झांसी की रानी लक्ष्मीबाई(Rani Lakshmibai of Jhansi)

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई(Rani Lakshmibai of Jhansi)


इस भारत देश के इतिहास को देखा जाये तो बहुत ही 

सुनहारा इतिहास है जिसमे अनेक घटनाये शामिल है 

जो भारत के इतिहास को गौरवान्वित करता है इसके 

इतिहास मे बहुत ही महत्वपूर्ण घटना या अपने आप मे

यह खुद इतिहास है -- 1857 का स्वतंत्रता संग्रामवैसे तो 

1857 के स्वतंत्रता  के  लिए  अनेक  राजाओं महाराजाओ  

ने  लड़ाइयाँ  लड़ी  और  इस  कोशिश  में  हमारे  देश  की  

वीर  तथा  साहसी  स्त्रियों  ने  भी  उनका  साथ  दिया.

इसी कडी मे एक वीरांगना जिसके लिये सुभद्रा कुमारी ने लिखा है...
"खूब लडी मर्दानी वो तो झासी वाली रानी थी"

शायद ही कोई ऐसा भारतीय हो जो इस वीरांगना का नाम नहीं जानता होगा बच्चा बच्चा भी हमारे देश का जानता है इस महान देशभक्त वीरांगना के बारे में रानी  लक्ष्मीबाई  ने  हमारे  देश  और  अपने  राज्य  झाँसी  की  स्वतंत्रता  के  लिए  ब्रिटिश  राज्य  के  खिलाफ  लड़ने  का  साहस  किया  और  अंत  में  वीरगति  को  प्राप्त  हुई.

शुरुआती जीवन
जन्म--महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवारमे को हुआ
स्थान-काशी
बचपन का  नाम -मणिकर्णिका  ताम्बे
पिता-मोरोपन्त जी
माता - भागीरथी
विवाह के पश्चात-रानी लक्ष्मी बाई नाम रखा गया

पिता  मोरोपंत  ताम्बे जो  बिठुर  में  न्यायलय  में  पेशवा  थे  और  इसी  कारण  वे  इस  कार्य  से  प्रभावित  थी  और  उन्हें  अन्य  लड़कियों  की  अपेक्षाअधिक  स्वतंत्रता  भी  प्राप्त  थी.  उनकी  शिक्षा – दीक्षा  में  पढाई  के  साथ – साथ  आत्मरक्षा,  घुड़सवारी,  निशानेबाजी  और  घेराबंदी  का  प्रशिक्षण  भी  शामिल  था.उन्होंने  अपनी  सेना  भी  तैयार  की   थी.  परिवार  के  सदस्य  प्यार  से उन्हें ‘मनु कहकर  पुकारते  थे.
जब  वे  4  वर्ष   की  थी,  तभी  उनकी  माता  का  देहांत  हो  गया  और  उनके  पालन  पोषण  की  सम्पूर्ण  जवाबदारी  उनके   पिता  पर  आ  गयी

रानी  लक्ष्मीबाई  की विशेषताएँ

  • नियमित योगाभ्यास  करना,

  • धार्मिक कार्यों  में  रूचि,

  • सैन्य कार्यों  में  रूचि  एवं  निपुणता,

  • उन्हें घोड़ो  की  अच्छी  परख  थी,

  • रानी अपनी  का  प्रजा  का  समुचित  प्रकार  से  ध्यान  रखती  थी,

  • गुनाहगारो को  उचित  सजा  देने  की  भी   हिम्मत  रखती  थी.


