राजस्थान में ऐतिहासिक स्त्रोत

हमारा भारत विश्व के प्राचीनतम और महानतम देशों में अग्रगण्य रहा है, इस देश की पवित्रता और रमणनीयता पर रीड कर ही देवता यहा अवतीर्ण होने की प्रबल लालसा करते हैं, इसके ही मंगलमय प्रभात में अन्य देशवासी अपनी अलसाई आंखों को खोलते थे। बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से यह देश सर्वोच्च था। भारतवासी लेखन कला से भलीभांति परिचित हैं और अनेक विषय पर उन्होंने उत्तम कोटि के ग्रंथ रचे, किंतु विश्व को सर्वप्रथम मानवता का पाठ पढ़ाने वाला यह भारत एक दिन विधि के क्रूर अट्टाहास का लक्ष्य बना।

 

इंग्लैंड वासियों ने यहां अपनी प्रभु सत्ता स्थापित कर यहां की संस्कृति को प्रतिबिंबित करने वाले साहित्य और इतिहास को श्री हीन कर दिया, उसकी जगह मनगढ़ंत पिछड़ेपन का तथाकथित इतिहास रच-रचा कर कहा की वास्तविक गोरवपूर्ण स्थिति पर पर्दा डाल दिया
यह प्रबाध भी फैलाया गया कि भारत का कोई इतिहास ही नहीं है अगर कहीं कुछ है भी तो उसमें तिथि और घटनाओं का क्रमिक और प्रमाणिक उल्लेख नहीं है

 

मध्यकाल के प्रारंभ में आने वाले अलबरूनी ने लिखा है भारतीय ऐतिहासिक तिथि क्रम के प्रति उदासीन है जब उनसे कोई ऐतिहासिक तत्व पूछा जाता है तो वह जवाब नहीं दे पाते और कहानियां गढने लगते हैं, पाश्चात्य विद्वानों का सदैव ही यह अापेक्ष रहा है की प्राचीन भारत का इतिहास जानने का कोई मूल स्त्रोत नहीं है

 

एलफिस्टन का कथन है कि भारतीय इतिहास में सिकंदर के आक्रमण से पूर्व किसी महत्वपूर्ण घटना की तिथि निश्चित नहीं की जा सकती

 

डॉक्टर कीथ इसी प्रकार के विचार रखते थे उनका कहना है कि नि:संदेश प्राचीन भारत में संस्कृत भाषा में अतुल्य अमूल्य साहित्य रचा गया है लेकिन संस्कृत विशाल साहित्य में इतिहास का प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता, उस काल में एक भी लेखक ऐसा अभिभूत नहीं हुआ जिससे कि विश्लेषणात्मक इतिहासकार कहा जा सकता है।

 

इतिहास मानव समाज के अतीत जीवन का दर्पण होता है वह हमारे अतीत की घटनाओं का वर्तमान में सामंजस्य करता है, इस दृष्टि से हमारा वैदिक साहित्य इतिहास के स्त्रोत रूप में खरा उतरता है, डॉक्टर विमल चंद्र पांडे के अनुसार महाभारतरामायण उपनिषद्पुराणबोद्ध धर्म ग्रंथजैन धर्म ग्रंथ और अनेकानेक ऐतिहासिक घटनाओं के कारण जानने में भारतीय उदासीन नहीं थे

डॉक्टर आर पी त्रिपाठी के अनुसार प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के लिए भारतीयों का आध्यात्मिक ज्ञान प्रधान रहा है, यदि तिथि क्रम के प्रश्न को उठा दिया जाए और धर्म का पूर्ण अध्ययन किया जाए तो भारतीय इतिहास जानने में कोई कठिनाई नहीं होती है
विचार करने पर स्थूल रूप से इतिहास के दो पक्ष होते हैं
 

