Maharishi Dayanand Saraswati ( महर्षि दयानंद सरस्वती )

Maharishi Dayanand Saraswati


महर्षि दयानंद सरस्वती 


 

इनका प्रारम्भिक नाम मूलशंकर अंबा शंकर तिवारी था इनका जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा गुजरात में हुआ था. यह एक ब्राह्मण कूल से थे . पिता एक समृद्ध नौकरी पेशा व्यक्ति थे इसलिए परिवार में धन धान्य की कोई कमी ना थी .

पूरा नाम -     स्वामी दयानन्द सरस्वती
जन्म -          12 फरवरी, 1824
जन्म भूमि -   मोरबी, गुजरात
मृत्यु -          30 अक्टूबर, 1883 
मृत्यु स्थान -  अजमेर, राजस्थान
अभिभावक - अम्बाशंकर
गुरु -            स्वामी विरजानन्द
मुख्य रचनाएँ- सत्यार्थ प्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला,  गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, स्वीकारपत्र आदि।

भाषा -                हिन्दी
पुरस्कार -           उपाधि महर्षि
विशेष योगदान -  आर्य समाज की स्थापना
संबंधित लेख -     दयानंद सरस्वती के प्रेरक प्रसंग
अन्य जानकारी -  दयानन्द सरस्वती के जन्म का नाम 'मूलशंकर तिवारी' था।

अद्यतन‎-  25 सितम्बर 2011 (IST)

एक घटना के बाद इनके जीवन में बदलाव आया और इन्होने 1846, 21 वर्ष की आयु में सन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा ली . उनमे जीवन सच को जानने की इच्छा प्रबल थी जिस कारण उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था

इसलिए ही इन्होने अपने विवाह के प्रस्ताव को ना बोल दिया . इस विषय पर इनके और इनके पिता के मध्य कई विवाद भी हुए पर इनकी प्रबल इच्छा और  दृढता के आगे इनके पिता को झुकना पड़ा . इनके इस व्यवहार से यह स्पष्ट था कि इनमे विरोध करने एवम खुलकर अपने विचार व्यक्त करने की कला जन्म से ही निहित थी . इसी कारण ही इन्होने अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया और देश को आर्य भाषाअर्थात हिंदी के प्रति जागरूक बनाया .

एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर इनके पिता ने इनसे उपवास करके विधि विधान के साथ पूजा करने को कहा और साथ ही रात्रि जागरण व्रत का पालन करने को कहा . पिता के निर्देशानुसार मूलशंकर ने व्रत का पालन किया पूरा दिन उपवास किया और रात्रि जागरण के लिये वे शिव मंदिर में ही पालकी लगा कर बैठ गये .

अर्धरात्रि में उन्होंने मंदिर में एक दृश्य देखा, जिसमे चूहों का झुण्ड भगवान की मूर्ति को घेरे हुए हैं और सारा प्रशाद खा रहे हैं .  तब मूलशंकर जी के मन में प्रश्न उठा, यह भगवान की मूर्ति वास्तव में एक पत्थर की शिला ही हैं जो स्वयम की रक्षा नहीं कर सकती, उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं ? उस एक घटना ने मूलशंकर के जीवन में  बहुत बड़ा प्रभाव डाला और उन्होंने आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना घर छोड़ दिया और स्वयं को ज्ञान के जरिये मूलशंकर तिवारी से महर्षि दयानंद सरस्वती बनाया .

1857 की क्रांति में योगदान ( Contribution to the Revolution of 1857 )

1846 में घर से निकलने के बाद उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ बोलना प्रारम्भ किया उन्होंने देश भ्रमण के दौरान यह पाया कि लोगो में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश हैं बस उन्हें उचित मार्गदर्शन की जरुरत हैं इसलिए उन्होंने लोगो को एकत्र करने का कार्य किया .

उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे उन में तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि थे इन लोगो ने स्वामी जी के अनुसार कार्य किया . लोगो को जागरूक कर सभी को सन्देश वाहक बनाया गया जिससे आपसी रिश्ते बने और एकजुटता आये .

इस कार्य के लिये उन्होंने रोटी तथा कमल योजना भी बनाई और सभी को देश की आजादी के लिए जोड़ना प्रारम्भ किया . इन्होने सबसे पहले साधू संतो को जोड़ा जिससे उनके माध्यम से जन साधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके .

हालाँकि 1857की क्रांति विफल रही लेकिन स्वामी जी में निराशा के भाव नहीं थे उन्होंने यह बात सभी को समझायी . उनका मानना था कई वर्षो की गुलामी एक संघर्ष से नही मिल सकती, इसके लिए अभी भी उतना ही समय लग सकता हैं जितना अब तक गुलामी में काटा गया हैं .

उन्होंने विश्वास दिलाया कि यह खुश होने का वक्त हैं क्यूंकि आजादी की लड़ाई बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं और आने वाले कल में देश आजाद हो कर रहेगा . उनके ऐसे विचारों ने लोगो के हौसलों को जगाये रखा . इस क्रांति के बाद स्वामी जी ने अपने गुरु विरजानंद के पास जाकर वैदिक ज्ञान की प्राप्ति का प्रारम्भ किया और देश में नये विचारों का संचार किया . अपने गुरु के मार्ग दर्शन पर ही स्वामी जी ने समाज उद्धार का कार्य किया .

