष्णु पुराण व भागवत पुराण में ऋषभदेव का उल्लेख नारायण के अवतार के रूप में मिलता हैं।
?जैन दर्शन व सांख्य दर्शन में काफी समानताएं हैं।
? कलिंग का राजा खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था। जैन मूर्ति पूजा का पूरा अभिलेखीय साक्ष्य हाथीगुम्फा अभिलेख हैं।
? राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष जैन सन्यासी बन गए। उन्होने ने रत्नमालिका ग्रन्थ की रचना की।

जैन संगीति (सभा) 

? प्रथम सभा - चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में लगभग 300 ई. पू. में पाटलिपुत्र में प्रथम जैन सभा सम्पन्न हुई। इसमें जैन धर्म के प्रधान भाग 12 अंगों का सम्पादन हुआ। यह सभा स्थुलभद्र एवं सम्भुति विजय नामक स्थविरों के निरीक्षण में हुई।
? जैन धर्म दिगम्बर व श्वेताम्बर दो भागों में विभाजित हो गया।

? द्वितीय सभा - यह सभा देवर्धि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में गुजरात के वल्लभी नामक स्थान पर लगभग 513 ईस्वी में सम्पन्न हुई। इसमें धर्म ग्रन्थों का अंतिम संकलन कर इन्हें लिपिबद्ध किया गया।

 स्मरणीय तथ्य 

? जैन धर्म ग्रन्थ अर्द्ध मागधी भाषा में लिखे गए हैं। कुछ ग्रन्थों की रचना अपभ्रन्श में हुई है। बोलचाल की भाषा प्राकृत थी।
? जैन धर्म में तप व अहिंसा पर विशेष बल दिया गया है।
? जैन धर्म का महत्वपूर्ण ग्रन्थ कल्पसूत्र संस्कृत में लिखा गया है।
? जैन धर्म ने वेद की प्रामाणिकता नही मानी तथा वेदवाद का विरोध किया।
? प्रारम्भ में जैन धर्म में मूर्तिपूजा नहीं थी। परन्तु बाद में महावीर भगवान तथा 23  तीर्थंकरों की पूजा आरम्भ हुई।
? महावीर की मृत्यु के बाद जैन संघ का प्रथम अध्यक्ष सुधर्मन था।
? जैन दर्शन हिन्दू सांख्य दर्शन के काफी निकट हैं।
? जैन धर्म में कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न आवश्यक बताया हैं।
? प्रथम जैन संगीति का दक्षिण के जैनों (दिगम्बरों) ने विरोध किया था।
? चम्पा के शासक दधिवाहन की पुत्री चन्दना महावीर की पहली महिला भिक्षुणी थी।
? भगवती सूत्र में जैन तीर्थंकरों के जीवन एवं जैन सिद्धांतो के बारे में उल्लेख मिलता है।

सल्लेखना क्या है? 

? जैन दर्शन के इस शब्द में दो शब्द 'सत्' और 'लेखना' आते हैं जिनका शाब्दिक अर्थ है अच्छाई का लेखा-जोखा करना। जैन दर्शन में सल्लेखना शब्द उपवास द्वारा प्राण त्याग के सन्दर्भ में आया है। अर्थात घोर एवं अनिवार्य उपसर्ग, दुर्भिक्ष, Icon Pickerवृद्धावस्था एवं रोग की स्थिति आ जाने पर और उसका कोई प्रतिकार संभव न हो तो धर्म साधन के लिए सल्लेखनापूर्वक शरीर छोड़ देने के लिए ज्ञानियों
ने प्रेरणा दी है। सुख पूर्वक शोक रहित होकर मृत्यु का वरण ही सल्लेखना है। ई. पू. तीसरी सदी में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने श्रावणबेलगोला में सल्लेखना विधि द्वारा ही अपने शरीर का त्याग किया। सल्लेखना को निष्प्रतीकामरण वयकुण्ठ भी कहा जाता है। 

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