लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ( PART 02 /03)-Lokmanya Bal Gangadhar Tilak

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ( PART 02 /03)


(Lokmanya Bal Gangadhar Tilak)



04.साधनो के प्रति दृष्टिकोण
राजनीतिक आंदोलन के लिए उदारवादियों द्वारा अपनाए जा रहे साधनों से तिलक पूर्ण पूर्णतया  असहमत थे!!
जनता के राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के यह शासकों की दया सहृदयता व सहानुभूति पर निर्भर करना भी उचित नहीं मानते थे!!
भारतीयों को भारत के शासन में भागीदारी उपलब्ध कराने के लिए वह उदारवादियों के "धीमी चाल" के आग्रह और इसके लिए ब्रिटिश जनमत को जागृत करने तथा उनकी न्यायप्रियता में विश्वास रखते हुए उन्हें भारतीय जनता की न्याय संबंधित मांगों की पूर्ति के लिए प्रेरित करने को वह अव्यवहारिक तो मानते ही थे भारतीय जनता के स्वाभिमान के भी असंगत मानते थे!!
उन्होंने कहा पूरे ब्रिटिश मतदाताओं को अपने मत से प्रभावित और सहमत करना और तब उन के माध्यम से ब्रिटिश संसद के सदस्यों पर अप्रत्यक्ष दबाव डालना और उन के माध्यम से एक ऐसे मंत्री परिषद का गठन करवाना जो  भारत के लिए अनुकुल रूख रखता हो और पुनः पूरी ब्रिटिश संसद, उदारवादी पार्टी और मंत्रीपरिषद से यह अपेक्षा करना कि वह भारत में नौकरशाही पर भारत की आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील होने के लिए दबाव डालें मेरे मत से नितांत अव्यावहारिक और निरर्थक है!
उन्होंने उदारवादियों के साधनों अनुनय,, आग्रह और प्रतिरोध की निरर्थकता और प्रभावहीनता पर कटाक्ष करते हुए कहा "तीन प्र.... प्रार्थना,,, प्रश्न करना और प्रतिरोध से कुछ नहीं होगा, जब तक कि उनके ठोस शक्ति हो नहीं हो!! आयरलैंड, जापान और रूस के उदाहरण से हमें सबक लेना चाहिए शासकों की अब एक निश्चित नीति है और आप उन्हें नीति को परिवर्तित करने के लिए कह रहे हैं इससे अधिक से अधिक यह होगा कि वह शुद्ध निरंकुशता की जगह है जाग्रत निरंकुशता अपना ले!
"ब्रिटिश लोगों को शिक्षित करने करने से ही अधिक परिणामों की आशा व्यक्त करना व्यर्थ है!!!"
तिलक इस बात को भली भांति समझते थे कि साधना के प्रति उदारवादियों व उनके मध्य मतभेद राजनीतिक विकास की एक स्वाभाविक प्रक्रिया को भी व्यक्त करते थे!!
वह उदारवादियों से असमहत होते हुए भी देशहित के प्रति उनके दृष्टिकोण की ईमानदारी से अनभिज्ञ नहीं थे!
वे यह भली-भांति जानते थे कि साधनो के प्रति दृष्टिकोण देश की राजनीतिक आकांक्षाओ की निरंतरता का ही प्रतीक था!!
उन्होंने कहा "आज के उग्रवादी भविष्य के उदारवादी होंगे बिल्कुल वैसे ही जैसे कि आज के उदारवादी अतीत के उग्रवादी हैं!
"जब राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी वह दादा भाई नौरोजी ने भारत में अपने विचारों की प्रथम बार अभिव्यक्ति की थी तो उन्हीं विचारों को जिसे आज उदारवादियों ने अपना लिया है उग्रवादी विचार माना गया था अतः काल के क्रम में यह स्पष्ट हो जाएगा कि शब्द उग्रवादी प्रगति का प्रतीक है!

