रजिया की मृत्यु (1240 ईस्वी में) और नायब के रूप में बलबन की शक्ति के उत्थान के बीच का काल अमीरों और सुल्तान के बीच सतत संघर्ष का काल था
यद्यपि अमीर इस बात से सहमत हैं कि दिल्ली के सिंहासन पर इल्तुतमिश के किसी वंशज को ही बिठाया जाए लेकिन वह समस्त शक्ति और अधिकार अपने हाथों में रखना चाहते थे
इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद शक्ति के लिए जो संघर्ष सुल्तान और तुर्की गुलाम सरदारों के गुट में हुआ उसमें तुर्की गुलाम सरदारों की जीत हुई
जिसमें रजिया तबरहिंद के दुर्ग में बंद थी दिल्ली के विद्रोही अमीरों ने इल्तुतमिश के तीसरे पुत्र बहरामशाह को गद्दी पर बिठा दिया
बहराम 21 अप्रैल 1240 ईस्वी को लाल महल में सिंहासन पर बैठा
रजिया का पदच्युत होना वास्तव में तुर्की गुलाम सरदारों की विजय थी
रजिया की स्वतंत्र रूप से शासन करने की नीति से अमीर अधिकारी यह अनुभव करने लगे थे कि शासन की वास्तविक शक्ति उन्ही में से किसी एक के हाथ में रहनी चाहिए सुल्तान का शासन पर कोई प्रभावशाली नियंत्रण ना रखा जाए
अपनी शासन सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए तुर्क अधिकारियों ने नाइब-ए-मामलिकात(मुमलकत)का एक नया पद सृजित किया
यह पद एक संरक्षक के समान था सर्वप्रथम इसके लिए एतगीन को चुना गया
बहराम शाह को इस शर्त पर गद्दी पर बैठाया गया कि वह शासन का संपूर्ण अधिकार नाइब को सौंप दे और एतगीन को अपना नाइब स्वीकार कर ले
अतः बहरामशाह ने एथीन को अपना नाइब स्वीकार कर लिया
वजीर का पद मुहाजबुद्दीन के पास ही रहा इस प्रकार वास्तविक शक्ति और सत्ता के अब 3 दावेदार थे
1-सुल्तान
2-नायक और
3-वजीर।
मिनहाज के अनुसार मोईनुद्दीन बहराम शाह में अनेक सराहनीय गुण थे किंतु साथ ही वह बड़ा अत्याचारी और रक्त पात करने वाला शासक था
सुल्तान बनने के 2 माह पश्चात् ही उसने यह सिद्ध कर दिया कि तुर्की सरदारों ने उसे पूर्णतया असहाय समझ कर भूल की थी
एतगीन ने नायब बनने के बाद शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली
एतगीन ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए उसने इल्तुतमिश की तलाकशुदा पुत्री( बहराम शाह की बहन) से विवाह कर लिया और अपने दरवाजे पर नौबत और हाथी रखना प्रारंभ कर दिया
यद्यपि यह विशेषाधिकार केवल सुल्तान के पास ही थे
एतगीन की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं से बहरामशाह इतना असंतुष्ट हो गया कि 2 माह के अंदर यह दफ्तर में उसका वध करा दिया गया
एतगीन की मृत्यु के बाद उसने नायब के सभी अधिकारों को अपने हाथ में ले लिया था
मुइजुद्दीन बहराम ने बद्रुद्दीन शंकर रुमी को अपना अमीर ए हाजिब नियुक्त किया
लेकीन कुछ दिन पश्चात उस पर संदेह करने लगा बद्रुद्दीन यह सुनकर सुल्तान से आशंकित रहने लगा
शहर के कुछ धर्माधिकारियों के साथ मिलकर वह बहरामशाह को हटाने का षड्यंत्र करने लगा
लेकिन वजीर मुहजबुद्दीन ने इसकी सूचना सुल्तान को दे दी थी, सुल्तान ने शीघ्रता से कार्य वाही कर षड्यंत्रकारियों को पकड़ लिया
परंतु उन्हें कठोर दंड नहीं दिया क्योंकि वह अपनी दुर्बलता से अवगत था,उसने या तो विद्रोहियों का स्थानांतरण कर दिया ,या उन्हें पदच्युत कर दिया
बद्रुद्दीन को अमीर ए हाजिब के पद से हटाकर बदायूं का इक्तादार बना कर भेज दिया गया
काजी जलालुद्दीन काशनी को काजी के पद से हटा दिया गया
चार माह पश्चात बद्रुद्दीन रूमी आया लेकिन उसे कैद कर कारागार में डाल दिया गया,बाद में सैय्यद ताजुद्दीन अली मुसबी की हत्या कर दी गई
इन दोनों की हत्या से अमीर भयभीत हो गए और अपनी सुरक्षा के लिए सावधान हो गए
वजीर मुहज्जबुद्दीन ने सुल्तान बहराम शाह को सिहासन से हटाने का निश्चय किया
☄?मंगोल आक्रमण ?☄
बहरामशाह के शासनकाल में 1241 ईसवी में तायर के नेतृत्व में मंगोलों ने भारत पर आक्रमण किया
उस का प्रथम निशाना मुल्तान था लेकिन मुल्तान के प्रांताध्यक्ष कबीर खॉ एयाज के विरोध के कारण सफल नहीं हुए
मुल्तान पर बिना अधिकार के मंगोल लाहौर की ओर आगे बढ़े और दिसंबर 1241 ईस्वी में उस पर अधिकार कर लिया
सुल्तान ने वजीर मुहज्बुद्दीन को अन्य अमीरों के साथ मंगोलों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा
मुहज्बुद्दीन को इसी अवसर की प्रतीक्षा थी उसने तुर्क अमीरों को सुल्तान के विरुद्ध भड़काने के लिए एक चाल चली
इस संबंध में सुल्तान को पत्र लिखकर इस आशय का फरमान प्राप्त कर लिया, जिसमें सुल्तान ने तुर्क अमीरों की हत्या करने को कहा था जो स्वामी भक्त नहीं थे
मुहज्जबुद्दीन अपनी चाल में सफल रहा ,तुर्की सरदारों ने विद्रोह कर दिया और सुल्तान को सिन्हासन से हटाने के लिए दिल्ली की ओर कुच किया
बहरामशाह के कुछ वफादार गुलामों और दिल्ली के नागरिकों ने विद्रोही सेना का मुकाबला किया लेकिन पराजित हुए
बहरामशाह को बंदी बना लिया गया और मई 1242 ईस्वी में उस का वध कर दिया गया
बहरामशाह को बंदी बनाने के बाद तुर्क सरदार किश्लु खॉ ने दिल्ली में सबसे पहले प्रवेश किया और महल पर अधिकार किया
उसने अपने आप को सुल्तान बनाने का प्रयत्न किया लेकिन तुर्की सरदार इसके लिए तैयार नहीं हुए
अंत में रुकनुद्दीन फिरोज शाह के पुत्र अलाउद्दीन मसूद शाह को सुल्तान बनाया गया
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