जन्म- 25 सितंबर 1916 जन्म स्थान- नगला चंद्रभान मथुरा (उत्तर प्रदेश) पूरा नाम- पंडित दीनदयाल उपाध्याय उपनाम- दीना राजनीतिक दल- भारतीय जन संघ पेशा- दार्शनिक, अर्थशास्त्री ,समाजशास्त्री, इतिहासकार, पत्रकार , व्यक्तित्व- महान चिंतक, संगठनकर्ता, नितांत सरल और सौम्य स्वभाव राजनीति के अतिरिक्त अन्य क्षेत्र में रुचि- साहित्य में गहरी अभिरुचि पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बचपन बीता- अपने ननिहाल में
पिता का नाम-भगवती प्रसाद उपाध्याय माता का नाम-रामप्यारी पिता का व्यवसाय-रेलवे की नौकरी पिता की मृत्यु-दीनदयाल उपाध्याय की 3 वर्ष की उम्र में माता की मृत्यु-क्षय रोग से 8 अगस्त 1924 पंडित दीनदयाल उपाध्याय की शिक्षापिलानी, आगरा और प्रयाग
गोल्ड मेडल प्राप्त किया- मैट्रिक और इंटरमीडिएट परीक्षा में देश की महत्वपूर्ण परीक्षा उत्तीर्ण की-सिविल सेवा परीक्षा
सिविल सेवा परीक्षा के चयन का त्याग किया- देश प्रेम की भावना के कारण हाईस्कूल की परीक्षा पास की-सीकर जिला (राजस्थान) स्कूल की शिक्षा-जी डी बिरला कॉलेज (पिलानी) स्नातक की शिक्षा- कानपुर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कॉलेज से पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का प्रिय विषय- गणित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े-1937 में कानपुर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए काम करना शुरु किया- 1942 से कॉलेज की शिक्षा पूर्ण की- 1942 में प्रथम श्रेणी में बीए की परीक्षा पास की-1939 में भारतीय जनसंघ का प्रथम महासचिव-पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के लगातार महासचिव बने रहे- दिसंबर 1967 (15साल)तक भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने रहे-1953 से 1968 तक
भारतीय जनसंघ की स्थापना- डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा (1951 में)
पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा लखनऊ में संस्थान की स्थापना- राष्ट्रधर्म प्रकाशन नामक संस्थान की पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा पत्रिका में कार्य किया गया-राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिका- लखनऊ से (1940 के दशक में ) पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा शुरू किए गए समाचार पत्र -पांचजन्य और स्वदेश( दैनिक समाचार) दीनदयाल उपाध्याय द्वारा रचित नाटक- चंद्रगुप्त मौर्य (एक ही बैठक में पूर्ण) पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा लिखी गई जीवनी-शंकराचार्य की जीवनी (हिंदी में ) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद-डॉक्टर के बी हेडगेवार की जीवनी
पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा स्थापित अवधारणा-एकात्म मानववाद की अवधारणा पंडित दीनदयाल उपाध्याय का उद्देश्य- स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्वों दृष्टि प्रदान करना पंडित दीनदयाल उपाध्याय का निधन-11 फरवरी 1968 को मृत्यु का स्थान मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर रेल में
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बचपन
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 में नगला गांव चंद्रभान मथुरा जिला उत्तर प्रदेश में हुआ था इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद और माता का नाम रामप्यारी था इनके पिता रेलवे में नौकरी करते थे इसलिए इनका अधिकतर समय बाहर ही गुजरता था
जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय 3 वर्ष के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी पिता की मृत्यु से दुखी रहने के कारण सर रोग से इनकी माता जी की मृत्यु हो गई थी उस समय पंडित दीनदयाल उपाध्याय 7 वर्ष के थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने 7 वर्ष की उम्र में अपने माता-पिता दोनों को खो दिया था और उनके प्यार से वंचित रह गए थे उनका अधिकतर बचपन का समय इनके ननिहाल धनकिया जयपुर मैं नाना के यहां गुजरा था
इनके छोटे भाई का नाम शिवलाल था इनके छोटे भाई को चेचक की बीमारी हो गई थी इस कारण से 18 मई 1934 को उसका भी निधन हो गया था पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कम उम्र में ही अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखें फिर भी वह अपने दृढ़ निश्चय से जिंदगी में आगे बढ़ते गए और सफलताएं प्राप्त की और अपना संपूर्ण समय देश भक्ति में लगा दिया