तिलक गोखले की तरह साधनों की नैतिकता के प्रश्न को साध्य की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण नहीं मानते थे !
किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह साधनों को कोई महत्व नहीं देते थे तथ्य यह है कि तिलक का आग्रह साधनों की नैतिकता की अपेक्षा उनकी प्रभावशीलता के प्रति अधिक था!!उन्होंने उदारवादियों द्वारा अपनाए जा रहे निष्क्रिय और निष्प्रभावी साधनो की तुलना में सक्रिय और प्रभावशाली साधुओं को अपनाने पर बल दिया!! तिलक ने स्वदेशी,, बहिष्कार राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध को महत्वपूर्ण मानते हुए इन्हें ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध राजनीतिक आंदोलन के साधन के रूप में अपनाई जाने पर बल दिया!!

05.स्वदेशी,बहिष्कार,निष्क्रिय प्रतिरोध व राष्ट्रीय शिक्षा
स्वदेशी बहिष्कार व निष्क्रिय प्रतिरोध-
तिलक स्वदेशी को राजनीतिक आंदोलन का एक प्रभावी अस्त्र मानते थे किंतु उनके लिए स्वदेशी का प्रचार आंदोलन का एक स्वरूप मात्र नही था, अपितु राष्ट्र की आत्मनिर्भरता आत्मसम्मान और विदेशी प्रभाव से व्यक्तिगत मुक्ति का प्रतीक था!!!
यद्यपि स्वदेशी के विचार का सूत्रपात तिलक से पूर्व हो स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे समाज सुधारकों द्वारा कर दिया गया था किंतु तिलक ने इस विचार को न केवल लोकप्रियता प्रदान की,,अपितु इसे ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध की अभिव्यक्ति  का एक प्रभावशाली माध्यम बना दिया!!
तिलक के अनुसार स्वराज्य का विचार आर्थिक और नैतिक दोनो दृष्टि से ही भारतीयों के हितो को सुनिश्चित करता था!!
स्वदेशी के विचार में तिलक का यह आग्रह निहित था कि भारत की अर्थव्यवस्था प्राचीन और परंपरागत स्थिति में हुए लौट जाऐ !!
एक व्यावहारिच दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने स्वदेशी के अंतर्गत 2 बातो पर बल गया!!

1.देश मे उस समय विद्यमान पूंजी और तकनीकी कौशल के अभाव को देखते हुए लघु और कुटीर उद्योगों को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जाए ताकि जनता में विद्यमान बेरोजगारी की स्थिति का समाधान किया जा सके!!
उन्होंने आग्रह किया कि भारतीय जनता में इस बात के लिए चेतना जागृत की जाए की विभिन देशो में निर्मित वस्तुओं के स्थान पर स्वदेशी में लघु और कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं को अपनाएं उनका मत थे  की स्वदेशी उत्पादन विधि गुणवत्ता में मशीनों द्वारा निर्मित वस्तुओं की तुलना में हल्की भी हो तो भी इन्हें अपनाएं जाना चाहिए इसलिए श्रेयस्कर था कि इस देश
की आर्थिक आत्मनिर्भरता का मार्ग प्रशस्त
होता था!

2. वे शनै शनै तकनीकी शिक्षा के प्रसार तथा विदेशी पूंजी के विस्तार के माध्यम से देश में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को गति प्रदान करना चाहते थे उनकी मान्यता की की स्वदेशी कौशल और विदेशी पूंजी के आधार पर किया गया औद्योगिकीकरण ही देश की आर्थिक आत्मनिर्भरता का माध्यम बन सकता था!!

स्वदेशी के नैतिक पक्ष को भी तिलक ने महत्वपूर्ण माना उन दृढ मत था कि स्वदेशी को अपनाने से भारतीयो में स्वाभिमान का भाव विकसित होगा तथा वे विदेशी निर्भरता से मुक्त हो सकेंगे !!
इस अर्थ में स्वदेशी तिलक के लिए देश के आर्थिक पुनर्निर्माण का आंदोलन ही नहीं अपितु जनता में स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता की भावना के संचार का मूलमंत्र भी था!!!!