1पहला पक्ष बाह्या पक्ष है जिससे हमारा तात्पर्य किसी देश विशेष की भौगोलिक स्थिति से है
2इतिहास का दूसरा पक्ष आंतरिक पक्ष होता है जो राजवंश शासन प्रबंध, सामाजिक, धार्मिकआर्थिक और साहित्यिक स्थिति से है

अब जो पाश्चात्य इतिहासकार केवल तथ्यों को क्रमानुसार न प्रस्तुत करने के कारण ही हमारे प्राचीन ग्रंथों को इतिहास की श्रेणी में नहीं गिनते हैं
 

उनसे हमारा केवल यही करना है कि भारतीय आदर्श के अनुसार इतिहास का उद्देश्य तिथियों और घटना चक्र का उल्लेख मात्र नहीं है
बल्कि मानव जीवन के शाश्वत सिद्धांतों को महापुरुषों के जीवन में घटाते हुए राष्ट्र के सांस्कृतिक अवधि में पूर्ण योगदान देना भी है
हमारे यहां इस उद्देश्य की पूर्ति स्वरूप पुराण ,रामायण और महाभारत सच्चे इतिहास का प्रतिनिधित्व करते हैं

 

हमारा राजस्थान प्रदेश इसी विशाल भारत का एक प्रमुख अंग है, अन्य क्षेत्रों में चाहे राजस्थान एक पिछड़ा प्रदेश माना जा सकता है लेकिन इतिहास की दृष्टि से यह भारत का अत्यधिक महत्वपूर्ण प्रदेश माना जाता है, कई इतिहासकार तो यहां तक कहते हैं कि राजस्थान के अभाव में भारत का कोई इतिहास ही नहीं है, दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि भारत के गौरवपूर्ण इतिहास के निर्माण में राजस्थान के रणबांकुरों ने विशेष भूमिका निभाई है

राजस्थान प्राचीन काल से ही देश के गौरवपूर्ण इतिहास के सर्जन में महान सहयोगी रहता आया है, स्वतंत्रता प्राप्ति पर राजस्थान 19 रियासतों में विभक्त था, इससे पूर्व प्राचीन व मध्यकाल में इन देसी रियासतों की संख्या परिवर्तित होती रही यह रियासतें विभिन्न वंशीय राजपूत नरेशों से शासित होती थी। प्रत्येक राजा दूसरे राजा से स्वतंत्र होता था।

राजपूत प्रकृति से ही स्वाभिमानी और आत्म प्रतिष्ठा प्रिय होता है, अतः राजस्थान की प्रत्येक रियासत अपना अलग ही इतिहास रखती है, वह इतिहास उस रियासत के संस्थापक के वंश व गौरव के अनुकूल होता था। लेकिन राजस्थान की उन रियासतों का इतिहास अधिकांश रुप में उसकी राजनीतिक घटना तक ही सीमित रहा, यह प्रदेश अस्तित्व में राजपूत काल के उपरांत और पूर्व मध्यकाल में आया था। यहां के राजपूत नरेशों को अपने अस्तित्व के लिए प्रथम दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर संघर्ष करना पड़ा और बाद में मुगल सम्राटों से करना पड़ा था।

दिल्ली के सुल्तान का राजपूत नरेशों पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, इसीलिए उन्होंने मुस्लिम सुल्तानों की भांति अपने जीवनकाल की घटनाओं को लिपिबद्ध करने का प्रयास नहीं किया, इसके अतिरिक्त दूसरा कारण राज्य में अशिक्षा के परिणाम स्वरुप दुर्भाग्यवश देशी रियासतों के राजाओं ने मुगल शासकों की भांति अपने अपने काल की घटनाओं को लिपिबद्ध करने का प्रयास भी नहीं किया था

सोलवीं शताब्दी में जब मुगलों का भारत पर प्रभुत्व स्थापित हो गया तो राजस्थान के नरेशों को उनसे युद्ध भी करने पड़े तो उनके साथ रहने का भी उन्हें अवसर मिला, इस कारण मुगल प्रशासन का प्रभाव राजपूत नरेशों पर अत्याधिक पड़ा
मुगल दरबार का अनुकरण करते हुए उन्होंने भी अपने यहां ऐसे अधिकारी रखना प्रारंभ किए जो नरेशों के शाही खर्चों का हिसाब रखने लगे

