Bal Gangadhar Tilak 1/2 ( लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक )
Bal Gangadhar Tilak 1/2
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद के नेताओं में तिलक का नाम अग्रणी है भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उसकी स्थापना के काल से ही उदारवादियों का वर्चस्व रहा !
उदारवादी नेता अपने पवित्र मंन्तव्यो के पश्चात भी, आग्रह की अपनी पद्धतियों से ब्रिटिश सरकार को भारत में वांछित सुधारों के प्रति प्रेरित नहीं कर सके !
उदारवादी रीति-नीति की असफलता की सहज प्रतिक्रिया में देश के विभिन्न हिस्सों में राष्ट्रवादी आंदोलन की धारा उठने लगी !
पंजाब में लाला लाजपत राय बंगाल में विपिन चंद्र पाल और महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने हीं राष्ट्रवादी चेतना का शंखनाद किया ! कांग्रेस के मंच पर इन नेताओं के सामूहिक प्रयत्नो से राष्ट्रवादी आंदोलन का अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त हुआ !
कांग्रेस में राष्ट्रवादियों की यह त्रिमूर्ति लाल- बाल-पाल नाम से सुविख्यात हुई ! इस त्रिमूर्ति में तिलक वरिष्ठतम तो थे ही इन सब में प्रमुख भी थे उनके विषय में महर्षि अरविंद लिखा था "वे भारत के दो या तीन ऐसे प्रमुखतम व्यक्तियों में से एक थे जिनकी संपूर्ण देश ने आराधना की और अनुसरण किया"
तिलक ने राष्ट्रीय आंदोलन में एक नई चेतना का संचार किया और राजनीतिक चेतना को बुद्धिजीवियों के 'वाणी-विलास' की अपेक्षा जनमानस के स्वाभिमान और राष्ट्रगौरव की अनुभूति का पर्याय बना दिया!
यद्यपि तिलक को अपने दृष्टिकोण और पद्धतियों के कारण कांग्रेस में उदारवादियों के कड़े प्रतिरोध का निरंतर सामना करना पड़ा तथापि उनके विरोधी भी उनकी उद्दाम देशभक्ति मातृभूमि की सेवा की उत्कृष्ट लालसा तथा देश की सेवा के लिए बलिदान और त्याग करने की तत्परता आदि गुणों के प्रशंसक थे !
तिलक भारत के संभवत प्रथम ऐसे नेता थे जिन्हे राजनीतिक आंदोलन के लिए कारावास भेजा गया ! उनका संपूर्ण जीवन त्याग तपस्या और बलिदान की ओजपूर्ण गाथा है !
संक्षिप्त परिचय ( Brief Introduction )
तिलक का जन्म महाराष्ट्र के कोंकण जिले के रत्नागिरी में 23 जुलाई 1856 ईसवीं को हुआ था ! गोखले की भांति वे भी महाराष्ट्र के प्रसिद्ध चित्तपावन ब्राम्हण समुदाय के थे तिलक का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो अपनी धर्म परायणता विद्वता और धार्मिक परंपराओं के पालन में कट्टरता के लिए विख्यात था
उनके पिता शिक्षक थे और वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे ! गणित पर भी उनका अच्छा अधिकार था इस प्रकार तिलक को जो वातावरण बाल्यकाल में मिला उनमें ज्ञान की गरिमा और परंपराओं के प्रति प्रतिबद्धता का विलक्षण समन्वय था!
तिलक के पिता ने उन्हें संस्कृत और गणित के प्रति रुचि प्रारंभ से ही उत्पन्न कर दी जब तिलक 10 वर्ष के ही थे तो उनके पिता का स्थानांतरण पूना हो गया ! पुना में आने से तिलक को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर सहज ही उपलब्ध हो गए !
तिलक ने 1876 में बीए परीक्षा उत्तीर्ण कर ली उनके सहपाठियों और मित्रों का अनुमान था कि अध्ययन और अनुसंधान में गंभीर रुचि के कारण वे गणित में स्नातकोत्तर उपाधि के लिए अध्ययन करेंगे किंतु उंहें इस बात बात से बहुत आश्चर्य हुआ कि तिलक ने आगे अध्ययन के लिए गणित की अपेक्षा कानून को चुना
सहपाठियों कि इस जिज्ञासा पर कि उन्होंने उच्चतर अध्यन के लिए कानून का चुनाव क्यों किया तिलक द्वारा दिए गए उत्तर ने यह स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने देश सेवा और संघर्ष का मार्ग अपने लिए पूर्वतः ही निश्चित कर रखा था
तिलक ने कहा "मैं अपना पूरा जीवन केवल जनता के उत्थान के लिए समर्पित कर देना चाहता हूं, अतः मैं समझता हूं कि इस कार्य में साहित्य विज्ञान में विश्वविद्यालय की उपाधि की अपेक्षा, कानून का ज्ञान अधिक उपयोगी सिद्ध होगा मैं ऐसे जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता जिसमें कि मेरा ब्रिटिश सत्ता के साथ टकराव ना हो"
यह स्पष्ट था कि तिलक कानून की उपाधि सरकारी सेवा में प्रवेश करने के लिए योग्यता अर्जित करने अथवा वकालत कर कर के प्रसिद्ध धन कमाने की इच्छा से प्राप्त नहीं कर रहे थे !!
