लाल किले का मुकदमा- नवंबर 1945(Red Fort lawsuit - November 1945)
लाल किले का मुकदमा- नवंबर 1945
(Red Fort lawsuit - November 1945)
आजाद हिंद फौज की सफलता की बजाए देश के मुक्ति संघर्ष के मुकदमे के विरोध में होने वाले आंदोलन ने अधिक गति प्रदान की
देशभक्त सैनिक व अधिकारियों पर मुकदमा आरंभ होने से पहले ही उनके बचाव के लिए हलचल आरंभ हो गई थी
आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार सैनिकों और सैनिक अधिकारियों पर अंग्रेज सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवंबर 1945 में मुकदमे चलाएं
जिन सैनिक अधिकारियों पर देशद्रोह का अभियोग चलाया उनमें एक हिंदू,एक मुसलमान और एक सिक्ख था
यह 3 सैनिक अधिकारी मेजर शहनवाज खाँ, कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरुदयाल सिंह ढिल्लो थे
इन तीनों पर देशद्रोह के अभियोग की सुनवाई दिल्ली के लाल किले में सैनिक न्यायालय ने की थी
उनके बचाव के पक्ष के रूप में कांग्रेस ने आजाद हिंद फौज बचाओ समिति का गठन किया जिसमें भूलाभाई देसाई के नेतृत्व में तेज बहादुर सप्रू ,कैलाश नाथ काटजू,अरुणा आसफ अली और जवाहरलाल नेहरु प्रमुख वकील थे
इसी के साथ कांग्रेस ने इन तीनों की आर्थिक मदद और पुनर्वास हेतु आजाद हिंद फौज जाँच और राहत समिति का गठन किया था
लाल किले के मुकदमे की प्रतिक्रियाएं
आंदोलन से जनता के जुड़ाव पर गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक ने टिप्पणी की थी शायद ही कोई मुद्दा हो दिन में भारतीय जनता ने इतनी दिलचस्पी दिखाई हो और यह कहना गलत नहीं होगा कि जिसे इतनी व्यापक सहानभूति मिली हो
आंदोलन में छात्र दुकानदारों से लेकर फिल्मी सितारों तक और जनता के सभी वर्गों ने किसी न किसी रूप में सहयोग किया
फंड एकत्र करना ,सभा करना, प्रदर्शन करना और आवश्यकता पड़ने पर पुलिस से टकराना, इस जन कार्रवाही के मुख्य भाग थे
भारत के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस आंदोलन का साथ दिया यहां तक कि जिन जनसमूह को अभी तक ब्रिटिश राज्य का परंपरागत समर्थक माना जाता था यह भी इसमें शामिल थे
मुस्लिम लेकिन अभी इस अभियोग की कड़ी निंदा की थी
मसलन अपने को राज्य के प्रति वफादार मानने वाले सरकारी कर्मचारियों और सशस्त्र सेना के लोग-विपिनचंद्र स्वयं भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ ऑचीनलेक ने स्वीकार किया था कि अधिकारियों में शत-प्रतिशत की ओर सैनिकों में अधिकांश की सहानुभूति आजाद हिंद फौज के साथ है
लाल किले के मुकदमे का फैसला
दिल्ली के लालकिले में चलाए गए मुकदमे में अधिकारियों को फांसी की सजा दी गई
इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई
नारे लगाए गए लालकिले को तोड़ दो आजाद हिंद फौज को छोड़ दो
इसी के साथ जनता का आक्रोश सड़कों पर आ गया
कलकत्ता में हड़ताल ,प्रदर्शन और पुलिस और सेना से मुठभेड़ में 40 लोग मारे गए 300 से अधिक लोग घायल हुए
मुंबई में इसी प्रकार के संघर्ष में मृतकों की संख्या 23 हो रही संघर्ष
यह संघर्ष दिल्ली व मुदरै जैसे स्थानों पर भी हुए
इस आंदोलन के परिणाम दुरगामी थे
जिस प्रकार का व्यापक समर्थन इन तीनों अफसरों को मिला उससे यह स्पष्ट हो गया की समस्त भारत इन तीनों को राष्ट्रीय वीर मानता था न्यायालय ने उन्हें दोषी पाया
लेकिन भारतीय लोगों की इन सब प्रतिक्रियाओं से विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने भारतीय लोगों की भावनाओं का सम्मान किया और अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदंड की सजा को माफ कर दिया गया
महत्व
भौगोलिक क्षेत्र की दृष्टि से भी यह आंदोलन अखिल भारतीय आंदोलन था
दिल्ली ,पंजाब, बंगाल सयुक्त प्रांत, बंबई और मद्रास को इस आंदोलन के मुख्य केंद्र थे ही इसके साथ-साथ असम और बलूचिस्तान जैसे क्षेत्रों में भी इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है
इस आंदोलन से संसार में भी जनमत का माहौल बन गया था कि भारतीयों को आत्म निर्णय का अधिकार मिलना चाहिए
इस आंदोलन से साम्राज्य शक्तियों को प्रकट हो गया कि उनके भारत को छोड़ने का समय आ रहा है
मनोवैज्ञानिक रुप से आजाद हिंद फौज वीरों ने एक साहस का उदाहरण प्रस्तुत किया जिससे भारत का स्वतंत्रता प्राप्ति का संकल्प और भी दृढ हो गया
सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्रता सेनानियों के प्रमुख थे जो की क्रांतिकारी थे
धीरे-धीरे चलने वाले राजनीतिक आंदोलन में इनका कोई विश्वास नहीं था
इस प्रकार आजाद हिंद फौज और उसके संस्थापक सुभाष चंद्र बोस ने आगे स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए एक नए मार्ग का निर्माण किया
6 जुलाई 1944 को सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद रेडियो के एक प्रसारण में महात्मा गांधी के लिए राष्ट्रपिता शब्द प्रयोग किया था
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