हरा - जयपुर की अलवर शैली गुलाबी/श्वेत - किशनगढ शैली नीला - कोटा शैली सुनहरी - बूंदी शैली पीला - जोधपुर व बीकानेर शैली लाल - मेवाड़ शैली पशु तथा पक्षी
हाथी व चकोर - मेवाड़ शैली
चील/कौआ व ऊंठ - जोधपुर तथा बीकानेर शैली हिरण/शेर व बत्तख - कोटा तथा बूंदी शैली अश्व व मोर:- जयपुर व अलवर शैली गाय व मोर - नाथद्वारा शैली
वृक्ष पीपल/बरगद - जयपुर तथा अलवर शैली खजूर - कोटा तथा बूंदी शैली आम - जोधपुर तथा बीकानेर शैली कदम्ब - मेवाड़ शैली केला - नाथद्वारा शैली नयन/आंखे
खंजर समान - बीकानेर शैली मृग समान - मेवाड शैली आम्र पर्ण - कोटा व बूंदी शैली मीन कृत:- जयपुर व अलवर शैली कमान जैसी - किशनगढ़ शैली बादाम जैसी - जोधपुर शैली
1. मेवाड़ स्कूल
उदयपुर शैली राजस्थानी चित्रकला की मूल शैली है। शैली का प्रारम्भिक विकास कुम्भा के काल में हुआ। शैली का स्वर्णकाल जगत सिंह प्रथम का काल रहा। महाराणा जगत सिंह के समय उदयपुर के राजमहलों में "चितेरोंरी ओवरी" नामक कला विद्यालय खोला गया जिसे "तस्वीरों रो कारखानों "भी कहा जाता है। ??विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतन्त्र नामक ग्रन्थ में पशु-पक्षियों की कहानियों के माध्यम से मानव जीवन के सिद्वान्तों को समझाया गया है। पंचतन्त्र का फारसी अनुवाद "कलिला दमना" है, जो एक रूपात्मक कहानी है। इसमें राजा तथा उसके दो मंत्रियों कलिता व दमना का वर्णन किया गया है। उदयपुर शैली में कलिला और दमना नाम से चित्र चित्रित किए गए थे। सन 1260-61 ई. में मेवाड़ के महाराणा तेजसिंह के काल में इस शैली का प्रारम्भिक चित्र श्रावक प्रतिकर्मण सूत्र चूर्णि आहड़ में चित्रित किया गया। जिसका चित्रकार कमलचंद था। सन् 1423 ई. में महाराणा मोकल के समय सुपासनह चरियम नामक चित्र चित्रकार हिरानंद के द्वारा चित्रित किया गया। प्रमुख चित्रकार - मनोहर लाल, साहिबदीन (महाराणा जगत सिंह -प्रथम के दरबारी चित्रकार) कृपा राम, अमरा आदि। चित्रित ग्रन्थ - 1. आर्श रामायण - मनोहर व साहिबदीन द्वारा। 2. गीत गोविन्द - साहबदीन द्वारा। चित्रित विषय -मेवाड़ चित्रकला शैली में धार्मिक विषयों का चित्रण किया गया।
इस शैली में रामायण, महाभारत, रसिक प्रिया, गीत गोविन्द इत्यादि ग्रन्थों पर चित्र बनाए गए। मेवाड़ चित्रकला शैली पर गुर्जर तथा जैन शैली का प्रभाव रहा है।
नाथ द्वारा शैली
नाथ द्वारा मेवाड़ रियासत के अन्र्तगत आता था, जो वर्तमान में राजसमंद जिले में स्थित है। यहां स्थित श्री नाथ जी मंदिर का निर्माण मेवाड़ के महाराजा राजसिंह न 1671-72 में करवाया था। यह मंदिर पिछवाई कला के लिए प्रसिद्ध है, जो वास्तव में नाथद्वारा शैली का रूप है। इस चित्रकला शैली का विकास मथुरा के कलाकारों द्वारा किया गया। महाराजा राजसिंह का काल इस शैली का स्वर्ण काल कहलाता है। चित्रित विषय - श्री कृष्ण की बाल लीलाऐं, गतालों का चित्रण, यमुना स्नान, अन्नकूट महोत्सव आदि।