उनका यह दृढ़ विश्वास था कि इस देश में विदेशी शासन का उन्मूलन किया जाना अत्यंत आवश्यक था और यह तभी संभव हो सकता था जब सुख सुशिक्षित नवयुवक सरकारी नौकरियों और सुख सुविधा का जीवन बिताने का मोह छोड़कर स्वयं को लोगों को जागृत करने और उन्हें ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए संगठित करने में पूर्ण क्षमताओ के साथ समर्पित कर दें !!
तिलक ने जनता की सेवा के मार्ग का चयन करके उसके लिए सर्वप्रथम जनता को शिक्षित बनाने की आवश्यकता अनुभव की ! तिलक, विष्णुशास्त्री चिपलूनकर और आगरेकर ने मिलकर पुना में 1 जनवरी 1880 को न्यू इंग्लिश स्कूल का प्रारंभ कर दिया!!
न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना तिलक की प्रथम सार्वजनिक गतिविधि थी तिलक,आगरेकर और चिपलूनकर के प्रयत्नो से स्कूल ने बहुत अच्छी प्रगति की !!
15 वर्ष की अवधि में ही स्कूल में छात्रों की संख्या एक हजार से अधिक हो गई परीक्षा परिणाम की दृष्टि से यह स्कूल पूरी प्रेसिडेंसी में अग्रणी रहने लगा स्कूल का मुख्य उद्देश्य बालकों को सस्ती दर पर सर्वश्रेष्ठ शिक्षा उपलब्ध कराना था!
स्कूल का उद्देश्य बात विद्यार्थियों को केवल शिक्षित करना नहीं, अपितु उन्हें सार्वजनिक जीवन के लिए भली भांति प्रशिक्षित करना भी था यह स्कूल राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में एक प्रयोग था स्कूल की सफलता का श्रेय इसके संस्थापक और शिक्षकों की त्याग वृत्ति और कर्तव्य निष्ठा को था
तिलक नहीं यह अनुभव कर लिया कि देश में जनता को जागृत करके, उसे राष्ट्रीय आंदोलन का सक्रिय भागीदार बनाए बिना कोई क्रांतिकारी परिवर्तन संभव नहीं था तिलक ने राष्ट्रीय जागृति और जनता को शिक्षित करने के उद्देश्य से समाचार पत्रों का प्रकाशन का निश्चय किया 1881 में उन्होंने अंग्रेजी में मराठा और मराठी में केसरी प्रकाशन प्रारंभ कर दिया!
इन पत्रों के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य देश से संबंधित प्रत्येक विषय पर स्वतंत्र दृष्टिकोण का प्रतिपादन करना तथा संसार में घट रही घटनाओं का विश्लेषण कर उनसे लोगों को अवगत कराना था !!
दोनों पत्र शीघ्र ही महाराष्ट्र में लोकप्रिय हो गए इन पत्रों में प्रकाशित विचारों के कारण तिलक और आगरेकर को भारी कष्ट भी देने पड़े कोल्हापुर में दीवान राव बहादुर बर्वे ने इन पर मानहानि का मुकदमा दायर किया जिसमें दोनों को 4 महीने के कारावास की सजा सुनाई गई!
जेल में दोनों को भारी कष्ट उठाने पड़े किंतु इस कारावास के कारण इन दोनों नेताओं को जनता से अत्यंत प्रशंसा और सम्मान प्राप्त हुआ और कारावास के पश्चात में प्रभावशाली जननायक के रूप में प्रतिष्ठित हुए तिलक को महाराष्ट्र प्रांत के प्रमुख नेता के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई!!
स्कूल की गतिविधियों को सुचारु ढंग से चलाने के लिए तिलक, आगरेकर और उनके सहयोगियों ने इसे एक सार्वजनिक संस्था का रूप देने का निश्चय किया! उन्होंने 1885 में दक्कन एजुकेशन सोसाइटी के नाम से एक सार्वजनिक संस्था की स्थापना की!
सोसाइटी ने मुंबई के गवर्नर सर जेंम्स फर्ग्यूसन के नाम से एक कॉलेज स्थापित करने का निश्चय किया कई रियासतों के शासकों ने कॉलेज स्थापना करने के लिए सोसाइटी को मुक्त हस्त से धन प्रदान किया!!