इसी दिशा में आगे प्रगति की राह पर राजस्थान के राजाओं ने अपने-अपने दरबारों में कवियों, इतिहासकारो, साहित्यकारों और कला मर्मज्ञ को प्रश्रय दिया। जिसके कारण वर्तमान में प्रत्येक रियासत के क्रियाकलापों का लेखा-जोखा जो उपलब्ध हुआ। वह राजस्थान के इतिहास को जानने के लिए महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्त्रोत के रूप में सिद्ध हुआ

इसके साथ पोती खाना नाम का विभाग कार्य करने लगा, ब्राह्मणों को दान व जागीर में जो जमीने दी जाने लगी उनका ब्योरा रखा जाने लगा, राजा व रानिओं द्वारा देवालय व तालाब आदी बनाए जाने लगे। उनके इन दान के कार्यों को प्रशस्ति के रूप में अंकित किया जाने लगा। इस प्रकार के विभिन्न विवरणों ने ख्यात को जन्म दिया

इस प्रकार की प्रथम ख्यात 1670 में जोधपुर के दीवान मुहणोत नैंसी ने लिखी, इस ख्यात में जोधपुर राज्य के इतिहास के अलावा अन्य पड़ोसी राजवंशो का विवरण भी दिया गया था, हालांकि यह पुस्तक अव्यवस्थित ढंग से लिखी गई है तथापि राजस्थान के इतिहास के संबंध में ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत करने के कारण इस ख्यात को अपना महत्व है 

मुहणोत नैंसी ने ही "मारवाड़ की विगत" नामक एक अन्य पुस्तक लिखी है जिससे मारवाड़ की तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक अवस्था का पता चलता है, यह सब होते हुए भी राजस्थान को ऐतिहासिक दृष्टि से खोजने का श्रेय मूलतः कर्नल जेम्स टॉड को ही दिया जाता है, जिसने जैन यति ज्ञानचंद्र की सहायता से 1829 में एनाल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान नामक विशाल ग्रंथ की रचना की थी

इस विशाल ग्रंथ के आधार पर बाबू ज्वाला प्रसाद माथुर ने 1848 में वाकये राजस्थान और मुंशी देवी प्रसाद कायस्थ ने 1893 में राजाओं के जीवन चरित्र लिखे। बूंदी के राज्य कवि सूर्यमल मिश्रण द्वारा रचित सुप्रसिद्ध ग्रंथ वंश भास्कर 1898 में प्रकाशित हुआ इसमें बूंदी राज्य का इतिहास वर्णित है, बूंदी की घटनाओं पर प्रकाश डालने के अलावा कवि ने अन्य राज्य के इतिहास पर भी बखूबी प्रकाश डाला है

कविराज श्यामलदास ने 12 वर्ष के अथक परिश्रम के उपरांत "वीर विनोद" की रचना की थी, इन अमूल्य ग्रंथों ने राजस्थान को ऐतिहासिक अंधकार से प्रकाश में ला दिया। गोरीशंकर हीराचंद ओझा के ऐतिहासिक लेखो ने इस दिशा में नवीन प्रकाश दर्शाया और इतिहास प्रेमियों को राजस्थान के पुरातन गौरव को उजागर करने हेतु प्रेरित किया

यदि श्यामलदास व जगदीश सिंह गहलोत ने राजघराने पर प्रकाश डाला, तो डॉ. दर्शथ शर्मा व डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा ने सच्चे रूप में राजस्थान का इतिहास लिखने का प्रशसनीय प्रयास किया, उन्होंने अपने अथक प्रयासों से राजस्थान के ढेरों ऐतिहासिक स्त्रोत इतिहास के समक्ष प्रस्तुत कर दिए


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