बहिष्कार आंदोलन के स्वदेशी के विचार का पूरक था!!
यह स्वदेशी की भावना का आक्रमणात्मक या आंदोलनात्मक पक्ष था !!
बहिष्कार के द्वारा भावनात्मक और आर्थिक दोनों स्तरों पर ब्रिटिश आधिपत्य से सक्रिय प्रतिरोध का भाव व्यक्त होता था गोखले जेसे उदारवादी नेता स्वदेशी विचार से सहमत थे परंतु बहिष्कार जैसे आक्रामक कदम के पक्ष में नहीं थे!!
बहिष्कार के दूसरे पक्ष के प्रति विद्वेष और रोष का भाव व्यक्त होता है बहिष्कार के प्रतीक गोखले के इस दृष्टिकोण से तिलक बिल्कुल ऐसा मत थे वास्तव में बहिष्कार को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतीयों के रोष की अभिव्यक्ति का प्रभावशाली माध्यम समझते थे!!
निष्क्रिय प्रतिरोध तिलक के बहिष्कार के विचार का हि संगठित पक्ष था !!
निष्क्रिय प्रतिरोध का अर्थ था- "शासन के संचालन में जनता द्वारा सहयोग देना बंद कर देना" वस्तुतः यह बहिष्कार के विचार का ही सक्रिय राजनीतिक रूपांतरण था तिलक की दृढ़ मान्यता की की शासितो के सहयोग के बिना शासन चलाया जाना असंभव है !!!
वे यह समझते थे कि देशवासियों को शासन के विरुद्ध विद्रोह के लिए संगठित करना एक कठिन कार्य तथा ही उसके द्वारा विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य में सफलता मिलना भी संदिग्ध था!!
निष्क्रिय प्रतिरोध उनके अनुसार ऐसा उपाय था जिसके द्वारा जनता हिंसक साधनों को अपनाए बिना ही स्वराज्य की प्राप्ति के लिए प्रभावी ढंग से आंदोलन कर सकती थी!!!

राष्ट्रीय शिक्षा
तिलक ने राष्ट्रीयता के विचार को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा को एक महत्वपूर्ण साधन माना!!
उनकी मान्यता थी की राष्ट्रीय शिक्षा के द्वारा ही जनता में राष्ट्रीय एकता की भावना का संचार किया जा सकता है!!
तिलक के अनुसार शिक्षा का अर्थ कोरा अक्षर-ज्ञान अथवा सूचनाओं का संग्रह मात्र नहीं था उनके अनुसार शिक्षा वह माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्तियों के व्यक्तित्व का निर्माण होता है और उनमें स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता के भाव जागृत होते हैं!!
शिक्षा के प्रति तिलक का दृष्टिकोण व्यावसायिक नहीं था!!
वे शिक्षा को राष्ट्र निर्माण के प्रभावशाली भावनात्मक साधन के रुप में विकसित करना चाहते थे !!
इसलिए उन्होंने पाश्चात्य प्रणाली पर आधारित शिक्षा की अपेक्षा देश में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार को महत्त्व प्रदान किया!!

राष्ट्रीय शिक्षा की प्रणाली और पाठ्यक्रम के प्रति उनके दृष्टिकोण को सारतः निम्नलिखित रुप में प्रस्तुत किया जा सकता है:-

(अ) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो
तिलक अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान किए जाने को अनुचित मानते थे!!
उनकी दृढ़ मान्यता थी कि बालकों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह सहज ढंग से शिक्षा ग्रहण करके अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें!!
तिलक अंग्रेजी भाषा को शिक्षा के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना तो उपयोगी मानते थे किंतु वह यह अनुभव करते थे इस शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की बाध्यता का बोझ विद्यार्थियों पर लादना किसी भी प्रकार से उचित नहीं था !!
उनका मत था कि एक विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने में विद्यार्थियों को कठिनाई तो होगी ही उन उससे उन्हें एक स्थायी हीन भावना उत्पन्न हो जाएगी!!
उनका मत था कि शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को कुंठित कर देगी!!