दक्कन एजुकेशन सोसाइटी में तिलक और आगरेकर के मतभेद हो गए किंतु यह मतभेद व्यक्तिगत नहीं थे व्यापक सामाजिक प्रश्नों, समाज सुधार की वरीयता, भारतीय संस्कृति के प्रति दृष्टिकोण आदि के संबंध में दोनों के दृष्टिकोण में विद्यमान भिन्नता के कारण आगरेकर और तिलक साथ साथ काम ना कर सके और तिलक ने दक्कन एजुकेशन सोसाइटी का परित्याग कर दिया!
आगरेकर ने सुधारक के नाम से एक अलग समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया सोसाइटी से अलग होने के पश्चात तिलक ने भी अपना सारा समय केसरी और मराठा के संपादन कार्य में लगाना प्रारंभ कर दिया
तिलक प्रकांड विद्वान थे उन्होंने वेदों उपनिषदों और अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथों का गहन अध्ययन किया उन्होंने दी आर्क्टिक होम इन द वेराज ओरामन वेदिक क्रोनोलॉजी एवं वेदांग ज्योतिष आदि ग्रंथों की रचना की!
उनका ग्रंथ गीता रहस्य भारतीय दर्शन में उनकी पैट और मौलिक अंतर्दृष्टि का स्पष्ट प्रमाण है केसरी और मराठा के संपादक के रूप में तिलक ने सरकारी नौकरशाही की दमनकारी नीति के विरोध अभियान छेड़ दिया इन दोनों पत्रों में प्रकाशित लेख जनता को जागरण और स्वाभिमान का संदेश देते थे!
जनता में प्राचीन संस्कृति के प्रति आत्मगौरव का भाव विकसित करने के उद्देश्य से तिलक ने गणपति उत्सव को एक नया स्वरुप प्रदान किया और प्राचीन जननायकों के प्रति सम्मान का भाव विकसित करके जनता के स्वाभिमान को जागृत करने के उद्देश्य से उन्होंने शिवाजी उत्सव प्रारंभ किया !
महाराष्ट्र की जनता के मध्य ऐसी भावना उत्पन्न करने के लिए तिलक को शिवाजी सर्वाधिक उपयुक्त चरित्र प्रतीत हुए कालांतर में शिवाजी उत्सव का क्षेत्र महाराष्ट्र तक सीमित नहीं रहा तथा वह राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीक के रूप में देश के अन्य भागों में भी मनाया जाने लगा!!
इन दोनों उत्सव के माध्यम से तिलक वास्तविक अर्थ में जननायक बन गए और उनकी लोकप्रियता में असीम वृद्धि हुई 1896-97 में पूना में भयंकर प्लेग फैला तिलक ने प्लेग से पीड़ित जनता की प्राण-पण से सेवा की!
प्लेग की रोकथाम के नाम पर उस समय ब्रिटिश अफसरशाही ने उच्छृंखलता और सत्ता के अहंकार का खुला प्रदर्शन किया! धार्मिक स्थानों और पूजा स्थलों की पवित्रता को भी नष्ट किया गया पुरुषों और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया गया
तिलक अफसरशाही के इस दुर्व्यवहार से बहुत क्षुब्ध हुए और उन्होंने प्लेग की रोकथाम के अभियान के दौरान सरकारी ज्यादतियों का खुला विरोध किया !!
सरकारी अधिकारियों के प्रति जनता में फैले रोष का परिणाम ब्रिटिश अधिकारी रैंड व उसके सहयोगी की हत्या के रूप में सामने आया तिलक पर लोगों को हत्या के लिए उकसाने का आरोप लगा यद्यपि तिलक का इस हत्या से प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रकार का संबंध स्थापित नहीं हो पाया!!
प्लेग के दौरान समर्पित जन सेवा की भावना तथा केसरी और मराठा में देशभक्ति पूर्ण ओजस्वी विचारों के प्रकाशन द्वारा तिलक ने जनता के मानस में एक दलित निर्भीक और ब्रिटिश विरोधी जन नेता के रूप में छवि बना ली!!
