रबीन्द्रनाथ ठाकुर( Rabindranath thakur)

रबीन्द्रनाथ ठाकुर( Rabindranath thakur)


भारत जैसे महान देश के अनेक रचनाकारो/महापुरुषों से सभी परिचित होंगे रामधारी सिंह दिनकर, तुलसीदास, कबीरदास,भीमराव आंबेडकर , स्वामी विवेकानंद , सुुभाष चंद्र बोस,राजगुरु, गुरु नानक जी , महात्मा गाँधी , सरदार वल्लभ भाई पटेल...आदि कई रचनाकारों/महापुरुषों ने देश के लिये अपना "आरम्भिक से अंतिम समय" समर्पित किया है!! तो इसी कडी मे हम बात करते रविन्द्रनाथ टैगोर ज़ी की

⭕पूरा नाम:रबीन्द्रनाथ ठाकुर
अन्य नाम:रबीन्द्रनाथ टैगोर, गुरुदेवज
जन्म::7 मई, 1861
जन्म भूमि:कलकत्ता, पश्चिम बंगाल
मृत्य:7 अगस्त, 1941
⭕मृत्यु स्थान:कलकत्ता, पश्चिम बंगाल
अभिभावक:देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी
पत्नी:मृणालिनी देवी
कर्म भूमि:पश्चिम बंगाल
कर्म-क्षेत्र:साहित्य की सभी विधाएँ

मुख्य रचनाएँ:
राष्ट्र-गान जन गण मन और  बांग्लादेश का राष्ट्र-गान ('आमार सोनार बांग्ला') गीतांजलि', पोस्टमास्टर, मास्टर साहब, गोरा, घरे-बाइर

विषय:साहित्य

⭕भाषाहिन्दी, अंग्रेज़ी, बांग्ला

विद्यालय:सेंट ज़ेवियर स्कूल, लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय

पुरस्कार-उपाधि:सन 1913 ई. में 'गीतांजलि' के लिए नोबेल पुरस्कार, नाइटहुड (जलियाँवाला काँड के विरोध में उपाधि वापिस की)विशेष योगदानराष्ट्र गान के रचयिता

नागरिकता:भारतीय

अन्य जानकारी:1901 में टैगोर ने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शांतिनिकेतन में एक प्रायोगिक विद्यालय की स्थापना की।

जहाँ उन्होंने भारत और पश्चिमी परंपराओं के सर्वश्रेष्ठ को मिलाने का प्रयास किया. . . . .

आइये अब जानते है विस्तार से

रबीन्द्रनाथ ठाकुर  एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे।

बांग्ला साहित्य को शिखर पर आसीन करने का श्रेय रविन्द्रनाथ जी को प्राप्त है उन्होंने अपने काव्य संग्रह लिखे है जिनमें उपन्यास,निबन्ध,कहानिया आदि प्रमुख है। रविन्द्रनाथ जी ने अनेक शक्तिशालि राजनीतिक लेख भी लिखे, जिसके कारण उस समय कुछ राजनीतिक परिवर्तन भी नजर आया। रविन्द्रनाथ को कविता रचना करने का काफी शोक था।
कवि रविन्द्र के जीवन में न केवल कविता ही घुली-मिली थी बल्कि साहित्य सभ्यता,कला और शिक्षा का  भी उनमे अदभुत समन्वय था।
अपने लेखो में उन्होंने प्रचलित राजनीतिक विचारधारा के प्रति असहमति प्रकट की। उनका विचार था कि वास्तविक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए ह्रदय परिवर्तन,आंतरिक शुद्धि और साथ ही आद्धोपान्त सामाजिक कार्यक्रम स्वीकार करके तद्नुसार कार्य करना आवश्यक है।

भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है।

जीवन परिचय

रबीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई, 1861 कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता)के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के पुत्र के रूप में एक संपन्न बांग्ला परिवार में हुआ था। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ ।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री टैगोर सहज ही कला के कई स्वरूपों की ओर आकृष्ट हुए जैसे- साहित्य, कविता, नृत्य और संगीत
दुनिया की समकालीन सांस्कृतिक रुझान से वे भली-भाँति अवगत थे। साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में टैगोर की चित्रकला यात्रा शुरू हुई। यह उनके कवित्य सजगता का विस्तार था। हालांकि उन्हें कला की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी उन्होंने एक सशक्त एवं सहज दृश्य शब्दकोश का विकास कर लिया था। श्री टैगोर की इस उपलब्धि के पीछे आधुनिक पाश्चात्य, पुरातन एवं बाल्य कला जैसे दृश्य कला के विभिन्न स्वरूपों की उनकी गहरी समझ थी।

शिक्षा

रबीन्द्रनाथ टैगोर की स्कूल की पढ़ाई प्रतिष्ठित सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। टैगोर ने बैरिस्टर बनने की चाहत में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन पब्लिक स्कूल में नाम दर्ज कराया। उन्होंने लंदन कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री हासिल किए ही वापस आ गए। रबीन्द्रनाथ टैगोर को बचपन से ही कविताऐं और कहानियाँ लिखने का शौक़ था। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर एक जाने-माने समाज सुधारक थे। वे चाहते थे कि रबीन्द्र बडे होकर बैरिस्टर बनें। इसलिए उन्होंने रबीन्द्र को क़ानून की पढ़ाई के लिए लंदन भेजा। लेकिन रबीन्द्र का मन साहित्य में ही रमता था। उन्हें अपने मन के भावों को काग़ज़ पर उतारना पसंद था। आख़िरकार, उनके पिता ने पढ़ाई के बीच में ही उन्हें वापस भारत बुला लिया और उन पर घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ डाल दीं। रबीन्द्रनाथ टैगोर को प्रकृति से बहुत प्यार था। वे गुरुदेव के नाम से लोकप्रिय थे। भारत आकर गुरुदेव ने फिर से लिखने का काम शुरू किया।

रचनाए

रबीन्द्रनाथ ठाकुर एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। जिन्हें 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। टैगोर ने बांग्ला साहित्य में नए गद्य और छंद तथा लोकभाषा के उपयोग की शुरुआत की और इस प्रकार शास्त्रीय संस्कृत पर आधारित पारंपरिक प्रारूपों से उसे मुक्ति दिलाई। धर्म सुधारक देवेन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र रबींद्रनाथ ने बहुत कम आयु में काव्य लेखन प्रारंभ कर दिया था। 1870 के दशक के उत्तरार्द्ध में वह इंग्लैंड में अध्ययन अधूरा छोड़कर भारत वापस लौट आए। भारत में रबींद्रनाथ टैगोर ने 1880 के दशक में कविताओं की अनेक पुस्तकें प्रकाशित की तथा मानसी (1890) की रचना की। यह संग्रह उनकी प्रतिभा की परिपक्वता का परिचायक है। इसमें उनकी कुछ सर्वश्रेष्ठ कविताएँ शामिल हैं, जिनमें से कई बांग्ला भाषा में अपरिचित नई पद्य शैलियों में हैं। साथ ही इसमें समसामयिक बंगालियों पर कुछ सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्य भी हैं।

दो-दो राष्ट्रगानों के रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर के पारंपरिक ढांचे के लेखक नहीं थे। वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं- भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बांग्ला  गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।

रचनाओ का संग्रह

मुख्य लेख : रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कृतियाँ
बचपन से ही उनकी कविता, छन्द और भाषा में अद्भुत प्रतिभा का आभास लोगों को मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी और 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूँकने वाले युगदृष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि शामिल हैं। देश और विदेश के सारे साहित्य, दर्शन, संस्कृति आदि उन्होंने आहरण करके अपने अन्दर समेट लिए थे। पिता के ब्रह्म-समाजी के होने के कारण वे भी ब्रह्म-समाजी थे। पर अपनी रचनाओं व कर्म के द्वारा उन्होंने सनातन धर्म को भी आगे बढ़ाया।

मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं के अन्दर वह अलग-अलग रूपों में उभर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई शाखा हो, जिनमें उनकी रचना न हो - कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला - सभी विधाओं में उन्होंने रचना की।