लक्ष्मी बाई का वैवाहिक जीवन
सन  1842  में  14 वर्ष की उम्र में उनका  विवाह  उत्तर  भारत  में  स्थित  झाँसी  राज्य  के  महाराज  गंगाधर  राव  नेवलेकर  के  साथ  हुआ उनका विवाह प्राचीन झाँसी मे स्थित 'गणेश मन्दिर' मे हुआ था  विवाह  के   पश्चात्  ही  उन्हें  ‘लक्ष्मीबाई  नाम  मिला.  उनका  विवाह  प्राचीन  झाँसी  में  स्थित  गणेश  मंदिर  में  हुआ  सन 1851  में  उन्होंने  एक   पुत्र  को  जन्म  दिया,  जिसका  नाम  दामोदर  राव  रखा  गया  परन्तु  दुर्भाग्यवश  वह  मात्र  4  माह  ही  जीवित  रह  सका.
ऐसा  कहा  जाता  हैं  कि  महाराज  गंगाधर  राव  नेवलेकर  अपने  पुत्र  की  मृत्यु  से  कभी   उभर  ही  नही  पाए  और  सन  1853  में  महाराज  बहुत  बीमार  पड़  गये,  तब  उन  दोनों  ने  मिलकर  अपने  रिश्तेदार [महाराज  गंगाधर राव  के  भाई ] के  पुत्र  को  गोद  लेना  निश्चित  किया.  इस  प्रकार  गोद  लिए  गये  पुत्र  के  उत्तराधिकार  पर  ब्रिटिश  सरकार  कोई  आपत्ति  न  ले,  इसलिए  यह  कार्य  ब्रिटिश  अफसरों  की  उपस्थिति  में  पूर्ण  किया  गया.   इस  बालक  का  नाम  आनंद  राव  था  जिसे  बाद  में  बदलकर  दामोदर  राव  रखा  गया.

रानी लक्ष्मी का उत्तराधिकारी बनना
21  नवम्बर,  सन  1853  में  महाराज  गंगाधर  राव  नेवलेकर  की  मृत्यु   हो  गयी,  उस  समय  रानी  की   आयु  मात्र  18 वर्ष  थी.
परन्तु  रानी  ने  अपना  धैर्य  और  सहस  नहीं  खोया  और  बालक  दामोदर  की  आयु  कम  होने  के कारण  राज्य – काज  का  उत्तरदायित्व  महारानी  लक्ष्मीबाई  ने  स्वयं  पर  ले   लिया. उस  समय  लार्ड  डलहौजी  गवर्नर था.
उस  समय  कुटिल ब्रिटिश अंग्रेजो ने यह  नियम लागू किया था कि  शासन  पर  उत्तराधिकार  तभी  होगा,  जब  राजा  का  स्वयं  का  पुत्र  हो,  यदि  पुत्र  न  हो  तो  उसका  राज्य  ईस्ट  इंडिया  कंपनी  में  मिल  जाएगा  और  राज्य  परिवार  को  अपने  खर्चों  हेतु  पेंशन  दी  जाएगी.
उन्होनेमहाराज  की  मृत्यु  का  फायदा  उठाने  की  कोशिश  की.  वह  झाँसी  को  ब्रिटिश  राज्य  में  मिलाना  चाहता  था.  उसका  कहना  था  कि  महाराज  गंगाधर  राव  नेवलेकर  और  महारानी  लक्ष्मीबाई  की  अपनी  कोई  संतान  नहीं  हैं  और  उसने  इस  प्रकार  गोद  लिए  गये  पुत्र  को  राज्य  का  उत्तराधिकारी  मानने  से  इंकार   कर  दिया.
तब  महारानी  लक्ष्मीबाई  ने  लन्दन  में  ब्रिटिश  सरकार  के  खिलाफ  मुक़दमा  दायर  किया.  पर  वहाँ  उनका  मुकदमा  ख़ारिज  कर  दिया  गया.  साथ  ही  यह  आदेश  भी  दिया  गया  की  महारानी,  झाँसी  के  किले  को  खाली  कर  देऔर  स्वयं  रानी  महल  में  जाकर  रहें,  इसके  लिए  उन्हें  रूपये  60,000/-  की  पेंशन  दी  जाएगी.
परन्तु  रानी  लक्ष्मीबाई  अपनी  झाँसी  को  न  देने  के  फैसले  पर  अडिग  थी.  वे  अपनी  झाँसी  को  सुरक्षित  करना  चाहती  थी,  जिसके  लिए  उन्होंने  सेना  संगठन  प्रारंभ  किया.