इन दोनों समाचार पत्रों में तिलक द्वारा प्रकाशित विचार तथा तिलक की सार्वजनिक गतिविधियों ब्रिटिश अधिकारियों की आंखों में खटकने लगी इस संदर्भ में तिलक की भूमिका के विषय में टाइम्स ऑफ इंडिया नामक समाचार पत्र ने टिप्पणियां की उन टिप्पणियों से यह अर्थ निकलता था कि तिलक ने रैण्ड के हत्यारों को हत्या के लिए उकसाया है
तिलक ने उक्त समाचार पत्र के विरुद्ध मानहानि का मुकदमा दायर करने का निश्चय किया इस उद्देश्य से जब वह मुंबई गए तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया
तिलक को राजद्रोह के आरोप में 18 महीने की सजा सुनाई गई राजद्रोह के इस मुकदमे में तिलक की स्वतंत्र गतिविधियों पर थोड़े समय के लिए रो अवश्य लगा दी किंतु इससे उनकी प्रतिष्ठा प्रांतीय स्तर से बढ़कर अखिल भारतीय हो गई
पूरे राष्ट्र ने उनकी वीरता और देशभक्ति की सराहना की तथा वह एक राष्ट्रवादी नेता के रुप में पूरे देश में प्रतिष्ठित हो गए उनकी कार्यशैली और विचारों के विरोधी भी तिलक के कारावास से दुखी हुए कांग्रेस के अधिवेशन में भाषण देते हुए सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने कहा कि "तिलक के बंदी होने के कारण सारा राष्ट्रीय रो रहा है
1889 मे तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हुए उस समय कांग्रेस में उदारवादी नेताओं दादा भाई नौरोजी फिरोजशाह मेहता दिनशा वाचा आदि का वर्चस्व था गोपाल कृष्ण गोखले भी तिलक के साथ ही कांग्रेस में सम्मिलित हुए थे!
तिलक ने शीघ्र ही अनुभव किया कि कांग्रेस जनता को जागृत करने और ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध प्रभाव कारी जन आंदोलन संगठित करने के कार्य में सफल नहीं हो पा रही थी अतः वह एक ऐसे निस्तेज संगठन के रूप में कार्य कर रही थी जो साल में एक बार किसी बड़े शहर में अपना अधिवेशन आयोजित कर लें और ब्रिटिश सरकार की कुछ नीतियों की आलोचना करते हुए प्रस्ताव पारित कर लें
तिलक की यह मान्यता बन गई की उदारवादियों की पद्धतियों ज्ञापन, आग्रह, और अनुनय से कोई लाभ नहीं होने वाला था तथा ब्रिटिश सरकार को भारत की जनता की आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए अधिक प्रभावशाली उपाय अपनाए जाने की आवश्यकता थी!!
कांग्रेस में उदारवादियों से तिलक के गंभीर मतभेद शीघ्र ही प्रकट हो गए वह विपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय के साथ मिलकर कांग्रेस में राष्ट्रवाद के प्रखर प्रवर्तक बन गए किंतु यह उग्रवाद किसी हिंसक या कानूनी-विरोध गतिविधियों से प्रेरित नहीं था अपितु इस आग्रह पर आधारित था कि ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने के लिए भारतीय जनता में राष्ट्र गौरव का भाव जागृत किया जाना चाहिए और उसे स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए संघर्ष हेतु संगठित और प्रेरित किया जाना चाहिए !!
कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में तिलक और अन्य राष्ट्रवादियों को पर्याप्त सफलता मिली तिलक के प्रयत्नो से कांग्रेस द्वारा बंगाल के विभाजन के रूप में लॉर्ड कर्जन द्वारा भारतीय जनता की अस्मिता को दी गई चुनौती का मुकाबला 'स्वदेशी' और 'बहिष्कार' के अस्त्रों द्वारा किए जाने का प्रस्ताव पारित किया गया
तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार के विचारों को सफल जन आंदोलन में परिणत कर दिया इन आंदोलनों की सफलता तिलक की अद्भुत संगठनात्मक क्षमता और जनता पर उनके गहरे प्रभाव की परिचायक थी कांग्रेस में उदारवादियों और राष्ट्रवादियों के मध्य मतभेद बढ़ते ही गए उदारवादियों के आंदोलन के संविधानिक साधनों में तिलक को आस्था नहीं थी
संविधानिक साधनों के आग्रह पर तिलक कटाक्ष करते थे कि "क्या भारत में भारतीय दंड संहिता के अलावा भी और कोई संविधान है-"
उदारवादियों और उग्रवादियों के मध्य मतभेद की दुखद परिणीति 1907 में सूरत में कांग्रेस के विभाजन के रूप में हुई सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध देश में कई स्थानों पर हिंसक आंदोलन और क्रांतिकारी गतिविधियां भी प्रारंभ हो गई मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस ने बम फेंका इस बम कांड के संदर्भ में केसरी में लिखे गए लेखो के कारण तिलक पर पुनः राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें 6 वर्षों तक के लिए मांडले जेल में भेज दिया गया!!