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की प्रारंभिक और कॉलेज शिक्षा
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बचपन ज्यादा अच्छा नहीं गुजरा उन्होंने एक सामान्य बच्चे की तरह अपने बचपन को नहीं दिया बल्कि अपने बचपन में आई हुई कठिनाइयों को सबक बनाते हुए अपने निश्चय को मजबूत किया और आगे बढ़ते गए पंडित दीनदयाल उपाध्याय बचपन से ही प्रखर बुद्धि के थे इनका पसंदीदा विषय गणित था यह गणित में सर्वोच्च अंक लाते थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय स्कूल और कॉलेज के अध्ययन के दौरान कई स्वर्ण पदक और प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त किए
इन्होंने अपने स्कूल की शिक्षा जी डी बिरला कॉलेज पिलानी से और स्नातक की शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय के सनातन धर्म कॉलेज से पूरी की पंडित दीनदयाल उपाध्याय का राजस्थान से भी संबंध था पंडित दीनदयाल उपाध्याय की प्रारंभिक शिक्षा गंगापुर से हुई पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पांचवीं कक्षा में कोर्ट गांव में प्रवेश लिया राज घर में उन्होंने 8 वीं और 9 वीं कक्षा की परीक्षा पास की इनकी हाई स्कूल की शिक्षा राजस्थान के सीकर जिले से हुई इसके बाद पंडित दीनदयाल उपाध्याय कॉलेज की पढ़ाई के लिए पिलानी चले गए और वहां से उन्होंने आगे की पढ़ाई जारी करी
सन 1936 में इंटरमीडिएट की परीक्षा में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सर्वाधिक अंक प्राप्त कर एक कीर्तिमान स्थापित किया बिरला कॉलेज में इससे पहले किसी भी छात्र में इतने अधिक अंक प्राप्त नहीं किए थे इस खबर को सुनकर घनश्याम दास बिरला ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय को एक स्वर्ण पदक प्रदान किया
इसके पश्चात पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने बीए की परीक्षा पास करने के लिए कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज में प्रवेश लिया और 1939मैं पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने बीए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने m.a. की परीक्षा पास करने के लिए आगरा में प्रवेश किया लेकिन अपनी चचेरी बहन रमा देवी की मृत्यु वह जाने के कारण वह m.a. की परीक्षा नहीं दे सके
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एक सरकारी प्रतियोगितात्मक परीक्षा दी इस परीक्षा में वह धोती और कुर्ता पहने हुए थे और सर पर टोपी लगाए हुए थे उनके इस तरीके से पहने हुए कपड़ों की वहां पर उपस्थित सुट पहने लोगों ने मजाक उड़ाया और उन्हें पंडित जी कहकर पुकारना शुरू कर दिया
इसी के कारण आगे चलकर लाखों प्रशंसक और अनुयाई आदर और प्रेम से दीनदयाल उपाध्याय को पंडित नाम से संबोधित करने लगे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सिविल परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया लेकिन उन्होंने अपने देश भक्ति के आगे इस परीक्षा के चैन को त्याग दिया पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने पिलानी आगरा और प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का व्यक्तित्व
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का व्यक्तित्व सरल,सोम्य, देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत हमेशा किसी भी परिस्थिति में दूसरों की मदद करना था उनका व्यक्तित्व नेतृत्व के अनगिनत गुणों से युक्त था उच्च कोटि के दार्शनिक थे किसी प्रकार का कोई भी भौतिक माया-मोह उन्हें छू तक नहीं सका पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय विचारक अर्थशास्त्री समाजशास्त्री इतिहासकार और पत्रकार थे
उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माण में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई थी पंडित दीनदयाल उपाध्याय बचपन से ही प्रखर बुद्धि से युक्त और होशियार थे इनकी जन्म कुंडली देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि आगे चलकर यह बालक एक महान विद्वान और विचारक बनेगा इन्होने देश सेवा के कारण विवाह तक नहीं किया इनका सिविल परीक्षा में उच्च स्तर पर चयन हुआ था लेकिन देश प्रेम की भावना के आगे इन्होंने उस चयन को ठुकरा दिया पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रखर विचारक उत्कृष्ट संगठनकर्ता और एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवनपर्यंत अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी और सत्यनिष्ठा को महत्त्व दिया भारतीय जनता पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्त्रोत रहे थे और आज भी हैं
