जन्म: 1820, फ़ैज़ाबाद, अवध, भारत मृत्यु: 7 अप्रैल 1879, काठमांडू, नेपाल कार्य:- 1857 में ब्रिटश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह??
परिचय बेगम हज़रत महल ज्यादातर अवध की बेगम के नाम से भी जानी जाती है। वह नवाब वाजीद अली शाह की पहली पत्नी थी. उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पर आक्रमण किया था. अपने पति के कलकत्ता से निर्वासन के बाद, बेगम ने अवध राज्य के सारे कारोबार और अधिकारों को अपने हातो में लिया और साथ ही लखनऊ पर भी अपना अधिकार जमा लिया. बाद में उन्होंने उनके बाद अपने बेटे राजकुमार बिरजिस को अवध का वाली (शासक) बनाने की ठानी थी. लेकिन एक छोटे शासन काल के बाद ही उन्हें अपने राज्य को छोड़ना पड़ा. बाद में उन्हें नेपाल में शरण मिली और 1879 में उनकी मृत्यु हो गयी.
प्रारंभिक जीवन बेगम हज़रत महल का जन्म अवध प्रांत के फैजाबाद जिले में सन 1820 में हुआ था। उनके बचपन का नाम मुहम्मदी खातून था। वे पेशे से गणिका थीं और जब उनके माता-पिता ने उन्हें बेचा तब वे शाही हरम में एक खावासिन के तौर पर आ गयीं। इसके बाद उन्हें शाही दलालों को बेच दिया गया जिसके बाद उन्हें परी की उपाधि दी गयी और वे ‘महक परी’ कहलाने लगीं। जब अवध के नबाब ने उन्हें अपने शाही हरम में शामिल किया तब वे बेगम बन गयीं और ‘हज़रात महल’ की उपाधि उन्हें अपने पुत्र बिरजिस कादर के जन्म के बाद मिली। वे ताजदार-ए-अवध नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी थी। जब सन 1856 में अंग्रेजों ने अवध पर कब्ज़ा कर नवाब को कोलकाता भेज दिया तब बेगम हज़रत महल ने अवध का बागडोर सँभालने का फैसला किया। उन्होंने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादर को गद्दी पर बिठाकर अंग्रेज़ी सेना का स्वयं मुक़ाबला किया।
बेगम हजरत महल की जीवनी बेगम हजरत महल प्रथम जिसका नाम मुहम्मदी खानुम था, उनका जन्म भारत में अवध राज्य के फैजाबाद में हुआ था. पेशे से वह दरबार की रखैल मानी जाती थी और उन्हें शाही हरम खावासिन में भेजा गया, क्योकि उनके माता-पिता ने उसे एक शाही दलाल को बेचा और बाद में उनका नाम परी रखा गया और वह महक परी के नाम से प्रसिद्ध हुई. बाद में औध के राजा के अपनाने पर वह बेगम बनी, और उन्हें “हजरत महल” का शीर्षक दिया गया. और कुछ समय बाद ही उन्होंने एक बेटे बिरजिस कद्र को जन्म दिया। 1856 में ही ब्रिटिशो ने औध को हड़प लिया और वाजीद अली शाह को कलकत्ता छोड़कर जाना पड़ा. अपने पति के कलकत्ता छोड़कर जाने के बाद, तलाक लेने की बजाये बेगम ने अवध की सारी जिम्मेदारी अपने हातो में ली, जो आज भारत के उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा भाग माना जाता है. और अग्रजो से लढी पर जीता ना सकी।
बेगम हजरत महल की मृत्यु अंग्रेजों से हार के बाद बेगम हजरत महल नेपाल के आश्रयस्थल में रहने लगी । शुरवात में तो नेपाल के जंग बहादुर उन्हें वहा रहने से मना कर दिया पर बाद में उन्हें शरण दे दी. उसके बाद बेगम हजरत महल पूरा जीवन नेपाल में ही व्यतीत किया और वही 1879 में उनकी मृत्यु हो गयी और जामा मस्जिद के काठमांडू मैदान में उनके शव को दफनाया गया था।
बेगम हजरत महल का स्मारक बेगम हजरत महल दरबार मार्ग के नजदीक घंटाघर के जामा मस्जिद के पास काठमांडू के मध्य भाग में स्थित है. बाद में इसे जामा मस्जिद सेंट्रल समिति की निगरानी में रखा गया था। 15 अगस्त 1962 को पुराने विक्टोरिया पार्क, हज़रतगंज, लखनऊ में आज़ादी की पहली लड़ाई में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिये उन्हें सम्मानित किया गया था. उनकी याद में उन्हें सम्मानित करते हुए बाद में पार्क का नाम बदलकर उन्ही के नाम पर रखा गया था. नाम बदलने के साथ-साथ यहाँ एक संगमरमर का स्मारक भी बनाया गया. बेगम हजरत महल पार्क में रामलीला, दशहरा और लखनऊ महोत्सव जैसे समारोहों का आयोजन भी किया जाता है। 10 मई 1984 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया. लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया था. अपने नाबालिक पुत्र बिरजिस कादर को गद्दी पर बिठाकर उन्होंने अंग्रेजी सेना का स्वयं मुकाबला किया. उनमे संगठन की अभुतपूर्व क्षमता थी और इसी कारण अवध के जमींदार, किसान और सैनिक उनके नेतृत्व में आगे बढ़ते रहे।