उनकी प्रकाशित कृतियों में-

गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अंग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा पूरे विश्व में फैली।

एक नजर परिवारिक सम्बंध
उनके सबसे बड़े भाई द्विजेन्द्रनाथ एक दार्शनिक और कवि थे। उनके एक दूसरे भाई सत्येन्द्रनाथ टैगोर इंडियन सिविल सेवा में शामिल होने वाले पहले भारतीय थे। उनके एक और भाई ज्योतिन्द्रनाथ संगीतकार और नाटककार थे। उनकी बहन स्वर्नकुमारी देवी एक कवयित्री और उपन्यासकार थीं। पारंपरिक शिक्षा पद्धति उन्हें नहीं भाती थी इसलिए कक्षा में बैठकर पढना पसंद नहीं था।

वह अक्सर अपने परिवार के सदस्यों के साथ परिवार के जागीर पर घूमा करते थे। उनके भाई हेमेंद्रनाथ उन्हें पढाया करते थे। इस अध्ययन में तैराकी, कसरत, जुडो और कुश्ती भी शामिल थे। इसके अलावा उन्होंने ड्राइंग, शरीर रचना, इतिहास, भूगोल, साहित्य, गणित, संस्कृत और अंग्रेजी भी सीखा।
1902 तथा 1907 के मध्य में उनकी पत्नी और 2 संतानों की मृत्यु का दर्द इसके बाद की रचनाओं में साफ झलकता है

एक नजर उनकी कुछ बाते
आपको ये जानकार हैरानी होगी कि औपचारिक शिक्षा उनको इतनी नापसंद थी कि कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में वो सिर्फ एक दिन ही गए
उन्होंने अपनी पहली कविता 8 साल की छोटी आयु में हीं लिख डाली थी
टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच में हमेशा वैचारिक मतभेद रहे, इसके बावजूद वे दोनों एल-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे

1905 के बंग भंग के बाद टेगोर जी राष्ट्रीय आंदोलनों में खुलकर भाग लेने लगे
उनका प्रसिद्ध काव्य संग्रह "काव्य-काहिनी" उस समय प्रकाशित हुआ जब वे इंग्लैंड में थे। तब टेगोर जी की कविताये 'भारती' में छप रही थी।
1881 में वे पहली बार एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में जनता के सामने उपस्थित हुए थे।
जून 1915 में सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की।

विभिन्न विश्वविद्यालयो ने उन्हें  "डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर" की सम्मानसूचक उपाधियों से विभूषित किया। जबकि उन्होंने किसी विश्वविद्यालयो में शिक्षा प्राप्त नही की थी
1918 में रोलट एक्ट के बाद सरकार की घोर दमनकारी नीति के कारण टेगोर जी ने अपनी 'सर' की उपाधि का परित्याग कर दिया।

यात्रायें

सन 1878 से लेकर सन 1932 तक उन्होंने 30 देशों की यात्रा की। उनकी यात्राओं का मुख्य मकसद अपनी साहित्यिक रचनाओं को उन लोगों तक पहुँचाना था जो बंगाली भाषा नहीं समझते थे। प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि विलियम बटलर यीट्स ने गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद का प्रस्तावना लिखा। उनकी अंतिम विदेश यात्रा सन 1932 में सीलोन (अब श्रीलंका) की थी।
अपने उपनयन संस्कार के बाद रविंद्रनाथ अपने पिता के साथ कई महीनों के भारत भ्रमण पर निकल गए। हिमालय स्थित पर्यटन-स्थल डलहौज़ी पहुँचने से पहले वह परिवार के जागीर शान्तिनिकेतन और अमृतसर भी गए। डलहौज़ी में उन्होंने इतिहास, खगोल विज्ञान, आधुनिक विज्ञान, संस्कृत, जीवनी का अध्ययन किया और कालिदास के कविताओं की विवेचना की

इसके पश्चात रविंद्रनाथ जोड़ासाँको लौट आये और सन 1877 तक अपनी कुछ महत्वपूर्ण रचनाएँ कर डाली