यद्यपि तिलक पर लगाया गया राजद्रोह प्रकट पर केसरी में लिखे गए उनके लेख "देश का दुर्भाग्य" में उनके द्वारा कथित रूप से ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध घृणा और विद्रोह के भाव भड़काने वाले विचारों के आधार पर लगाया गया किंतु इसका वास्तविक कारण यही था कि उस समय तक सरकार तिलक की बढ़ती हुई लोकप्रियता और जनमानस में अपने देश भक्ति पूर्ण विचारों के प्रभाव से भयभीत हो चुकी थी
तिलक के 6 वर्ष के कारावास के विरोध में मुंबई की उम्मीद मजदूरों ने 6 दिन की हड़ताल रखी यह तिलक की लोकप्रियता और जनमानस में उनके प्रभाव को स्पष्ट प्रमाण था मांडले जेल में तिलक को लगभग एकांतवास में रखा गया जेल की भौतिक दशाएं और जलवायु तिलक के स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं थी कारावास की कठिनाइयों का तिलक के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा किंतु तिलक ने इस अवधि का सार्थक उपयोग स्वाध्याय और लेखन में किया !!
उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक गीता रहस्य मांडले जेल में ही लिखी जून 1914 में मांडले जेल से छूटने के पश्चात उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उनके कई मित्रों ने उन्हें परामर्श दिया कि वह सक्रिय राजनीति से सन्यास ले कर अपना जीवन अध्ययन व लेखन में लगा दे तिलक ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और भावपूर्ण शब्दों में कहा कि- "यदि भारत स्वतंत्र हो गया होता तो वह अपने आप को पुस्तकों के प्रति समर्पित कर देते तथा लेखन और अध्यापन में अपना शेष जीवन गुजार देते उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि राजनेता के रूप में ही मेरी मृत्यु नियति है और इस नियति को मैंने प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार किया है!!"
1916 में तिलक लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित हुए कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन उग्रवादियों और उदारवादियों के मध्य औपचारिक पुनर्मिलन मात्र नहीं था कांग्रेस में अपने पुनः प्रवेश के माध्यम से तिलक ने कांग्रेस के रूपांतरण का मार्ग प्रशस्त कर दिया और आने वाले वर्षों में वह उसे एक ऐसे संघर्ष कारी संगठन का रूप दे सके जो जनता में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करके उन्हें उनके अधिकारों और दायित्व के प्रति सजग बना सके
इसी समय तिलक ने अपना प्रेरणास्पद नारा स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा घोषित किया कांग्रेस के मंच से स्वराज्य का आव्हान एक संगठन के रूप में कांग्रेस के चरित्र का गुणात्मक रूपांतरण था
1918 में तिलक ने इंग्लैंड की यात्रा की तिलक की यह यात्रा लॉर्ड शिराॅल द्वारा लिखी गई पुस्तक दी इंडियन अनरेस्ट में तिलक के संबंध में व्यक्त किए गए अवमानना पूर्ण विचारों के लिए उनके विरुद्ध मानहानि का मुकदमा दायर किए जाने के संबंध में थी
यद्यपि तिलक को ब्रिटिश न्याय पालिका के पक्षपात पूर्ण रवैया के कारण इस मुकदमे में सफलता नहीं मिली किंतु अपनी इंग्लैंड यात्रा का सार्थक उपयोग उन्होंने होमरूल लीग की स्थापना करके किया
इंग्लैंड यात्रा से भारत लौटने पर तिलक का बंबई में अभूतपूर्व स्वागत किया गया 1918 में वह दिल्ली में कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए किंतु उस समय तक भारत वापस न आ पाने के कारण उनकी अनुपस्थिति में महामना मदन मोहन मालवीय को अध्यक्ष बनाया गया!!
1919 में कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में तिलक ने 1919 के भारत शासन अधिनियम के रूप में प्रस्तावित सुधारों के प्रति असंतोष व्यक्त किया वस्तुतः वह उस समय सुधारों की ऐसी योजना के पक्षधर थे जो भारत में समयबद्ध आधार पर पूर्ण उत्तरदाई शासन की स्थापना के उद्देश्य के प्रति समर्पित हो!!
1919 में गांधी जी कांग्रेस संगठन में महत्व प्राप्त करने लगे थे जलियांवाला बाग में बर्बर नरसंहार की घटना ने गांधी को क्षुब्ध कर दिया था उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों के विरुद्ध असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव किया गांधी जी द्वारा प्रस्तावित असहयोग आंदोलन की रूपरेखा से तिलक सहमत नहीं थे किंतु कांग्रेस ने गांधीजी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया
1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन का सूत्रपात करने का निश्चय घोषित किया 1 अगस्त 1920 को ही तिलक का बंबई में निधन हो गया तिलक का निधन और गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन का सूत्रपात देश के राजनीतिक भविष्य के रूपांतरण का संकेत था!!