पंडित दीनदयाल उपाध्याय हिंदू राष्ट्रवादी तो थे ही इसके साथ ही भारतीय राजनीति के पुरोधा भी थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार हिंदू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति है पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की अवधारणा को प्रस्तुत किया पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत द्वारा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी लोकतंत्र का आंख बंद कर समर्थन का विरोध किया पंडित दीनदयाल उपाध्याय का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में प्रवेश
पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों से ही समाज सेवा के प्रति अत्यधिक समर्पित थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपनी पढ़ाई पूर्ण करने के बाद भी उन्होंने देश प्रेम के कारण नौकरी नहीं कि
पंडित दीनदयाल उपाध्याय छात्र जीवन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता हो गए थे वह पढाई छोड़ने के तुरंत बाद ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संस्था के प्रचारक बन गए और एक निष्ठ भाव से संघ का संगठन कार्य करने लगे इन्होने मैट्रिक और इंटरमीडिएट दोनों ही परीक्षाओं में गोल्ड मेडल प्राप्त किया इन परीक्षाओं के पास करने के बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए सनातन धर्म कॉलेज कानपुर में प्रवेश लिया
वहां पर इनकी मुलाकात श्री सुंदर सिंह भंडारी, बलवंत महासिंघे जैसे लोगों से हुई इन लोगों के प्रभाव से पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों में रुचि लेने लगे वर्ष 1937 में अपने कॉलेज के समय में पंडित दीनदयाल उपाध्याय कानपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जुड़ गए वहां उन्होंने RSS के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार से बातचीत करके संगठन के प्रति पूरी तरह अपने आपको समर्पित कर दिया
नानाजी देशमुख और श्री भाऊ जुगाडे के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में पंडित दीनदयाल उपाध्याय हिस्सा लेने लगे 1942 में अपने कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने नौकरी करने की जगह और शादी के स्थान पर संघ की शिक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए 40 दिवसीय शिविर में भाग लेने के लिए नागपुर चले गए
भारतीय जनसंघ की स्थापना और पंडित दीनदयाल उपाध्याय का भारतीय जनसंघ से संबंध
भारतीय जनसंघ की स्थापना डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 1951 में की गई थी भारतीय जनसंघ का प्रथम महासचिव पंडित दीनदयाल उपाध्याय को नियुक्त किया गया वह लगातार दिसंबर 1967 (15साल)तक भारतीय जन संघ के महासचिव बने रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय को उत्तर प्रदेश शाखा का पहला महासचिव बनाया गया था पंडित दीनदयाल उपाध्याय की कार्य क्षमता खुफिया गतिविधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉक्टर श्याम प्रसाद मुखर्जी गर्व से कहते हैं कि--यदि मेरे पास 2 दिनदयाल हो तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं लेकिन इसी बीच 1953 में डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का निधन हो गया जिससे पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल उपाध्याय के ऊपर आ गई भारतीय जनसंघ के 14वे वार्षिक अधिवेशन में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को दिसंबर 1967 में कालीकट में जनसंघ अध्यक्ष निर्वाचित किया गया
भारतीय जनसंघ की स्थापना का कारण
1950 में केंद्र में पूर्व मंत्री डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेहरू लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्याग पत्र दे दिया इसके पश्चात लोकतांत्रिक ताकतों का एक सांझा मंच बनाने हेतु विरोधी पक्ष में शामिल हो गए डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओं को संगठित करने का प्रयास किया