चित्रकार - खेतदान, घासीराम आदि।
देवगढ़ शैली इस शैली का प्रारम्भिक विकास महाराजा द्वाारिकादास चुडावत के समय हुआ। इस शैली को प्रसिद्धी दिलाने का श्रेय डाॅ. श्रीधर अंधारे को है। चित्रकार - बगला, कंवला, चीखा/चोखा, बैजनाथ आदि।
शाहपुरा शैली यह शैली भीलवाडा जिले के शाहपुरा कस्बे में विकसित हुई। शाहपुरा की प्रसिद्ध कला फडु चित्रांकन में इस चित्रकला शैली का प्रयोग किया जाता है। फड़ चित्रांकन में यहां का जोशी परिवार लगा हुआ है। श्री लाल जोशी, दुर्गादास जोशी, पार्वती जोशी (पहली महिला फड़ चित्रकार) आदि चित्र - हाथी व घोड़ों का संघर्ष (चित्रकास्ताजू)
चावण्ड शैली इस शैली का प्रारम्भिक विकास महाराणा प्रताप के काल में हुआ। स्वर्णकाल -अमरसिंह प्रथम का काल माना जाता है। चित्रकार - जीसारदीन इस शैली का चित्रकार हैं नीसारदीन न "रागमाला" नामक चित्र बनाया।
रंगाई छपाई व बंधेज सांगानेर की सांगानेरी" नामक सुंदर डिजाइन की छपाई, चितौडगढ की जाजम छपाई, बाड़मेर की अजरक प्रिंट भारत में ही नहीं विश्व में प्रसिद्ध है बंधेज को मोठडा कहते हैं रेवड़ी की छपाई - जयपुर व उदयपुर में लाल रंग की ओढ़नी पर लकड़ी के छापों से सोने, चांदी के तबक की छपाई को कहते हैं बतकाडे - चितौडगढ के छीपाअों के आकोला में जो हाथ की छपाई में लकड़ी के छापों का प्रयोग किया जाता है बतकाडे कहलाते हैं लकड़ी के छापों से जो छपाई का कार्य होता है वह ठप्पा हलाता है
राजस्थान में महिलाओं की ओढनी जिसमें गुलाबी, पीली,केसरिया रंग में कमल या पदम की आकृति के गोले व चारों ओर लाल किनारा होता है पोमचा कहलाता है
पीले पोमचे को पाटोदा का लूगडा भी कहते हैं सीकर के लक्ष्मणगढ व झुंझुनूं के मुकन्दगढ का प्रसिद्ध है लप्पा -चुनरी के आँचल में जो चौड़ा गोटा लगाया जाता है बाँकडी - तार वाले बादले से बनी एक प्रकार की बेल जो पोशाकों व दुप्पटे पर लगायी जाती है बिजिया - गोटे के फूलो को कहते हैं और बेल को चम्पाकली कहते हैं जरदोजी - सुनहरे धागे से कढाई की परम्परा को कहा जाता है अड्डा - वह फ्रेम जिस पर कपडे को तान कर जरदोजी की कढाई की जाती है चौदानी -बुनाई में ही अलंकरण बनाते हैं और इन बिंदुओं के आधार पर ही इन्हें चौदानी, सतदानी, नौदानी कहते हैं
इनकी चौडाई कम होने पर यही लप्पा, लप्पी कहलाते हैं
कलाबत्तू- कढाई करने वाले सुनहरे तार मुकेश -सूती या रेशम कपड़े पर बादले से छोटी बिदंकी की कढाई मुकेश कहलाती हैं लहर गोडा -खजूर की पत्तियों वाले अलंकरण युक्त गोटे को लहर गोडा कहते हैं नक्शी -पतल खजूर अलंकरण वाल गोटे को कहते हैं किरण- बादले की झालर को कहते हैं यह साडी के आँचल व घूँघटे वाले हिस्से में लगाया जाता है
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