तिलक के राजनीतिक विचार ( Political views of Tilak )
तिलक ने राज्य से संबंधित सिद्धांतिक पक्षों का विस्तृत व व्यवस्थित विवेचन नहीं किया किंतु उन्होंने राजनीतिक प्रश्नों पर मौलिक दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया स्वतंत्र स्वराज्य राज्य के प्रयोजनों राज्य व्यक्ति व समाज के संबंधों आदि पर तिलक ने जो विचार व्यक्त किए वह उनके दृष्टिकोण और वैचारिक स्पष्टता को उजागर करते हैं
1. व्यक्ति की स्वतंत्रता की आध्यात्मिक धारणा
तिलक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर बाध्यकारी नियंत्रण को अनैतिक मानते थे! स्वतंत्रता कि उनकी धारणा उनकी आध्यात्मिकता आस्था से ही निर्धारित हुई थी! भारतीय अद्वैतवाद में गहरी आस्था होने के कारण तिलक सभी मनुष्यों को निरपवाद परमात्मा का अंश स्वीकार करते थे!
इस प्रकार उनके लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता का निषेध ईश्वर की सत्ता के निषेध के समान की आपत्तिजनक और अपवित्र था!! तिलक के लिए स्वतंत्रता व्यक्ति की बाहरी नियंत्रणों से मुक्ति का नकारात्मक परिणाम नहीं, अपितु व्यक्ति की ऐसी सामर्थ्य के रूप में समझी जा सकती थी
जिसके द्वारा वह अपने ईश्वरीय अंश को व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में प्रतिबिम्बित कर सकें!! इस प्रकार राजनीतिक स्वतंत्रता तिलक के लिए स्वयं में साध्य नहीं थी, अपितु वह व्यक्ति की आध्यात्मिक स्वतंत्रता की पूर्व-शर्त थी तथा अनिवार्य रूप से उसकी पूरक थी
व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति तिलक का नैतिक आग्रह राष्ट्रों की स्वतंत्रता के प्रति उनके दृष्टिकोण में भी पूर्णता परिलक्षित हुआ राष्ट्रों की स्वतंत्रता और आत्म-निर्णय के अधिकार के प्रति तिलक का आग्रह भारतीय दर्शन और पश्चिमी उदारवादी आग्रहों ग् के विलक्षण समन्वय का उदाहरण था
उन्होंने राष्ट्र की जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा दी गई परिभाषा को स्वीकार किया उन्होंने 1919 में विल्सन द्वारा घोषित राष्ट्रीय आत्म निर्णय के सिद्धांत का समर्थन किया उन्होंने इसी सिद्धांत को भारत के संबंध में क्रियान्वित किए जाने का आग्रह किया!!
2. राज्य के प्रयोजनों के संबंध में उपयोगिता वादी तर्कों का विरोध
बेंथम का उपयोगितावाद तर्क 'अधिकतम व्यक्तियो का अधिकतम सुख' तिलक को मानने नहीं था राज्य की गतिविधियों के संबंध में 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' का आग्रह भी तिलक स्वीकार नहीं करते थे
तिलक की आस्था व्यक्ति के अस्तित्व के नैतिक परियोजनाओं में थी अतः राज्य द्वारा बहुसंख्यक व्यक्तियों के अधिकाधिक भौतिक ज्ञान की अपेक्षा वह व्यक्तियों के नैतिक और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति को अधिक महत्व देते थे
वह बेंथम की अपेक्षा मिल के इस विचार के अधिक निकट है कि राज्य को अधिक व्यक्तियों के हीनत्तर सुखो की पूर्ति का पर्यटन करने की अपेक्षा,व्यक्तियों के श्रेष्ठ कर अथवा नैतिक और आध्यात्मिक कल्याण को सुनिश्चित करने का प्रयत्न करना चाहिए तथा ऐसे कल्याण से लाभान्वित होने वाले व्यक्तियों की संख्या को निर्णायक आधार नहीं माना जाना चाहिए
तिलक ने राज्य की गतिविधियों के औचित्य को सिद्ध करने के लिए उन गतिविधियों से लाभान्वित होने वाले जन समुदाय की संख्या के गणितीय तर्क को बिल्कुल अस्वीकार किया!! कल्याण के इस संख्यात्मक सूत्र पर तिलक ने जो आक्षेप किए वे राज्य के प्रयोजन के विषय में उनके नैतिक और आदर्शवादी दृष्टिकोण के प्रमाण है !!तिलक ने अपने ग्रंथ गीता रहस्य में किसी बात के औचित्य के स्पष्टीकरण के लिए संख्या को आधार मांगने का सर्वथा निषेध किया इस संबंध में उनके तर्कों का सार अगर लिखित रुप में प्रस्तुत किया जा सकता है--
(क) संख्यात्मक मापदंड अपर्याप्त भी होते हैं और ब्राह्मण भी उन्होंने उदाहरण दिया कि महाभारत के युद्ध में कौरव संख्या में अधिक थे तथा पांडव कम! युद्ध के अवसर पर कौरवों के साथ 11 अक्षौहिणी सेना थी जबकि पांडवों के साथ केवल 7 अक्षौहिणी सेना थी किंतु केवल इस संख्यात्मक आधार पर यह निर्णय करना उचित नहीं नहीं होगा कि पांडव अधर्म के मार्ग पर थे
तिलक के अनुसार पांडवों का वास्तविक बल उनकी संख्या में नहीं अपितु उनके प्रयोजनो की नैतिक श्रेष्ठता में निहित था!! तिलक का मत था कि किसी भी अवसर पर नैतिक प्रश्नों का संख्या के आधार पर निर्णय करना उचित नहीं माना जा सकता!!