इसी कड़ी में आगे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने 21 सितंबर 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और एक नई पार्टी राज्य इकाई भारतीय जनसंघ की नीव डाली भारतीय जनसंघ की स्थापना के पीछे पंडित दीनदयाल उपाध्याय की सक्रिय शक्ति थी और डॉक्टर मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को आयोजित पहले अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी मे संगठन का अद्वितीय और अद्भुत कौशल था और भारतीय जनसंघ की विकास यात्रा में वह ऐतिहासिक दिन आया जब 1968 में विनम्रता की मूर्ति पंडित दीनदयाल उपाध्याय को इस संघ के अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किया गया अपने उत्तरदायित्व के निर्वहन और जनसंख्या देशभक्ति का संदेश लेकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने दक्षिण भारत का भ्रमण किया था
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का मुख्य उद्देश्य
भारतीय जनसंघ के राष्ट्र जीवन दर्शन के निर्माता पंडित दीनदयाल जी का उद्देश्य था की स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्वों दृष्टि प्रदान करना था उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी को जनसंघ आर्थिक नीति के रचनाकार बताया जाता हैआर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है उनका विचार था स्वातंत्रय के इस युग में मानव कल्याण के लिए अनेक विचारधारा को पनपने का अवसर मिला है
इसमें साम्यवाद पूंजीवाद अंत्योदय सर्वोदय आदि मुख्य है लेकिन चराचर जगत को संतुलित स्वस्थ और सुंदर बनाकर मनुष्यमात्र पूर्णता की ओर ले जा सकने वाला एकमात्र प्रक्रम सनातन धर्म द्वारा प्रतिपादित जीवन-विज्ञान जीवन-कला और जीवन-दर्शन है
एकात्म मानववाद की अवधारणा
पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा एकात्म मानववाद की अवधारणा विकसित की गई एकात्म मानववाद की अवधारणा पर आधारित राजनीतिक दर्शन भारतीय जनसंघ (वर्तमान भारतीय जनता पार्टी )की देन है इनके अनुसार एकात्म मानववाद प्रतीक मनुष्य के शरीर मन बुद्धि और आत्मा का एकीकृत कार्यक्रम है
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा कि एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत पश्चिमी अवधारणाओं जैसे व्यक्तिवाद ,लोकतंत्र ,समाजवद ,साम्यवाद और पूंजीवाद पर निर्भर नहीं हो सकता उनका विचार था कि भारतीय मेघा पश्चिमी सिद्धांतों और विचारधाराओं से घुटन महसूस कर रही है परिणाम स्वरुप मलिक भारतीय विचारधारा के विकास और विस्तार में बहुत बाधा आ रही है
पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य और राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सिविल परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया लेकिन अपनी देशभक्ति के आगे उन्होंने इस परीक्षा का त्याग कर दिया इसके पश्चात पंडित दीनदयाल उपाध्याय लखनऊ चले गए वहां जाकर इन्होंने राष्ट्रधर्म प्रकाशन नामक संस्थान की स्थापना की इन्होंने अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए यहां से एक मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म शुरू की
एक साप्ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य इसी के साथ एक दैनिक समाचार पत्र स्वदेश शुरू किया था पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंदर पत्रकारिता तब उजागर हुई जब उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म में 1940 के दशक में कार्य किया उन्होंने यह सभी पत्रिकाएं RSS के कार्यकाल के दौरान शुरू की थी
पत्रकारिता जीवन के दौरान उनके लिखे हुए शब्द आज भी उपयोगी हैं प्रारंभ में पंडित दीनदयाल उपाध्याय समसामयिक विषयों पर वह पॉलिटिकल डायरी नामक स्तंभ लिखा करते थे
लेखक के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय
इसके अतिरिक्त पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक लेखक के रूप में भी पहचाने जाते थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने नाटक चंद्रगुप्त मौर्य की रचना एक ही बैठक में पूर्ण कर दी थी,इन्होंने हिंदी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर के बी हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया
इनकी इसके अतिरिक्त अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में सम्राट चंद्रगुप्त ,जगतगुरु शंकराचार्य ,अखंड भारत क्यों है राष्ट्र जीवन की समस्याएं, राष्ट्रचिंतन,राष्ट्र जीवन की दिशा एकात्म मानववाद ,लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ सिद्धांत और नीति, राष्ट्रीय अनुभूति ,कश्मीर ,अखंड भारत,भारतीय राष्ट्र धारा का पुनः प्रभाव,भारतीय संविधान , इनको भी आजादी चाहिए, अमेरिकी अनाज ,भारतीय अर्थनीति,बेकारी समस्या और हल ,टैक्स या लूट,विश्वासघात , द ट्रू प्लांस,डिवैलुएशन ए ग्रेट कॉल आदी है