(ब)एक राष्ट्र भाषा तथा लिपि की एकरूपता पर बल
तिलक भारत की भाषायी और सांस्कृतिक विविधता से परिचित थे वह यह अनुभव करते थे कि देश की भाषा की विभिन्नताओं के कारण एक ऐसी संपर्क भाषा की आवश्यकता थी !!
जिसमें सभी भारतीय परस्पर संवाद कर सकें!!!!
तिलक के अनुसार अंग्रेजी को भारतीयों की एक समान संपर्क भाषा के रूप में अपनाया जानना अव्यवहारिक और अनुचित था!!उन्होंने दृढ़ता से व्यक्त किया कि हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में अपना कर,, एक समान संपर्क भाषा की आवश्यकता की व्यावहारिक पूर्ति भी की जा सकती है और इसके माध्यम से विदेशी भाषा पर निर्भरता को भी समाप्त किया जा सकता है!!
उनके अनुसार हिंदी की राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता का भावनात्मक महत्व भी था और व्यवहारिक भी,,, भावनात्मक दृष्टि से राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी भारतीयों की एकता और स्वाभिमान की अनुभूति का माध्यम बनती और व्यवहारिक दृष्टि से वह भारतीयों के मध्य संवाद का सहज माध्यम बन सकती थी!!

भारत के विभिन्न भागों में भाषाओं के साथ-साथ लिपियों की भी विभिन्नता विद्यमान थी!!
जिसके कारण लोगों के लिए एक दूसरी भाषाओं को समझना और उनकी शिक्षा ग्रहण करना प्रतीत होता था!!
तिलक ने इन समस्याओं के समाधान के लिए देवनागरी लिपि को सभी भारतीय भाषाओं की एक समान लिपि के रूप में स्वीकार किया जाना उचित माना!!
लिपि की एकरूपता के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए रोमन लिपि को अपनाए जानने के सुझाव को उन्होंने अव्यावहारिक,, अनुचित और हास्यपद माना!!

(स)तकनीकी शिक्षा पर बल
तिलक ने शिक्षा के पाठ्यक्रम में तकनीकी शिक्षा को सम्मिलित किए जाने को आवश्यक माना उनके अनुसार तकनीकी शिक्षा के विस्तार के द्वारा ही देश में औद्योगिकीकरण की संभावनाएं विकसित की जा सकती थी और आर्थिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी वर्चस्व को समाप्त किया जा सकता था!!

(द)धार्मिक शिक्षा पर बल
तिलक ने धार्मिक शिक्षा को पाठ्यक्रम के सम्मिलित किया जाना अत्यधिक महत्वपूर्ण माना!!
धार्मिक शिक्षा के माध्यम से तिलक भारतीयो में नैतिक भावना और संस्कृति के प्रति प्रेम का विकास करना चाहते थे!!
उनकी मान्यता थी कि शिक्षा के पाठ्यक्रम में अन्य तत्व व्यक्तियों की ज्ञान और सूचनाओं की वृद्धि में सहायक हो सकते हैं किंतु वे उनका चरित्र निर्माण नहीं कर सकते!!
तिलक के अनुसार चरित्र निर्माण,, देश भक्ति,, और अतीत के प्रति गौरव केवल धार्मिक और नैतिक शिक्षा के द्वारा ही सुनिश्चित किए जा सकते हैं!!
किंतु यह स्पष्टीकरण आवश्यक है की धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य बनाए जाने का तिलक का आग्रह किसी भी प्रकार की सांप्रदायिक भावना से प्रेरित नहीं था वह किसी भी धर्मावलंबी पर दूसरे धर्म की मान्यताओं को थोपना उचित नहीं मानते थे!!

(च)राजनीतिक शिक्षा
तिलक युवकों को देश की उन्नति और स्वाधीनता के आंदोलन में समर्पित होने के लिए प्रशिक्षण प्रदान करने में शिक्षा को एक महत्वपूर्ण साधन मानते थे!!
इस दृष्टि से राजनीतिक शिक्षा उनके अनुसार शिक्षा के पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग था!! राजनीतिक शिक्षा के माध्यम से वह छात्रों को देश के तत्कालीन दुरावस्था के कारणों के ज्ञान तथा उनके निवारण के लिए विदेशी संस्कृति उन्मूलन की आवश्यकता के प्रति चेतना विकसित करना चाहते थे!!
उनकी मान्यता थी की राष्ट्रीय शिक्षा के अंतर्गत शिक्षित युवक जन जागरण का संदेश पूरे देश में प्रसारित कर सकेंगे!!