( ख् ) किसी बात के औचित्य के निर्धारण का यह आधार नहीं हो सकता कि लोगों का बहुमत उसे जनहितकारी मानता है !!निर्मल विवेक से शून्य अधिकांश लोगों की अपेक्षा, जागृत विवेक से युक्त एक व्यक्ति की बात भी हितकारी हो सकती है उदाहरण के लिए सुकरात और ईसा मसीह दोनों अपने देशवासियों को ऐसे सिद्धांतों का उपदेश दे रहे थे
जो उनके विवेक के अनुसार अंतर्गत सबके लिए कल्याणप्रद थे किंतु उस समय देश वासियों ने उनके विचारों का मूल्य नहीं समझा और उन्हें समाज का शत्रु ठहराकर मृत्यु दंड दे दिया !! आज इस विषय में कोई दो मत नहीं है कि उस समय सुकरात और ईसा मसीह न्याय और औचित्य के पक्ष पर थे और बहुसंख्यक जन समुदाय द्वारा किया गया आचरण अनुचित था !! अतः नेतिक दृष्टि से इस प्रश्न का निर्धारण करना सरल कार्य नहीं है कि कोई बात वास्तव में बहुजन हिताय है अथवा नहीं
(ग) अधिकतम व्यक्तियो का अधिकतम सुख का उपयोगितावादी सिद्धांत यांत्रिक है और वह मनुष्य की प्रेरक शक्तियों पर विचार नहीं करता!! तिलक का तर्क था कि मनुष्य यंत्र की तरह आचरण नहीं करता उनका कथन था कि किसी कार्य का बाहरी प्रभाव या परिमाण देख कर ही उसके औचित्य का निधारण नहीं किया जा सकता! उस कार्य को संपन्न करते समय कार्य करने वाले के मंतव्य और प्रयोजनो पर भी विचार करना आवश्यक होता है
तिलक ने उदाहरण दिया कि एक बार एक अमेरिकी शहर में वहां के नगरवासियों की सुख सुविधा के लिए एक ट्राम-वे बनाने के कार्य में इस कारण विलंब हो रहा था कि संबंधित अधिकारी उसके लिए आवश्यक स्वीकृति नहीं दे रहे थे ट्रांम-वे का निर्माण कर रही कंपनी ने अधिकारियों से स्वीकृति पाने के लिए उन्हें रिश्वत दे दी जिससे की स्वीकृति शीघ्र प्राप्त हो गई इस स्वीकृति के बाद ट्राम वे में जल्दी ही बन भी गया और शहर के लोगों को उससे काफी सुविधा भी हुई
किंतु थोड़े दिन बाद रिश्वत का मामला सामने आया और ट्रांम-वे में बनाने वाली कंपनी की व्यवस्थापक को सजा हो गई तिलक का तर्क की परिणाम की दृष्टि से, रिश्वत लेकर ट्रांबे का निर्माण करने का कार्य बहुजन सुखाय था किंतु प्रश्न यह है कि ट्राम-वे कंपनी का व्यवस्थापक जब संबंधित अधिकारों को को रिश्वत देने का निर्णय कर रहा था तब उसका मंतव्य वास्तव में जनहित नहीं था अपितु ट्राम-वे काजल्दी निर्माण कर स्वयं लाभ कमाना अधिक था!!
तिलक के अनुसार अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख के भौतिकवादी सूत्र का नैतिक प्रतिकार केवल यह हो सकता है कि भौतिक वस्तुओं की उपलब्धियां भौतिक सुखों की प्राप्ति को कल्याण की परिभाषा में से निकाल दिया जाए तथा ऐसे सुखों की कल्पना की जाए जो व्यक्तियों को शुद्ध विवेक यहां शुद्ध मन की अवस्थाओं से प्राप्त हो तिलक का दृढ़ विश्वास था कि यदि मनुष्य ऐसे सुख के प्रति समर्पित हो जाए तो सबके हितों और एक व्यक्ति के हितों में कोई टकराव रहेगा ही नहीं!!