संघर्ष  की  शुरुआत :
7 मार्च, 1854को  ब्रिटिश  सरकार  ने  एक  सरकारी  गजट  जारी  किया,  जिसके  अनुसार  झाँसी  को  ब्रिटिश  साम्राज्य  में  मिलने  का  आदेश  दिया गया  था.  रानी  लक्ष्मीबाई  को  ब्रिटिश  अफसर  एलिस  द्वारा  यह  आदेश  मिलने  पर  उन्होंने  इसे   मानने  से  इंकार  कर  दिया  और  कहा -‘ मेरी  झाँसी  नहीं  दूंगी’
अब  झाँसी  विद्रोह  का  केन्द्रीय  बिंदु  बन  गया. रानी  लक्ष्मीबाई  ने  कुछ  अन्य  राज्यों  की  मदद  से  एक  सेना  तैयार  की,  जिसमे  केवल  पुरुष  ही  नहीं,  अपितु  महिलाएं  भी  शामिल  थी;  जिन्हें  युध्द  में  लड़ने  के  लिए  प्रशिक्षण  दिया  गया  था.  उनकी  सेना  में  अनेक   महारथी  भी  थे,  जैसे :  गुलाम  खान,  दोस्त  खान,  खुदा  बक्श,  सुन्दर मुन्दर,  काशी  बाई,  लाला  भाऊ  बक्शी,  मोतीबाई,  दीवान  रघुनाथ  सिंह,  दीवान  जवाहर  सिंह,  आदि.  उनकी  सेना  में  लगभग  14,000  सैनिक  थे.
10  मई,  1857  को  मेरठ  में  भारतीय  विद्रोह  प्रारंभ  हुआ,  जिसका  कारण  था  कि  जो  बंदूकों  की   नयी  गोलियाँ  थी,  उस  पर  सूअर  और  गौमांस  की  परत  चढ़ी  थी.  इससे  हिन्दुओं  की  धार्मिक  भावनाओं  पर  ठेस  लगी  थी  और  इस  कारण  यह  विद्रोह  देश  भर   में  फ़ैल  गया  था .  इस  विद्रोह  को  दबाना  ब्रिटिश  सरकार  के  लिए  ज्यादा  जरुरी  था,  अतः  उन्होंने  झाँसी  को  फ़िलहाल  रानी  लक्ष्मीबाई  के  अधीन  छोड़ने  का  निर्णय  लिया.  इस  दौरान  सितम्बर – अक्टूबर, 1857  में  रानी  लक्ष्मीबाई  को  अपने  पड़ोसी  देशो  ओरछा  और  दतिया  के  राजाओ  के  साथ  युध्द  करना  पड़ा  क्योकिं  उन्होंने  झाँसी  पर  चढ़ाई  कर  दी  थी.
इसके  कुछ  समय  बाद  मार्च, 1858  में  अंग्रेजों  ने सर  ह्यू  रोज  के  नेतृत्व  में झाँसी  पर  हमला  कर  दिया  और  तब  झाँसी  की  ओर  से  तात्या  टोपे  के  नेतृत्व  में  20,000  सैनिकों  के  साथ  यह  लड़ाई  लड़ी  गयी,  जो  लगभग  2  सप्ताह  तक  चली.अंग्रेजी  सेना  किले  की  दीवारों  को  तोड़ने  में  सफल  रही   और  नगर  पर  कब्ज़ा  कर  लिया.  इस  समय  अंग्रेज  सरकार  झाँसी  को  हथियाने  में  कामयाब  रही  और  अंग्रेजी  सैनिकों  नगर  में  लूट  पाट  भी  शुरू  कर  दी.  फिर  भी  रानी  लक्ष्मीबाई   किसी  प्रकार  अपने  पुत्र  दामोदर  राव  को  बचाने  में  सफल  रही.

काल्पी  की  लड़ाई इस  युध्द  में  हार  जाने  के  कारण  उन्होंने   सतत  24  घंटों  में  102  मील  का  सफ़र  तय  किया  और अपने  दल  के  साथ  काल्पी  पहुंची  और  कुछ  समय  कालपी  में  शरण  ली,  जहाँ  वे  ‘तात्या  टोपे’ के  साथ  थी.  तब  वहाँ  के  पेशवा  ने  परिस्थिति  को  समझ  कर  उन्हें  शरण  दी  और  अपना  सैन्य  बल  भी   प्रदान  किया.
22  मई,  1858  को  सर  ह्यू  रोज  ने   काल्पी  पर  आक्रमण  कर  दिया,  तब  रानी  लक्ष्मीबाई  ने  वीरता  और  रणनीति  पूर्वक  उन्हें  परास्त  किया  और  अंग्रेजो  को  पीछे  हटना  पड़ा.*  कुछ  समय  पश्चात्  सर  ह्यू  रोज  ने  काल्पी  पर  फिर  से  हमला  किया  और  इस  बार  रानी  को  हार  का  सामना  करना  पड़ा.
युद्ध  मेंहारने  के  पश्चात्  राव  साहेब  पेशवा,  बन्दा  के  नवाब,  तात्या  टोपे,  रानी  लक्ष्मीबाई  और  अन्य  मुख्य  योध्दा  गोपालपुर   में  एकत्र  हुए.  रानी  ने  ग्वालियर  पर  अधिकार  प्राप्त  करने  का  सुझाव  दिया  ताकि  वे  अपने  लक्ष्य  में  सफल  हो  सके  और  वही  रानी  लक्ष्मीबाई  और  तात्या  टोपे  ने  इस  प्रकार  गठित  एक  विद्रोही  सेना  के  साथ  मिलकर  ग्वालियर  पर  चढ़ाई  कर  दी.  वहाँ  इन्होने  ग्वालियर  के  महाराजा  को  परास्त  किया  और  रणनीतिक  तरीके  से  ग्वालियर  के  किले   पर  जीत  हासिल  की  और  ग्वालियर  का  राज्य  पेशवा  को  सौप  दिया.