 शान्तिनिकेतन 

प्रकृति प्रेमी टैगोर ने पेड़-पौधों की आंचल में शान्तिनिकेतन की स्थापना की शांति निकेतन को सरक सहयोग
उन्होंने जीवन की हर सच्चाई को सहजता के साथ स्वीकार किया और जीवन के अंतिम समय तक सक्रिय रहे
प्रकृति प्रेमी टैगोर ने पेड़-पौधों की आंचल में शान्तिनिकेतन की स्थापना की
शांति निकेतन को सरक सहयोग
टैगोर को बचपन से ही प्रकृति का सान्निध्य बहुत भाता था। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में सियालदह छोड़कर आश्रम की स्थापना करने के लिए शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की।

रवीन्द्र जी के संगीत

टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएँ तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं।

दर्शन

गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। टैगोर और महात्मा गान्धी के बीच राष्ट्रीयता और मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां गान्धी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे। लेकिन दोनों एक दूसरे का बहुत अधिक सम्मान करते थे। टैगोर ने गान्धीजी को महात्मा का विशेषण दिया था। एक समय था जब शान्तिनिकेतन आर्थिक कमी से जूझ रहा था और गुरुदेव देश भर में नाटकों का मंचन करके धन संग्रह कर रहे थे। उस वक्त गान्धी जी ने टैगोर को 60 हजार रुपये के अनुदान का चेक दिया था।

जीवन के अन्तिम समय 7 अगस्त 1941 के कुछ समय पहले इलाज के लिए  उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया गया ।

सम्मान

उनकी काव्यरचना गीतांजलि के लिये उन्हे सन् 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।

रविन्द्रनाथ टैगोर जी के दार्शनिक चिंतन एवं वर्तमान संदर्भ में शिक्षा की प्रांसगिता-एक अध्ययन
परिचय
मानव शुरु से ही चिन्तनशील प्राणी रहा है।  ये चिंतन ही दर्शन का मूल है।  कोई भी चिन्तन कितना ही प्राचीन क्यों न हो उसकी उपादेयता कभी समाप्त नहीं होती।  शिक्षा और दार्शनिक चिंतन में अविछिक संबंध है। दर्शन हमारे जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करता है।  शिक्षा उस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन है।  रविन्द्रनाथ टैगोर आधुनिक युग के एक महान् दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री थे।  अपने मौलिक एवं नये विचारों के द्वारा भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।  अपनी भारतीय संस्कृति के आधार पर ये केवल भारतीय शिक्षा की नींव ही नहीं डाली वरन् पाश्चात्य शिक्षा में भी पूर्व एवं पश्चिम के आदर्शों को नये रूप में स्थापित किया।  इनके इन्हीं महान् कार्यों के कारण ‘गरूदेव‘ (राष्ट्रपिता ने) की उपाधि से सम्मानित किया गया।
इन्होंने अपने संदेश में शिक्षा को प्राकृतिक वातावरण में दिये जाने पर बल दिया। अतः ये प्रकृतिवादी शिक्षा के पक्षधर थे।
टैगोर ने शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृति को विशेष महत्व दिया है।  इनका कहना था कि बालक को पुस्तक के स्थान पर जहाॅं तक संभव हो सकें, प्रत्यक्ष स्रोतों से ज्ञान प्राप्त करने का अवसर प्रदान किये जाने चाहिये।  इन्होंने सर्वोच्च शिक्षा उसे कहाॅं है जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सांमजस्य स्थापित करती है।  अध्ययन अध्यापन के लिये ये स्वतंत्र एवं प्राकृतिक वातावरण को उपयुक्त एवं श्रेष्ठ समझते थ,े इसलिये इन्होंने 1901 में बोलपुर नामक स्थान पर ‘शांति निकेतन‘ नाम से एक विद्यालय की स्थापना की जो आज ‘विश्वभारती‘ विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध है।  शांति निकेतन में ही रहकर इन्होंने ‘गीतांजलि‘ नामक रचना लिखी।  जिस पर 1912 में इन्हें ‘नोबेल पुरूस्कार‘ प्राप्त हुआ। टैगोर नोबेल पुरूस्कार प्राप्त करने वाले पहले भारतीय थे।  इनके अतिरिक्त इन्होंने अनेक पुस्तकों की रचना की, अनेकों देशों का भ्रमण किया तथा विभिन्न विश्वविद्यालय में व्याख्यान दिया जिससे इनकी ख्याति में और भी अधिक वृद्धि हुई।  टैगोर ने भारत के
बौद्धिक, कलात्मक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक आदि विभिन्न क्षे़त्रों को प्रभावित किया, इनका व्यक्तित्व महान् था, विलक्षण था।

