वातावरण में उपस्थित विभिन्न रोगाणु शरीर में प्रवेश करके शरीर को रोगग्रस्त कर देते हैं। डब्ल्यूबीसी शरीर में प्रविष्ट रोगाणु को नष्ट करती है। कई परिस्थितियों में डब्ल्यूबीसी अगर रोगाणु को नष्ट कर नहीं कर पाती हैं तो ये शरीर में विभिन्न अंगों को क्षतिग्रस्त कर देते हैं। फलस्वरूप स्वस्थ व्यक्ति रोगी हो जाता है।
शरीर की वह अवस्था जिसमें संक्रमण,दोषपूर्ण आहार,अनुवांशिक एवं पर्यावरणीय कारणों द्वारा शरीर के सामान्य कार्यों एवं कार्यिकी में अनियमितताएं उत्पन्न हो जाती है उन्हें रोग कहते हैं।
शरीर में रोग उत्पत्ति के कई कारक होते हैं जो निम्न प्रकार के है-
जैविक कारक- ऐसे जीव जो रोग की उत्पत्ति का कारण बनते हैं,उन्हें रोगजनक (Pathogens) कहते है। जैसे-वायरस जीवाणु माइकोप्लाज्मा कवक प्रोटोजोआन्स हेल्मीन्थीज आदि।
रासायनिक कारक- ऐसे रासायनिक पदार्थ जो शरीर में रोग उत्पन्न करते हैं। जैसे-प्रदूषण बीजाणु एवं परागकण जो शरीर में उत्पन्न होने वाली यूरिया तथा यूरिक अम्ल आदि।
पोषण कारक- खनिज वसा प्रोटीन विटामिन तथा कार्बोहाइड्रेट आदि
यांत्रिक कारक- घर्षण,चोट लगना,घाव होना,हड्डियों में फैक्चर,पेशियों में खिंचाव आदि।
भौतिक कारक- गर्मी सर्दी आर्द्रता विद्युत करंट ध्वनि या विकिरणों द्वारा रोग उत्पन्न होना।
पदार्थों की अधिकता या कमी- हार्मोन तथा एंजाइम्स की अधिकता या कमी से रोग उत्पन्न हो जाता है।
रोग को प्रकृति तथा कारकों के आधार पर दो भागों में विभाजित किया गया है।
1. संक्रामक रोग- वे रोग जो विभिन्न जीवित कारक जैसे-जीवाणु वायरस प्रोटोजोआ द्वारा उत्पन्न होते हैं। इनका संचरण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में होता है इसीलिए इन्हें संक्रामक रोग कहते हैं। संक्रामक रोग को संचरणीय रोग भी कहते हैं। उदाहरण- गलसुआ, सिफिलिस, चिकन पॉक्स पोलियो एड्स डेंगू डिप्थीरिया पीलिया कुष्ठ रोग या लेप्रोसी
2. असंक्रामक रोग- वे रोग जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में स्थानांतरित नहीं होते है,उन्हें असंक्रामक रोग कहते हैं। यह केवल रोगी तक ही सीमित रहते हैं। इन्हें असंचरणीय रोग भी कहते हैं। उदाहरण- मधुमेह,कैंसर
जीवाणु जनित रोग ( Bacterial diseases )
तपेदिक या क्षय रोग - इसे सामान्य भाषा में टीबी भी कहते हैं।
रोगजनक - माइक्रो बैक्टीरिया ट्यूबरक्लोसिस
लक्षण- थकान लगना, शरीर का वजन कम होना, कफ के साथ रक्त आना, जुकाम तथा बुखार होना,छाती में दर्द रहना,आवाज भारी होना।
रोग का प्रसार- टीबी रोगी के साथ सोने बैठने उठने खाने पीने से,कुपोषण से,संक्रमित पशु का दूध पीने से,संक्रमित व्यक्ति की उपयोग की गई वस्तुओं के उपयोग से,धूम्रपान, हुक्कापान व तंबाकू सेवन से।