रानी लक्ष्मी बाई मृत्यु
17 जून, 1858  में  किंग्स  रॉयल  आयरिश  के  खिलाफ  युध्द  लड़ते  समय  उन्होंने  ग्वालियर  के  पूर्व  क्षेत्र   का  मोर्चा  संभाला.  इस  युध्द  में  उनकी  सेविकाए  तक  शामिल  थी  और  पुरुषो  की  पोषक  धारण  करने  के  साथ  ही  उतनी  ही  वीरता  से  युध्द  भी  कर  रही  थी.  इस  युध्द  के  दौरान  वे  अपने  ‘राजरतन’  नामक  घोड़े  पर  सवार  नहीं  थी  और  यह घोड़ा नया  था,  जो  नहर  के  उस  पार  नही  कूद  पा  रहा  था,  रानी  इस  स्थिति  को  समझ   गयी  और  वीरता  के  साथ  वही  युध्द  करती  रही.  इस  समय  वे  बुरी  तरह  से  घायल  हो  चुकी  थी  और  वे  घोड़े  पर  से  गिर  पड़ी.  चूँकि   वे  पुरुष  पोषक  में  थी,  अतः  उन्हें  अंग्रेजी  सैनिक  पहचान  नही  पाए  और  उन्हें  छोड़  दिया.  तब  रानी  के  विश्वास  पात्र  सैनिक  उन्हें  पास  के  गंगादास  मठ  में  ले  गये  और  उन्हें  गंगाजल  दिया.
तब  उन्होंने  अपनी  अंतिम  इच्छा  बताई  की   कोई  भी  अंग्रेज  अफसर उनकी मृत  देह  को  हाथ न लगाए इस  प्रकार  कोटा  की  सराई  के   पास  ग्वालियर  के  फूलबाग  क्षेत्र  में  उन्हें  वीरगति  प्राप्त  हुई  अर्थात्  वे  मृत्यु  को  प्राप्त  हुई.
ब्रिटिश  सरकार  ने  3  दिन  बाद  ग्वालियर  को  हथिया  लिया.  उनकी  मृत्यु  के  पश्चात्  उनके  पिता  मोरोपंत  ताम्बे  को  गिरफ्तार  कर  लिया  गया  और  फांसी  की  सजा  दी   गयी.
रानी  लक्ष्मीबाई  के  दत्तक  पुत्र  दामोदर  राव  को  ब्रिटिश  राज्य  द्वारा  पेंशन  दी  गयी  और  उन्हें  उनका  उत्तराधिकार  कभी  नहीं  मिला.  बाद  में  राव  इंदौर  शहर  में  बस  गये  और  उन्होंने  अपने  जीवन  का  बहुत  समय  अंग्रेज  सरकार  को मनाने  एवं  अपने  अधिकारों  को  पुनः  प्राप्त  करने  के  प्रयासों  में  व्यतीत  किया.  उनकी  मृत्यु  28 मई, 1906  को  58  वर्ष  में  हो  गयी.
इस  प्रकार  देश  को  स्वतंत्रता  दिलाने  के  लिए  उन्होंने  अपनी  जान  तक  न्यौछावर  कर  दी.
भौतिक शरीर जरुर खत्म हो गया लेकिन वो अपने कर्मो के कारण सदा के लिये अमर हो गयी
हमेशा हमारे दिल मे हमारे मन मे साहस बनकर जीवित रहेन्गी ऐसी देशभक्त साहसी वीरांगना को मेरा शत शत नमन

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