शोध की आवश्यकता एवं महत्व
वर्तमान समय में शिक्षा का गिरता हुआ स्तर जिससे पूरा समाज ग्रसित है खासकर विद्यार्थी वर्ग इससे सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है, उनमें अनुशासनहीनता अकर्मव्यता, उद्दण्डता आदि निरन्तर बढ़ते जा रही है।  वर्तमान परिवेश में चारों तरफ अव्यवस्था व्याप्त है।  व्यक्ति के चरित्र का हनन हो रहा है।  गिरते हुये नैतिक स्तर का कारण भी हमारी शिक्षा व्यवस्था है।  शिक्षा की सार्थकता को बढ़ाने में रविन्द्रनाथ टैगोर जी का आधुनिक दृष्टिकोण अनुकरणीय है।

पं. नेहरु ‘‘शिक्षा संतुलित मानव का विकास करती है।‘‘  शिक्षा के माध्यम् से ही हम देश के भावी पीढ़ी को सही दिशा की ओर मोड़ सकते है।
इसीलिये वर्तमान परिस्थिति में रविन्द्रनाथ टैगोर के दार्शनिक चिन्तन एवं शिक्षा के प्रति आधुनिक दृष्टिकोंण की प्रासंगिकता का अध्ययन आवश्यक है।

शोध समस्या
वर्तमान समाज में मानवीय मूल्यों का निरंतर हास होता जा रहा है।  विद्यार्थियों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति, शिक्षकों को कर्तव्यहीनता एवं शिक्षा की उद्देश्यहीनता हमारे चिंता का विषय है।  वर्तमान समाज की शिक्षा व्यवस्था को एक अच्छे मार्ग दिखाने की आवश्यकता है जो मानव का चहुॅंमुखी विकास कर सकें।  इस संदर्भ में रविन्द्रनाथ टैगोर जी शिक्षा के प्रणेता तथा उनके क्रांतिकारी विचार विश्व के लिये एक प्रेरणा के स्रोत है।  टैगोर ने मानव जीवन के सभी पहलुओं का अध्ययन किया एवं इन्होंने मनुष्य को सर्वोच्च स्थान दिया ।  ये मनुष्य को ईश्वर का रूप मानते है।  अतः वर्तमान संदर्भ में टैगोर के दार्शनिक चिंतन एवं शिक्षा का मनुष्य एवं प्रकृति के साथ अटूट संबंध ही शोध की समस्या है।

परिणाम एवं चर्चा

रविन्द्रनाथ जी का दार्शनिक चिंतन एवं शिक्षा सम्पूर्ण मानव जाति के लिये है, उनकी शिक्षा सार्वभौमिक तथा उन मानवीय मूल्यों को प्रतिपादित करती है, जिनकी उपादेयता सभी के लिये है यदि बालक को एक आदर्श नागरिक बनाना है, हमें उसमें अच्छे संस्कार, विचारों में परिवर्तन, परिमार्जन तथा परिवर्धन लाना होगा।  हमें रविन्द्रनाथ जी के दार्शनिक चिंतन को अपने शैक्षिक पृष्ठभूमि में अत्मसात् करना होगा।