6.हिंसक साधनों में अविश्वास
उदारवादियों द्वारा अपनाए जा रहे साधनों की पर्याप्तता के प्रति तिलक के संदेह  तथा "अनुनय-विनय",, "ज्ञापन" की उपेक्षा राजनीतिक आंदोलन की सक्रिय और प्रभावशाली उपायों के प्रति उनके दृढ आग्रह के कारण उनके विषय में यह भ्रम उत्पन करने का प्रयत्न किया गया कि तिलक क्रांतिकारी य् हिंसक गतिविधियों के माध्यम से स्वराज्य की प्राप्ति के पक्षधर थे!!
 शिरोल ने तो उन्हें "भारतीय अशांति के जनक" की संख्या भी दे डाली!!
किंतु तिलक के विचारों का निष्पक्ष विश्वेषण यह सिद्ध करता है कि वह कभी भी हिंसक
साधनो के माध्यम से स्वराज्य की प्राप्ति के पक्षधर नहीं थे!!

आंदोलन के साधन के रूप में हिंसा व अहिंसा के प्रति तिलक का दृष्टिकोण नैतिक आग्रहों से नहीं,,, अपितु व्यावहारिकता से प्रेरित था!!
वे हिंसक का समर्थन तो नहीं करते थे किंतु, गांधी जी की तरह अहिंसा के नैतिक आदर्श से भी प्रेरित नहीं थे!!
उनका स्पष्ट दृष्टि कोण था कि हिंसक साधनों के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता का भारत से उन्मूलन व्यवहारिक रुप से संभव नहीं था!! अहिंसा उनके लिए एक व्यावहारिक नीति थी,,, नैतिक साध्य नहीं!!
हिंसा और अहिंसा के प्रति उनके दृष्टिकोण का सार यह था कि वह हिंसा के विरोधी थे किन्तु अहिंसा के पुजारी नहीं!!

तिलक ने यह स्पष्ट किया कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन का उनका आग्रह क्रांतिकारी था किंतु उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यह क्रांति रक्तहीन माध्यमों से होगी उन्होंने जनता को सतर्क किया की रक्तहीन क्रांति के लिए जनता को भारी कष्ट और यातनाएं सहने के लिए तैयार रहना चाहिए!!

स्वदेशी बहिष्कार और निष्क्रिय प्रतिरोध उनके अनुसार इसे साधन थे जिनके माध्यम से जनता शासकों के लिए शासन चलाया जाना असंभव बना सकती थी!!
विदेशी शासकों के विरुद्ध इन अस्त्रों की प्रयुक्ति को तिलक व्यावहारिक और प्रभावी मानते थे उनकी यह मान्यता के लिए साधन विधि-सम्मत साधन थे!!

07.राष्ट्रवाद
तिलक उत्कट राष्ट्रवादी थे वह उदारवादियों की भांति पश्चिमी विचारों,, मूल्यो और संस्थाओं को भारतीय राष्ट्रवाद का आधार नहीं बनाना चाहते थे !!
उनकी मान्यता थी कि भारतीय संस्कृति और मूल्यों को ही भारत में राष्ट्रवाद का सुदृढ आधार बनाया जा सकता है!!
वह भारत में राष्ट्रवाद के प्रसार के माध्यम से भारतीय संस्कृति के गौरवमय मूल्यों को पुनर्प्रतिष्ठित करना चाहते थे!!
भारत की प्राचीन संस्कृति और विचारों को वह राष्ट्रवाद की प्रेरक शक्ति के रुप में प्रयुक्त करना चाहते थे!!
उनका आग्रह यह नहीं था कि भारत अपने अतीत में वापस लौट जाए किंतु,,, उन का स्पष्ट दृष्टिकोण था कि भारत सृदढ भविष्य की वर्तमान प्रेरणाएं पश्चिम से नहीं,, अपनी गौरवमयी अतीत से प्राप्त करें!!
उनके राष्ट्रवाद में भारत के स्वर्णिम अतीत की गौरवानुभूति और भारत के समृद्धि भविष्य की आकांक्षा का समन्वय था !!
वी पी वर्मा ने तिलक के राष्ट्रवाद को "पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद" का नाम दिया है!!