उपचार- उपचार हेतु स्ट्रैप्टोमाइसीन, विटामिन बी कंपलेक्स आदि उपयोगी औषधि है बचाव के लिए बीसीजी का टीका नवजात शिशु को लगाया जाता है।
डिप्थीरिया रोग
रोगजनक- कोरनिबैक्टीरियम डिप्थीरियाई
लक्षण- यह जीवाणु गले को प्रभावित करता है। बच्चों में आलस और सुस्ती आना, भूख कम लगना,बुखार आना, सिर दर्द,चक्कर आना,शरीर में तंत्रिका तंत्र,हृदय फेफड़ों को प्रभावित करना,नाक के साथ रक्त स्त्राव आना,श्वास रोध के कारण मृत्यु भी हो जाती है।
उपचार- शिशुओं में डीपीटी का टीका लगाया जाता है,जो डिप्थीरिया काली खांसी और टिटनेस से सुरक्षा प्रदान करता है। एंटीबायोटिक दवाइयां जैसे पेनिसिलिन इरिथ्रोमाइसिन आदि देनी चाहिए।
पीलिया रोग
इस रोग के कारण यकृत रोग ग्रस्त हो जाता है जिसे लिवर सिरोसिस या हेपेटाइटिस रोग भी कहते हैं। इस रोग से व्यक्ति गंभीर रूप से पीलिया ग्रस्त हो जाता है।
रोगजनक - लैप्टोस्पाइरा जीवाणु
लक्षण - यकृत्त अक्रिय होना, रक्त और ऊतकों में पित्त वर्णकों में वृद्धि होना,शरीर में कमजोरी आना,त्वचा पीली होना आदि।
रोग प्रसार - यह संदूषित जल के उपयोग के कारण रोग उत्पन्न होता है।
उपचार - न्यू लिवफीट की दवा दिन में दो बार लेनी चाहिए। हेपेटाइटिस बी & के टीके लगवाने चाहिए।
कुष्ठ रोग
रोगजनक - माइक्रोबैक्टीरिया लैप्री
लक्षण - त्वचा की संवेदनशीलता समाप्त होना, त्वचा पर रंगहीन धब्बे होना, संक्रमित स्थान की त्वचा मोटी होना,त्वचा का गलना,तंत्रिका तंत्र,त्वचा,अंगुलियाँ और पंजों पर भी इसका प्रभाव पड़ता है।
रोग का प्रसार - संक्रमित व्यक्ति के साथ लंबे समय तक रहने से
उपचार - इसका निदान लेप्रोमिन टेस्ट द्वारा किया जाता है। कुष्ट निवारण केंद्रों पर रोगी का उपचार किया जाता है।
वायरस जनित रोग ( Virus borne disease )
चिकन पॉक्स रोग - चिकन पॉक्स को सामान्य भाषा में छोटी माता के नाम से भी जाना जाता है।
रोगजनक- हर्पीज वायरस
लक्षण- बुखार खांसी कमर और पीठ में तीव्र दर्द होना, शरीर पर गुलाबी रंग के दाने निकलना।
उपचार- संक्रमित रोगी की उपयोगी की गई वस्तुओं को विसंक्रमित करना चाहिए, रोगी को समय पर स्वास्थ्य केंद्र ले जाया जाना चाहिए रोकथाम हेतु एंटीबायोटिक का उपयोग करना चाहिए।
पोलियोमाइलाइटिस रोग
रोगजनक - ऐन्टेरो वायरस ( यह सबसे छोटा वायरस है )
लक्षण - गर्दन अकड़ना, रोगी का बिना हिले डुले पड़े रहना,हाथ पैरों में कमजोरी लगना,तंत्रिका तंत्र और मांसपेशियाँ भी प्रभावित होना, रोग की तीव्रता की स्थिति में विकलांगता आना।
उपचार - पल्स पोलियो अभियान के तहत शिशुओं को ओरल पोलियो वैक्सीन देना