टैगोर के अनुसार बालक को केवल पाठ्य-पुस्तकों का ही अध्ययन नहीं करना चाहिये वरन् सभी स्रोतों से सीधे ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।  टैगोर की शिक्षा हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाती है।  नैतिकता के अभाव में कोई भी व्यक्ति , समाज या राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता।  यह नैतिकता हमें अच्छें अनुशासन से मिलती है।  टैगोर बालक को कठोर दण्ड देने के विरोधी है।  इन्होंने अनुशासन को एक नैतिक मूल्य या आदर्श माना है।  टैगोर ने अनुशासन के अर्थ को स्पष्ट करते हुये कहते है- ‘‘वास्तविक अनुशासन का अर्थ है अपरिपक्व एवं स्वाभाविक आवेगों की अनुचित उत्तेजना और दिशाओं में विकास से सुरक्षा, स्वाभाविक अनुशासन की इस स्थिति में रहना छोटे बच्चों के लिये सुखदायक है।  यह उनके पूर्ण विकास में सहायक होता है।‘‘

टैगोर ने समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिये एक ऐसी शिक्षा की संकल्पना की जो मानव का पूर्ण एवं संतुलित विकास करें जिसमें समाज एवं राष्ट्र दोनों की प्रगति हो।  जिसके लिये उन्होंने अपने समय की क्रमबद्ध तथा निष्क्रिय शिक्षा का विरोध किया और बताया कि सभी शिक्षा का उद्देश्य यह होना चाहिये कि वह बालक को जीवन तथा विश्व के स्वर के मिलन से पूर्णतया अवगत् कराये तथा दोनों के मेल के मध्य संतुलन स्थापित करें।  टैगोर ने इस आदर्श को अपने विश्व-भारती में पूरा किया।

टैगोर ने विद्यार्थी जीवन को बहुत पवित्र माना है।  विद्यार्थियों में शिक्षण के दौरान कुछ अवश्य गुणों की अपेक्षा की है
1 व्यवहार में विनम्रता 2 आचरण में व्यवस्था और स्वच्छता 3 नियमों और आज्ञाओं का का पालन 4 शरीर एवं वातावरण की सफाई 5 व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन मंे अनुशासन 6 आत्मानुभूमि आदि।  इनमें से अधिकांश नियम आज भी उपयोगी है, जिनका पालन करके विद्यार्थी समाज व राष्ट्रके सभी नागरिक बन सकते है। टैगोर के समय में भी सदाचार एवं संयम पर विशेष बल दिया जाता था।  आज गुरु एवं शिष्य के बीच बढ़ रही दूरी चिंता का विषय है।  शिक्षक केवल वेतन भोगी बनकर रह गया है, शिष्य ने शिक्षक के प्रति शिष्टाचार व सम्मान को तिलांजलि दे दी है,
है, इसके लिये जिम्मेदार हमारी शिक्षा प्रणाली है, अतः हमें ऐसी शिक्षा की जरूरत है जो बालकों में अच्छी भावना को जन्म दे सकें।  इसके लिये टैगोर ने शिक्षक को अपनी शिक्षा व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान दिया है।

टैगोर के अनुसार

‘‘शिक्षा केवल शिक्षक के द्वारा ही दी जा सकती है, शिक्षण विधि के द्वारा नहीं।‘‘  शिक्षक में सेवा, त्याग, सहयोग, लगन, प्रसन्नता, कर्तव्यपरायणता आदि गुण होने चाहिये, जिससे विद्यार्थी प्रभावित हो सकें।  टैगोर क मत है कि शिक्षक को मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिये, जिसके आधार पर वह विद्यार्थी के महत्व को समझ सकेगा।

 "टैगोर ने ऐसी शिक्षण विधि पर बल दिया जिससे बालक की जिज्ञासा और रूचि बनी रहे" टैगोर ने निम्नलिखित बातो पर जोर दिया 
1 भ्रमण के समय पढ़ाना 2 क्रिया विधि 3 वाद-विवाद तथा प्रश्नोत्तक विधि।  यद्यपि टैगोर के समय में शिक्षा के स्तर मौजूद नहीं थे।  अतः उनके जो विचार एवं वैज्ञानिक चिंतन है, उसमें शिक्षा का प्रत्येक क्षेत्र प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता।  रविन्द्रनाथ जी के आध्यात्मिक एवं नैतिक शिक्षा सार्वभौमिक एवं उन मानवीय मूल्यों को प्रतिपादित करती है, जिनकी उपयोगिता एवं सार्थकता प्रत्येक देश तथा काल में सदैव बनी रहेगी।