08.सांप्रदायिक सद्भाव
तिलक के आलोचकों ने उन्हें एक कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया!!
और राष्ट्रवाद के प्रति उनके दृष्टिकोण तथा हिंदू समुदाय को संगठित करने और उनमें चेतना जागृत करने के उद्देश्य से उनके द्वारा प्रारंभ किए गए "गणपति महोत्सव" और "शिवाजी उत्सव" जैसे आयोजनों की विस्तृत व्याख्या की गई तथा उन्हें "हिंदूवादी आग्रह" का उदाहरण बताया गया!!

तिलक की दृष्टिकोण और विचारों का संतुलित मूल्यांकन यह स्पष्ट कर देता है कि वह हिंदू संप्रदायवादी नहीं थे!
वे प्राचीन भारतीय संस्कृति और परंपराओं को भारतीय राष्ट्रवाद की प्रेरक शक्ति बनाना चाहते थे किंतु वह किसी रूप में मुस्लिम विरोधी नहीं थे!!

 मुस्लिम विरोधी नहीं होते हुए भी वह हिंदुओं और मुसलमानों की मध्य विद्वेष उत्पन्न करने की ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीति के प्रति पर्याप्त सजग थे!!
हिंदुओं और मुसलमानों के बीच में विश्वास को जन्म देने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गई मुस्लिम पक्षपात की नीति का उन्होंने दृढ शब्दों में विरोध किया!!
वह मुस्लिम भावनाओं को आदर तो प्रधान करना चाहते थे, किंतु हिंदू समुदाय की भावनाओं व हितों के मूल्य पर ऐसा नहीं करना चाहते थे!!

हिंदू-मुस्लिम टकराव की स्थिति में तिलक का दृष्टिकोण न्याय और शक्ति से निर्धारित होता था!!
वह केवल मुसलमानों को सद्भाव अर्जित करने के लिए उनकी गलत बातों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे!!

मुसलमानों के प्रति उनके सद्भाव और संतुलित दृष्टिकोण का ही यह परिणाम था कि "मोहम्मद अली" और "शौकत अली" तथा "मौलाना हसरत मोहानी" जैसे मुस्लिम नेता तिलक को अपना नेता और प्रेरणा स्त्रोत स्वीकार करते थे!!
मौलाना हसरत मोहानी ती दृढ़तापूर्वक और स्पष्ट रुप से यह दावा करते थे कि तिलक उनके राजनीतिक गुरू है!!

तिलक का पुनरुत्थानवाद किसी भी रुप में मुस्लिम विरोधी दृष्टिकोण का परिचायक नहीं था!!
अपने पूरे राजनीतिक जीवन में उन्होंने भी हिंदू-राष्ट्र जैसी धारणा का प्रतिपादन नहीं किया!!
?वह इस ऐतिहासिक सत्य को स्वीकार करते थे कि भारत के एक बहुल समुदायवादी राष्ट्र है!!
धर्म के प्रति उनका संतुलित दृष्टिकोण उन्हें यह स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता था कि हिंदुओं की धार्मिक विषयों में सरकारी हस्तक्षेप ना करें और मुस्लिम समुदाय उनके प्रति विद्वेष का भाव न रखें!!
वह मुस्लिम समुदाय के धार्मिक अधिकारों की सुरक्षा के पक्षधर थे उनकी स्पष्ट मान्यता की की धार्मिक गतिविधियों के संबंध में मुस्लिम समुदाय को हिंदू समुदाय और सरकार दोनों के हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाना चाहिए !!
खिलाफत आंदोलन के विषय में उन्होंने यह स्पष्ट मत व्यक्त किया कि इस विषय में जो भी दृष्टिकोण निश्चित किया जाना हो,, वह मुसलमानों को करना होगा तथा वे उस दृष्टिकोण के प्रति पूरी दृढ़ता से समर्थन प्रदान करेंगे!!
तिलक के इस प्रस्ताव से मुस्लिम समुदाय के प्रति उनके सद्भाव का स्पष्ट संकेत मिल जाता है!!