डेंगू रोग - डेंगू को हड्डी तोड़ बुखार भी कहते हैं। यह रोग एडीज इजिप्टी मादा मच्छर के काटने से होता है। जिसमें डेंगू वायरस होता है।
लक्षण- बुखार आना,ठंड लगना,मांसपेशी और जोड़ों में दर्द,कमजोरी महसूस करना, भूख न लगना,चक्कर आना, रक्त में प्लेटलेट्स की संख्या कम होना,नब्ज कमजोर चलना,मृत्यु की संभावना रहना।
उपचार- डेंगू बुखार में माइकोफिनॉलिक एसिड तथा रिबाविरिन का प्रयोग करने से डेंगू की वृद्धि रुक जाती हैं। मच्छरों पर नियंत्रित हेतु तालाब,टंकी में गैंबुसिया मछली डालना। इसकी विशेष दवा या वैक्सीन नहीं है।
एड्स रोग ( AIDS -Acquired Immuno Deficiency Syndrome )
रोगजनक - एचआईवी वायरस
लक्षण - शरीर का वजन कम होना,अधिक दिनों तक बुखार रहना,दस्त लगना,गले में छाले,रोगों से लड़ने की क्षमता समाप्त होना,त्वचा पर खुजली और सूजन होना,लसीका ग्रंथियां प्रभावित होना
प्रसार - एचआईवी संक्रमित व्यक्ति से यौन संबंध से, संक्रमित व्यक्ति के रक्त के संपर्क में आने से, संक्रमित माता से पैदा होने वाली संतानों से,संक्रमित सुई के उपयोग से।
उपचार - निर्जलीकरण सुई का उपयोग,संक्रमित व्यक्ति से संबंध या विवाह नहीं करना, संक्रमित महिला को गर्भ धारण नहीं करना चाहिए,यौन संबंध के समय निरोध का प्रयोग करना।
प्रोटोजोआ जनित रोग ( Protozoa-borne disease )
अमीबाएसिस
रोगजनक - एंटअमीबा हिस्टॉलिटिका
लक्षण - ग्रसित व्यक्ति के मल के साथ म्यूकस और रक्त निकलता है। आतों में ऐंठन होती है। बड़ी आंतों में अल्सर हो जाता है। यकृत को प्रभावित भी करता है जिससे अमीबीय हेपेटाइटिस हो जाता है।
बचाव - सब्जियों को भलीभांति धोकर उपयोग में लेना चाहिए। अमीबीय पुटिकाओं को क्लोरीन फिनोल द्वारा नष्ट किया जाना चाहिए। प्रतिजैविक पदार्थों जैसे टेटरासाइक्लिन टेरामाइसीन का उपयोग करना चाहिए।
मलेरिया रोग
मलेरिया मनुष्य में मादा एनाफिलीज मच्छर के काटने से फैलता है। मच्छर की लार में प्लाज्मोडियम रोगजनक उपस्थित होता है।
रोगजनक - प्लाज्मोडियम की 4 प्रजातियां होती है। प्लाज्मोडियम वाइवेक्स, प्लाज्मोडियम ऑवेल, प्लाज्मोडियम मलेरी, प्लाज्मोडियम फाल्सीफेरम
लक्षण - रोगी को सिरदर्द होना, पैरों में ऐंठन,तीव्र सर्दी लगना, बदन का कांपना,भूख कम लगना,रक्त की कमी होना,रोगी का कमजोर होना,सुस्त और चिड़चिड़ापन होना।
उपचार - मच्छर खत्म करने के लिए कीटनाशक का छिड़काव करना चाहिए। जमा पानी को साफ करना चाहिए। मच्छरदानी का उपयोग करना चाहिए। कुछ मुख्य दवाइयां जैसे कुनैन और क्लोरोक्विन का उपयोग किया जाना चाहिए।
Specially thanks to Post and Quiz makers ( With Regards )
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