3.स्वराज्य की धारणा
तिलक की स्वराज्य की धारणा मौलिक और सकारात्मक थी वह विदेशी आधिपत्य से मुक्ति को स्वराज्य का पहला सोपान स्वीकार करते थे किंतु केवल विदेशी आधिपत्य से मुक्ति उनके स्वराज्य का मर्म नहीं था !!
तिलक के मत में विदेशी शासन राज्य की अनुभूति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा थी उनके अनुसार व्यक्ति के लिए स्वराज्य का अर्थ था व्यक्ति को स्वधर्म पालन की स्वतंत्रता वहीं एक राजनीतिक प्रणाली के रूप में स्वराज्य का अर्थ था धर्म राज्य की स्थापना
स्वराज्य से उनका आशय एक ऐसी प्रशासन प्रणाली से था जो पूरी तरह जनता के हितों के प्रति समर्पित हो जिसमें राजकीय शक्ति जनता के स्वाभिमान के अपहरण का माध्यम न बने अपितु उसका उपयोग इस रीती से किया जाए कि जनता समझ सके कि वह शासित नही है,, अपितु शासन उसकी सहमति और अनुमति से चलाया जा रहा है
सारतः तिलक के स्वराज्य की धारणा में सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक समस्त प्रश्नों के निर्धारण में जनता की सक्रिय व सार्थक भागीदारी आवश्यक थी तिलक का स्पष्ट दृष्टिकोण था कि ऐसा शासन जो शासक की निरंकुश शक्तियों पर नियंत्रण की व्यवस्था न रखता हो जनहित के प्रति संवेदनहीन हो तथा केवल शासक के स्वार्थों की पूर्ति के लिए चलाया जा रहा हूं स्वराज्य की धारणा के अनुकूल नहीं माना जा सकता भले ही वह शासन सदस्यों द्वारा ही चलाया जा रहा हो
इस कारण तिलक भारत की देशी रियासतों में विदेशी राजाओं द्वारा चलाए जा रहे शासन को स्वराज्य का उदाहरण नहीं मानते थे तिलक का स्वराज्य किसी विदेशी विदेशी शासक के हाथों में शक्तियों के अमर्यादित केंद्रीयकरण को नहीं ,,अपितु शासन के पूर्णतः जनहित के प्रति समर्पण और शासन के कार्यों पर जनता के निर्णायक नियंत्रण के भाव को समाहित करता था
उनके स्वराज्य का मर्म राज्य की शक्ति पर जागृत लोक शक्ति के प्रभावी नियंत्रण में निहित था तिलक कि यह दृढ मान्यता थी कि जब तक अपना भाग्य स्वयं ही निर्धारित करने की शक्ति भारतीय जनता के हाथों से नहीं आती,, तब तक सरकार की सद्-इच्छा पर निर्भर रहते हुए क्रमिक आर्थिक सुधारों का राष्ट्र के निर्माण की दृष्टि से भी कोई लाभ नहीं होगा क्योंकि इन सुधारों से जनता के आत्मविश्वास है स्वाभिमान व्यक्ति नहीं होगी
तिलक की मान्यता की की एक परतंत्र राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए कर्म से प्रगति नहीं कर सकता,, अपितु स्वंय स्वतंत्रता प्राप्त करके अपनी तीव्र प्रगति का मार्ग खोज लेता है
मई 1916 में बेलगांव में एक भाषण में उन्होंने कहा कि "स्वराज्य से हमारा आशय है कि हमारे मामलों का प्रबंध हमारे हाथों में हो" श्रीमती एनी बेसेंट के साथ मिलकर उन्होंने जिस होमरूल लीग की स्थापना की थी उसके उद्देश्य ब्रिटिश सम्राट की औपचारिक सत्ता के अधीन भारत के लिए वास्तविक स्वराज्य प्राप्त करना था उन्होंने यह स्पष्ट किया कि स्वराज्य का अर्थ यह नहीं है कि ब्रिटिश सम्राट की भारत पर औपचारिक सत्ता का उन्मूलन कर दिया जाए
उन्होंने ब्रिटिश सम्राट और भारतीय शासन व्यवस्था के संबंधों की तुलना भारतीय पूजा पद्धति से करते हुए कहा कि ब्रिटिश सम्राट तो ब्रह्मा की भर्ती स्थिर तत्व है उस औपचारिक प्रतिक को बनाए रखते हुए उसके पुजारियों और प्रबंधकों को हटाना चाहते हैं
उन्होंने कहा भारतीय चाहते हैं कि "वह उन पुजारियों और पुरोहितों की अपेक्षा भारतीयों में से पुजारियों और प्रबंधको का निर्वाचन करें!!"
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