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने राजनीतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोड़कर रचनाकारों को सदा के लिए उपयोगी बनाया है पंडित दीनदयाल उपाध्याय के लेखन का केवल एक ही लक्ष्य था भारत की विश्व पटल पर लगातार पुनः प्रतिष्ठा और विश्व विजय होना
भारतीय लोकतंत्र और समाज के प्रति पंडित दीनदयाल उपाध्याय का विचार
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अवधारणा थी कि आजादी के बाद भारत का विकास का आधार अपनी भारतीय संस्कृति हो ना कि अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गई पश्चिमी विचारधारा भारत में लोकतंत्र आजादी के तुरंत बाद स्थापित कर दिया गया था लेकिन पंडित दीनदयाल उपाध्याय के मन में यह आशंका थी कि 90 वर्षों की गुलामी के बाद भारत ऐसा नहीं कर पाएगा
उनका विचार था कि लोकतंत्र भारत का जन्म सिद्ध अधिकार है ना कि अंग्रेजों का एक उपहार वे इस बात पर भी बल दिया करते थे कि कर्मचारियों और मजदूरों को भी सरकार की शिकायतों के समाधान पर ध्यान देना चाहिए उन का विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करना प्रशासन का कर्तव्य होना चाहिए
उनके अनुसार लोकतंत्र को अपनी सीमाओं से बाहर नहीं जाना चाहिए और जनता की राय उनकी विश्वास और धर्म के आलोक में सुनिश्चित करना चाहिए
पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा देश सेवा
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने पढ़ाई पूर्ण करने के बाद ना तो अपनी नौकरी की तरफ ध्यान दिया ना ही अपने घर गृहस्थी की तरफ उन्होंने घर-गृहस्थी की तुलना में देश की सेवा को अधिक श्रेष्ठ माना दीनदयाल उपाध्याय देश सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहते थे उन्होंने कहा था कि हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है केवल भारत ही नहीं माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जाएगा
पंडित जी ने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी रचनात्मकता और विश्लेषणात्मकता से जिया है पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने देश सेवा के लिए देश की सबसे बड़ी परीक्षा सिविल सेवा परीक्षा में हुए चयन को त्याग कर दिया
उन्होंने देश की सेवा के लिए अपने गृहस्थ जीवन की शुरुआत नहीं की वह उम्रभर अविवाहित रहे उन्होंने देश सेवा के लिए छात्र जीवन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रवेश कर लिया था और अपना संपूर्ण जीवन मरते समय तक देश के लिए ही दिया है
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु आज भी एक रहस्य बनी हुई है उनका शरीर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर एक रेल में पाया गया था आज भी यह रहस्य हैं कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मृत्यु किस प्रकार और कैसे हुई थी
19दिसंबर 1967 को दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया था लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था 11 फरवरी 1968 का दिन देश के राजनीतिक इतिहास में एक बेहद दुखद और काला दिन था इस दिन अचानक पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की आकस्मिक मौत की खबर प्राप्त हुई थी
इनकी मृत्यु केवल 52 वर्ष की आयु में हुई थी भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में सभ्यता मुल्क राजनीतिक विचारधारा का प्रचार और प्रसार करते हुए अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिए आज तक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मौत एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनमोल विचार
हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं. माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा
व्यक्ति को वोट दें बटुए को नहीं पार्टी को वोट दें व्यक्ति को नहीं सिद्धांत को वोट दें पार्टी को नहीं
नैतिकता के सिद्धांतों को कोई एक व्यक्ति नहीं बनाता है, बल्कि इनकी खोज की जाती है
भारत में नैतिकता के सिद्धांतों को धर्म के रूप में माना जाता है – यानि जीवन के नियम
जब स्वभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है, तो हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं.
यह जरुरी है कि हम ‘हमारी राष्ट्रीय पहचान’ के बारे में सोचते हैं, जिसके बिना आजादी’ का कोई अर्थ नहीं है.
अपने राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा भारत के मूलभूत समस्याओं का प्रमुख कारण है.
अवसरवादिता ने राजनीति में लोगों के विश्वास को हिला दिया है.