जीवन में गुरु का महत्व ( The Importance of a Teacher in Life )


ज्ञान की चाह में ये स्वामि विरजानंद जी से मिले और उन्हें अपना गुरु बनाया . विरजानंद ने ही इन्हें वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करवाया . इन्हें योग शास्त्र का ज्ञान दिया . विरजानंद जी से ज्ञान प्राप्ति के बाद जब स्वामी दयानंद जी ने इनसे गुरु दक्षिणा का पूछा, तब विरजानंद ने इन्हें समाज सुधार, समाज में व्याप्त कुरूतियों के खिलाफ कार्य करने, अंधविश्वास को मिटाने, वैदिक शास्त्र का महत्व लोगो तक पहुँचाने, परोपकार ही धर्म हैं

इसका महत्व सभी को समझाने जैसे कठिन संकल्पों में बाँधा और इसी संकल्प को अपनी गुरु दक्षिणा कहा
गुरु से मार्गदर्शन मिलने के बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने समूचे राष्ट्र का भ्रमण प्रारम्भ किया और वैदिक शास्त्रों के ज्ञान का प्रचार प्रसार किया . उन्हें कई विपत्तियों का सामना करना पड़ा, अपमानित होना पड़ा

लेकिन उन्होंने कभी अपना मार्ग नहीं बदला . इन्होने सभी धर्मो के मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया और उनमे व्याप्त बुराइयों का खुलकर विरोध किया . इनका विरोध ईसाई, मुस्लिम धर्म के अलावा सनातन धर्म से भी था इन्होने वेदों में निहित ज्ञान को ही सर्वोपरि एवम प्रमाणित माना . अपने इन्ही मूल भाव के साथ इन्होने आर्य समाज की स्थापना की .

बाल विवाह विरोध ( Child Marriage Opposition )

उस समय बाल विवाह की प्रथा सभी जगह व्याप्त थी सभी उसका अनुसरण सहर्ष करते थे . तब स्वामी जी ने शास्त्रों के माध्यम से लोगो को इस प्रथा के विरुद्ध जगाया उन्होंने स्पष्ट किया कि शास्त्रों में उल्लेखित हैं *मनुष्य जीवन में अग्रिम 25 वर्ष ब्रम्हचर्य के है उसके अनुसार बाल विवाह एक कुप्रथा हैं . उन्होंने कहा कि अगर बाल विवाह होता हैं वो मनुष्य निर्बल बनता हैं और निर्बलता के कारण समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त होता हैं .

सती प्रथा विरोध ( Tradition of Sati )

पति के साथ पत्नी को भी उसकी मृत्यु शैया पर अग्नि को समर्पित कर देने जैसी अमानवीय सति प्रथा का भी इन्होने विरोध किया और मनुष्य जाति को प्रेम आदर का भाव सिखाया . परोपकार का संदेश दिया .

विधवा पुनर्विवाह ( Widow Remarriage )

देश में व्याप्त ऐसी बुराई जो आज भी देश का हिस्सा हैं विधवा स्त्रियों का स्तर आज भी देश में संघर्षपूर्ण हैं . दयानन्द सरस्वती जी ने इस बात की बहुत निन्दा की और उस ज़माने में भी नारियों के सह सम्मान पुनर्विवाह के लिये अपना मत दिया और लोगो को इस ओर जागरूक किया .

एकता का संदेश ( Message of unity )


 दयानन्द सरस्वती जी का एक स्वप्न था जो आज तक अधुरा हैं , वे सभी धर्मों और उनके अनुयायी को एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे . उनका मानना था आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा लेता हैं इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक हैं . जिसके लिए उन्होंने कई सभाओं का नेतृत्व किया लेकिन वे हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्मों को एक माला में पिरो ना सके .

वर्ण भेद का विरोध ( Opposing character differences )


उन्होंने सदैव कहा शास्त्रों में वर्ण भेद शब्द नहीं बल्कि वर्ण व्यवस्था शब्द हैं जिसके अनुसार चारों वर्ण केवल समाज को सुचारू बनाने के अभिन्न अंग हैं जिसमे कोई छोटा बड़ा नहीं अपितु सभी अमूल्य हैं . उन्होंने सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात रखी और वर्ण भेद का विरोध किया .

नारि शिक्षा एवम समानता ( Women's education and equality )

स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया . उनका मानना था कि नारी शिक्षा ही समाज का विकास हैं . उन्होंने नारी को समाज का आधार कहा . उनका कहना था जीवन के हर एक क्षेत्र में नारियों से विचार विमर्श आवश्यक हैं जिसके लिये उनका शिक्षित होना जरुरी हैं .