तिलक के सामाजिक विचार
तिलक के सामाजिक विचारों के संबंध में उनके समय में गंभीर भ्रान्तिया विद्यमान रही!
तिलक को उनके समकालीन आलोचकों ने एक "सामाजिक रूढीवादी" और "सुधार" विरोधी के रूप में चित्रित किया!
किंतु तिलक को रूढीवादी अथवा सुधार
विरोधी मानना किसी भी प्रकार न्यायसंगत नहीं माना जा सकता!!
तिलक स्वयं समाज सुधारों की आवश्यकता से भलीभांति सहमत थे!
वे यह स्वीकार करते थे कि सामाजिक रूढ़ियों ने हिंदू समाज को बहुत ही हानि पहुंचाई है वे वस्तुतः समाज सुधार के नहीं अपितु समाज सुधारों के प्रयत्न में ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप और समाज सुधारों के नाम पर भारतीय मूल्यों की अपेक्षा पश्चिम जीवन मूल्यों को भारतीय समाज में स्थापित किए जाने के विरोधी थे!!

समाज सुधार के प्रति उनके दृष्टिकोण के तीन अनिवार्य पक्ष थे!!

1.समाज सुधार की तुलना में राजनीतिक परिवर्तन को प्राथमिकता
तिलक समाज सुधार की आवश्यकता को तीव्रता से अनुभव करते थे, किंतु वे समाज सुधारों को राजनीतिक परिवर्तन की तुलना में अग्रता प्रधान करने के पक्ष में नहीं थे!!
उनका मान्यथा थी  की सबसे पहले राजनीतिक शक्ति अर्जित करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए!!
उनकी मान्यता थी की वास्तविक सामाजिक,, आर्थिक,, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक प्रगति के लिए स्वराज्य प्रथम पूर्व शर्त है!!
उनका मत था कि राजनीतिक शक्ति भारतीयों के हाथ में आ जाने के पश्चात समाज सुधार स्वतः संपन्न किए जा सकेंगे वह सामाजिक विषयों में ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप के विरोधी थे!!

2.समाज सुधारों का समर्थन किंतु पश्चिमीकरण का विरोध
तिलक हिंदू समाज में समाज सुधारों के नाम पर पश्चिमी मूल्यों को प्रतिष्ठित किए जाने के विरोध में थे!!
वह हिंदू समुदाय की प्रगति के पक्षधर थे किंतु पश्चिमीकरण के घोर विरोधी थे!!
वह यह स्वीकार करते थे कि हिंदू समुदाय में अनेक ऐसी विकृतियां घर कर गई है जिन्होंने सामाजिक जीवन को विषाक्त बना दिया है!!6 उनका दृढ़ मत था कि भारत को पश्चिमी छवि पर ढालने का अर्थ होगा उसकी महानता को नष्ट करना!!
और समाज सुधारों के लिए एक विदेशी सत्ता की शक्ति का प्रयोग करना स्वयं समाज सुधारों को ही अनैतिक बना देगा!!
वे भारतीय संस्कृति की सुदृढ नींव पर, एक न्याय निष्ठ और सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहते थे!!

3.समाज सुधारों के लिए व्यवस्थापन की अपेक्षा जन-जागृति प्रबल
तिलक यह मानते थे कि समाज सुधार, व्यवस्थापन और बल प्रयोग द्वारा थोपे नहीं जा सकते!!
उनका मत था कि समाज सुधारों के कार्यक्रमों को जनता को शनै शनै जागरुक बनाकर और सुधारों को स्वीकार करने के लिए मानसिक रुप से तैयार करके ही क्रियांवित किया जा सकता है!!
?वह उन समाज सुधारकों के कट्टर आलोचक थे जो समाज सुधारों के लिए सरकार से व्यवस्थापन की मांग करते थे किंतु स्वयं अपने जीवन में उन सुधारो को घटित नहीं करते थे!!

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