सिद्धांतहीन अवसरवादी लोगों ने हमारे देश की राजनीति का बागडोर संभाल रखा है.
जब अंग्रेज हम पर राज कर रहे थे, तब हमने उनके विरोध में गर्व का अनुभव किया, लेकिन हैरत की बात है कि अब जबकि अंग्रेज चले गए हैं, पश्चिमीकरण प्रगति का पर्याय बन गया है.
पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन शैली दो अलग-अलग चीजें हैं. चूँकि पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है और हम आगे बढ़ने के लिए इसे अपनाना चाहिए, लेकिन पश्चिमी जीवनशैली और मूल्यों के सन्दर्भ में यह सच नहीं है.
पिछले 1000 वर्षों में जबरदस्ती या अपनी इच्छा से, चाहे जो कुछ भी हमने ग्रहण किया है – अब उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता.
मानवीय ज्ञान आम संपत्ति है
आजादी सार्थक तभी हो सकती है जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन जाए.
मानवीय और राष्ट्रीय दोनों तरह से, यह आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के बारे में सोचें.
भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत रूप में देखती है.
जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा उनके पीछे छिपी एकता को खोजने का प्रयास किया है.
हेगेल ने थीसिस, एंटी थीसिस और संश्लेषण के सिद्धांतों को आगे रखा, कार्ल मार्क्स ने इस सिद्धांत को एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया और इतिहास और अर्थशास्त्र के अपने विश्लेषण को प्रस्तुत किया, डार्विन ने योग्यतम की उत्तरजीविता के सिद्धांत को जीवन का एकमात्र आधार माना; लेकिन हमने इस देश में सभी जीवों की मूलभूत एकात्म देखा है.
बीज की एक इकाई विभिन्न रूपों में प्रकट होती है – जड़ें, तना, शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल. इन सबके रंग और गुण अलग-अलग होते हैं. फिर भी बीज के द्वारा हम इन सबके एकत्व के रिश्ते को पहचान लेते हैं.
धर्म के मौलिक सिद्धांत अनन्त और सार्वभौमिक हैं. हालांकि, उनके कार्यान्वयन का समय और स्थान परिस्थितियों के अनुसार भिन्न हो सकती है.
धर्म के लिए निकटतम समान अंग्रेजी शब्द ‘जन्मजात कानून’ हो सकता है. हालाँकि यह भी धर्म के पूरा अर्थ को व्यक्त नहीं करता है. चूँकि धर्म सर्वोच्च है, हमारे राज्य के लिए आदर्श ‘धर्म का राज्य’ होना चाहिए.
शक्ति अनर्गल व्यवहार में व्यय न हो बल्कि अच्छी तरह विनियमित कार्रवाई में निहित होनी चाहिए.
मुसलमान हमारे शरीर का शरीर और हमारे खून का खून हैं.
विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची- बसी हुई है.
संघर्ष सांस्कृतिक स्वभाव का एक संकेत नहीं है बल्कि यह उनके गिरावट का एक लक्षण है.
मानव प्रकृति में दोनों प्रवृत्तियां रही हैं – एक ओर क्रोध और लालच तो दूसरी ओर प्रेम और बलिदान.
अंग्रेजी का शब्द रिलिजन धर्म के लिए सही शब्द नहीं है.
यहाँ भारत में, व्यक्ति के एकीकृत प्रगति को हासिल के विचार से, हम स्वयं से पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की चौगुनी आवश्यकताओं की पूर्ति का आदर्श रखते हैं.
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (मानव प्रयास के चार प्रकार) की लालसा व्यक्ति में जन्मगत होता है और इनमें संतुष्टि एकीकृत रूप से भारतीय संस्कृति का सार है.
जब राज्य में समस्त शक्तियां समाहित होती हैं – राजनीतिक और आर्थिक दोनों – परिणामस्वरुप धर्म की गिरावट होता है.
एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य’,’एक आदर्श’,’एक मिशन’ के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं. यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता.
रिलिजन का मतलब एक पंथ या संप्रदाय है और इसका मतलब धर्म तो कतई नहीं.
धर्म एक बहुत व्यापक अवधारणा है जो समाज को बनाए रखने के जीवन के सभी पहलुओं से संबंधित है.
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