स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान बेगम हज़रत महल ने जब तक संभव हो सके तब तक अपनी पूरी ताकत से अंग्रेजो का मुकाबला किया. अंततः उन्हें हथियार डाल कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी. उनके इस सहस को देखते हुए 20 वी शताब्दी में अनेक महिलाये उनसे प्रेरित हुई और आगे बढ़ी। देश के प्रथम स्वतन्त्रता सन 1857 की क्रांति की चिंगारियां जगह – जगह फूट रही थी. देश के हर कोने में इसकी लपट महसूस की जा रही थी. उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र के लोगो में भी आजादी की ललक थी. जगह – जगह विद्रोह शरू हो गये थे. बेगम हजरत महल लखनऊ के विभिन्न क्षेत्रो में घूम – घूम कर लगातार क्रान्तकारियों और अपने सैनिको का उत्साहवर्धन करती रही। बेगम ने लखनऊ और आस – पास के सामन्तो को संगठित किया और अंग्रेजो से डटकर लोहा लिया. सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में बेगम हजरत महल का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा. वस्तुतः अवध की क्रांति की यह गाथा उनकी अपनी गाथा बन गयी है। सन 1801 में अवध के तत्कालीन नवाब शआदत अली खां ने लार्ड वेलेजली द्वारा आरम्भ की गयी सहायक संधि पर हस्ताक्षर कर स्वयं को पंगु बना लिया था. परोक्ष रूप से अवध पर अंग्रेजो का अधिकार स्थापित हो गया था. सन 1847 में वजीत अली शाह अवध की गद्दी पर बैठे. बेगम हजरत महल वाजिद अली शाह की पत्नी थी. वाजिद अली शाह ने गद्दी सँभालते ही सामाजिक और सैनिक सुधार लागू करना शुरू कर दिया। यह बात अंग्रेजो को खटक रही थी कि नवाब वाजिद अली शाह साम्राज्य के प्रशासन में उनका हस्तक्षेप पसंद नहीं कर रहे है. नवाब पर कुशासन और अकर्मण्यता का आरोप लगाकर डलहौजी ने सन 1856 में नवाब को कोलकाता में नजरबन्द कर दिया और अवध साम्राज्य को अपने अधीन कर लिया. अवध के लोगो की नवाब के प्रति गहरी निष्ठा थी, लेकिन कुशल नेतृत्व के अभाव में वे तमाशायी बनकर रह गये। इसी समय सम्पूर्ण भारत में अंग्रेजो के अन्याय, दमन और शोषण की नीति के विरुद्ध प्रतिशोध बढ़ रहा था. मेरठ, दिल्ली, अलीगढ, मैनपुरी, एटा और बरेली आदि स्थानों पर स्वतंत्रता संग्राम आरम्भ हो चूका था. लखनऊ के विद्रोह की शुरुआत 30 मई सन 1857 को मानी जाती है। लखनऊ में विद्रोह प्रारंभ होने के साथ ही अवध के अंतर्गत आने वाले तमाम क्षेत्रों जैसे सीतापुर, मुहम्मदी, सिकरौरा, गोंडा, बहराइच, फ़ैजाबाद, सुल्तानपुर, सलोन और बेगमगंज को अंग्रेजो की अधीनता से मुक्त करा लिया गया. केवल राजधानी लखनऊ पर ही अंग्रेजो का कब्ज़ा था. 30 जून को चिनहट में अंग्रेज बुरी तरह से पराजित हुए और सभी अंग्रेजो ने लखनऊ की रेजीडेंसी में शरण ली। इसी बीच नवाब वाजिद अली शाह के उत्तराधिकारी के रूप में बेगम हजरत महल के अवयस्क पुत्र बिरजीस कद्र को अवध का नवाब घोषित किया गया. बेगम हजरत महल उनकी संरक्षिका बनी। राजकाज के निर्णय में भी बेगम के महत्व को स्वीकार किया गया. बड़े – बड़े ओहदों पर योग्य अधिकारी नियुक्त किये गये. सीमित संसाधनों और विषम परिस्थितयों के बावजूद बेगम हजरत महल लोगो में उत्साह भरती रही. उन्होंने विभिन्न इलाको के उच्चधिकारियों और सामन्तो को संगठित किया. बेगम ने स्त्रियों का एक सैनिक संगठन बनाया और कुछ कुशल स्त्रियों को जासूसी के काम में भी लगाया. महिला सैनिको ने महल की रक्षा के लिए अपने प्राण अर्पित कर दिए। अंग्रेज सैनिक लगातार रेजीडेंसी से अपने साथियों को मुक्त कराने के लिए प्रयासरत रहे, लेकिन भारी विरोध के कारण अंग्रेजो को लखनऊ सेना भेजना कठिन हो गया था. इधर रेजीडेंसी पर विद्रोहियों द्वारा बराबर हमले किये जा रहे थे. बेगम हजरत महल लखनऊ के विभिन्न क्षेत्रो में घूम –घूम कर लोगो का उत्साह बढ़ा रही थी। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है. दिल्ली पर अंग्रेजो का अधिकार स्थापित हो चुका था. मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र के बंदी होते ही क्रांतकारी विद्रोहियों के हौसले कमजोर पड़ने लगे. लखनऊ भी धीरे – धीरे अंग्रेजो के नियंत्रण में आने लगा था. हैवलाक और आउट्रूम की सेनाएं लखनऊ पहुँच गयी. बेगम हजरत महल ने कैसरबाग के दरवाजे पर ताले लटकवा दिए. अंग्रेजी सेनाओ ने बेलीगारद पर अधिकार कर लिया. बेगम ने अपने सिपाहियों में जोश भरते हुए कहा ,” अब सब कुछ बलिदान करने का समय है। अंग्रेजो की सेना का अफसर हैवलाक आलमबाग तक पहुँच चूका था. कैम्पवेल भी कुछ और सेनाओ के साथ उससे जा मिला. आलमबाग में बहुत भीड़ इकट्ठी थी. जनता के साथ महल के सैनिक, नगर की सुरक्षा के लिए उमड़ पड़े थे. घनघोर बारिश हो रही थी. दोनों ओर से तोपों की भीषण मार चल रही थी. बेगम हजरत महल को चैन नहीं था। वे चारो ओर घूम – घूम कर सरदारों में जोश भर रही थी. उनकी प्रेरणा ने क्रांतकारी विद्रोहियों में अद्भुत उत्साह का संचार किया. वे भूख प्यास सबकुछ भूलकर अपनी एक – एक इंच भूमि के लिए मर – मिटने को तैयार थे। अंततः अंग्रेजो ने रेजीडेंसी में बंद अंग्रेज परिवारों को मुक्त कराने में सफलता प्राप्त कर ली, मार्च 1858 में अंग्रेजो का लखनऊ पर अधिकार हो गया. लखनऊ पर अधिकार के पश्चात बेगम हजरत महल अपने पुत्र बीरजीस कद्र के साथ नेपाल चली गयी. नेपाल के राजा राणा जंगबहादुर ने प्रारंभ में बेगम हजरत महल को शरण देने में असमर्थता व्यक्त की। लेकिन बेगम के स्वाभिमान से प्रभावित होकर राणा ने उन्हें नेपाल में रहने की जगह दिलाई. वे काठमांडू में साधारण जीवन यापन करने लगी. उन्होंने अंग्रेजो के मान – सम्मान और पेंशन देने के प्रस्ताव को ठुकराते हुए नेपाल में ही रहने में अपना गौरव समझा।
बेगम हजरत का महल व्यक्तित्व भारत के नारी समाज का प्रतिनिधित्व करता है. वे अत्यधिक सुन्दर, दयालु और निर्भीक महिला थी. अवध की सम्पूर्ण प्रजा, अधिकारी तथा सैनिक उनका आदर करते थे। क्रांतकारियों के सरदार दलपत सिंह महल में पहुँचते ही बोले – ” बेगम हुजूर, आपसे एक इल्तजा करने आया हूँ. वह क्या ? बेगम ने पूछा. आप अपने कैदी फिरंगियों को मुझे सौंप दीजिये. मैं उसमें से एक एक का हाथ पैर काटकर अंग्रेजो की छावनी में भेजूंगा. बात पूरी करते – करते दलपत सिंह का चेहरा भयंकर हो उठा। नहीं हरगिज नहीं. बेगम के लहजे में कठोरता आ गयी- हम कैदियों के साथ ऐसा सलूक न तो खुद कर सकते है और न किसी को इसकी इजाजत दे सकते है. कैदियों पर जुल्म ढाने का रिवाज हमारे हिन्दुस्तान में नहीं है. हमारे जीते जी फिरंगी कैदियों व उनकी औरतो पर जुल्म कभी नहीं होगा। सन 1874 में भारतीय क्रांति की यह क्रान्तिमयी तारिका इस जगत से विदा हो गयी. बेगम हजरत महल ने जिन विपत्तियों व विषम परिस्थितयो में साहस, धैर्य और आत्मसम्मान के साथ अपने कर्तव्य का निर्वाह किया वह हमारे लिए सदैव प्रेरणा बना रहेगा।
बाद का जीवन अंग्रेजों से पराजय के बाद बेगम हजरत महल को नेपाल में शरण लेनी पड़ी। प्रारंभ में तो नेपाल के राना प्रधानमंत्री जंग बहादुर ने मना कर दिया पर बाद में उन्हें शरण दे दी गयी। इसके बाद उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन नेपाल में ही व्यतीत किया जहाँ सन 1879 में उनकी मृत्यु हो गयी। उन्हें काठमांडू के जामा मस्जिद के मैदान में दफनाया गया।
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