निष्कर्ष???
निष्कर्ष स्वरूप यह कहा जा सकता है कि टैगोर ने भारतीय संस्कृति के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा की नींव डाली।  टैगोर ने शिक्षा का स्वरूप् अर्थ, समृद्ध और पूर्ण रूप् में लिया है।  जीवन की पूर्णता के लिये टैगोर ने जो विधान निर्मित किया है वह भारतीय और पाश्चात्य दोनों के जीवन को स्पर्श करती है उसमें आध्यात्मिक और भौतिक दोनों तत्वों का समन्वय है।  दर्शन और वास्तविक जीवन की परिस्थितियों का समन्वय करके टैगोर ने भारतीय शिक्षा में महान् क्रांति की है।  टैगोर द्वारा दिये गये शिक्षा-दर्शन के सिद्धांत को ध्यान में रखा जायें जिससे बालक का चहॅुमुखी विकास होगा एवं वर्तमान शिक्षा में प्रतिपादित किया जायें इससे विद्यार्थियों में बढ़ रही अनुशासनहीनता, उद्ण्डता, कत्र्तव्यहीनता कम होगी।  अतः वर्तमान में रविन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा संबंधित सिद्धांतों की महत्ता आवश्यक है जो हमारे आने वाली पीढ़ी को नैतिक एवं मानवीय मूल्यों की ओर आकृष्ट करके उनकी महत्वाकांक्षओं को पूर्ण करते हुये उनके चरित्र में उत्तम गुणों का विकास करें जिससे समाज, देश, राष्ट्रीय, अंर्तराष्ट्रीय एकता बनी रहे।

टैगोर जी के कुछ
अनमोल विचार

_मौत प्रकाश को ख़त्म करना नहीं है; ये सिर्फ दीपक को बुझाना है क्योंकि सुबह हो गयी है

किसी बच्चे की शिक्षा अपने ज्ञान तक सीमित मत रखिये, क्योंकि वह किसी और समय में पैदा हुआ है

हर बच्चा इसी सन्देश के साथ आता है कि भगवान अभी तक मनुष्यों से हतोत्साहित नहीं हुआ है

आस्था वो पक्षी है जो सुबह अँधेरा होने पर भी उजाले को महसूस करती है

यदि आप सभी गलतियों के लिए दरवाजे बंद कर देंगे तो सच बाहर रह जायेगा

संगीत दो आत्माओं के बीच के अनंत को भरता है

हम महानता के सबसे करीब तब होते हैं जब हम विनम्रता में महान होते हैं

सिर्फ खड़े होकर पानी देखने से आप नदी नहीं पार कर सकते

जन गण मन, भारत का     राष्ट्रगान है जो मूलतः बंगाली में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखा गया था। भारत का राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम्‌ है।
राष्ट्रगान के गायन की अवधि लगभग 52  सेकेण्ड है।
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जनगणमन-अधिनायक जय है भारतभाग्यविधाता!
पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंग
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा उच्छलजलधितरंग
तव शुभ नामे जागे, तव शुभ आशिष मागे,
गाहे तव जयगाथा।
जनगणमंगलदायक जय हे भारतभाग्यविधाता!
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।

रवीन्द्रनाथ जी की मृत्यु

भारत के राष्ट्रगान के प्रसिद्ध रचयिता रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु 7 अगस्त 1941को कलकत्ता में हुई थी|
अपने दिल की बात सायरी के
साथ ठाकुर जी के प्रति

:-(“अपने भीतरी प्रकाश से ओत-प्रोत जब वह सत्य खोज लेता है. कोई उसे वंचित नहीं कर सकता,
वह उसे अपने साथ ले जाता है अपने निधि-कोष में अपने अंतिम पुरस्कार के रूप में”:-)  

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