आर्य समाज स्थापना ( Establishment of Arya Samaj )

वर्ष 1875में इन्होने गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की . आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था . इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था . ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी जिससे कई महान विद्वान प्रेरित हुए . कईयों ने स्वामी जी का विरोध किया लेकिन इनके तार्किक ज्ञान के आगे कोई टिक ना सका . बड़े – बड़े विद्वानों, पंडितों को स्वामी जी के आगे सर झुकाना पड़ा . इसी तरह अंधविश्वास के अंधकार में वैदिक प्रकाश की अनुभूति सभी को होने लगी थी .

आर्य भाषा (हिंदी) का महत्व 

वैदिक प्रचार के उद्देश्य से स्वामी जी देश के हर हिस्से में व्यख्यान देते थे संस्कृत में प्रचंड होने के कारण इनकी शैली संकृत भाषा ही थी . बचपन से ही इन्होने संस्कृत भाषा को पढ़ना और समझना प्रारंभ कर दिया था इसलिए वेदों को पढ़ने में इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई . एक बार वे कलकत्ता गए और वहा केशव चन्द्र सेन से मिले . केशव जी भी स्वामी जी से प्रभावित थे लेकिन उन्होंने स्वामी जी को एक परामर्श दिया कि वे अपना व्यख्यान संस्कृत में ना देकर आर्य भाषा अर्थात हिंदी में दे जिससे विद्वानों के साथ- साथ साधारण मनुष्य तक भी उनके विचार आसानी ने पहुँच सके . तब वर्ष 1862 से स्वामी जी ने हिंदी में बोलना प्रारम्भ किया और हिंदी को देश की मातृभाषा बनाने का संकल्प लिया .हिंदी भाषा के बाद ही स्वामी जी को कई अनुयायी मिले जिन्होंने उनके विचारों को अपनाया . आर्यसमाज का समर्थन सबसे अधिक पंजाब प्रान्त में किया गया .

समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध एवम एकता का पाठ :
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने समाज के प्रति स्वयम को उत्तरदायी माना और इसलिए ही उसमे व्याप्त कुरीतियों एवम अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज बुलंद की .

अन्य रचनाएँ ( Other compositions )

स्वामी दयानन्द द्वारा लिखी गयी महत्त्वपूर्ण रचनाएं -

  1. सत्यार्थप्रकाश (1874 संस्कृत),

  2. पाखण्ड खण्डन (1866)

  3. वेद भाष्य भूमिका (1876),

  4. ऋग्वेद भाष्य (1877),

  5. अद्वैतमत का खण्डन (1873),

  6. पंचमहायज्ञ विधि (1875),

  7. वल्लभाचार्य मत का खण्डन (1875) आदि ।


महापुरुषों के विचार ( Views of Greatmen )

स्वामी दयानन्द सरस्वती के योगदान और उनके विषय में विद्वानों के अनेकों मत थे-

  • डॉ. भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।

  • श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।

  • सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।

  • पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।

  • फ्रेञ्च लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रुप देने में प्रयत्नशील थे।


महत्त्वपूर्ण घटनाएँ ( Important Events )

स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं : 

  1. चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),

  2. अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय।

  3. इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्न्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।


स्वामी जी के खिलाफ षड़यंत्र 

अंग्रेजी हुकूमत को स्वामी जी से भय सताने लगा था . स्वामी जी के वक्तव्य का देश पर गहरा प्रभाव था जिसे वे अपनी हार के रूप में देख रहे थे इसलिये उन्होंने स्वामी जी पर निरंतर निगरानी शुरू की . स्वामी जी ने कभी अंग्रेजी हुकूमत और उनके ऑफिसर के सामने हार नहीं मानी थी

बल्कि उन्हें मुँह पर कटाक्ष की जिस कारण अंग्रेजी हुकूमत स्वामी जी के सामने स्वयम की शक्ति पर संदेह करने लगी और इस कारण उनकी हत्या के प्रयास करने लगी . कई बार स्वामी जी को जहर दिया गया लेकिन स्वामी जी योग में पारंगत थे और इसलिए उन्हें कुछ नहीं हुआ .

अंतिम षड्यंत्र

1883 में स्वामी दयानन्द सरस्वती जोधपुर के महाराज के यहाँ गये .  राजा यशवंत सिंह ने उनका बहुत आदर सत्कार किया . उनके कई व्यख्यान सुने . एक दिन जब राजा यशवंत एक नर्तकी नन्ही जान के साथ व्यस्त थे तब स्वामी जी ने यह सब देखा और अपने स्पस्ट वादिता के कारण उन्होंने इसका विरोध किया और शांत स्वर में यशवंत सिंह को समझाया कि एक तरफ आप धर्म से जुड़ना चाहते हैं

और दूसरी तरफ इस तरह की विलासिता से आलिंगन हैं ऐसे में ज्ञान प्राप्ति असम्भव हैं . स्वामी जी की बातों का यशवंत सिंह पर गहरा असर हुआ और उन्होंने नन्ही जान से अपने रिश्ते खत्म किये . इस कारण नन्ही जान स्वामी जी से नाराज हो गई और उसने रसौईया के साथ मिलकर स्वामी जी के भोजन में कांच के टुकड़े मिला दिए जिससे स्वामी जी का स्वास्थ बहुत ख़राब हो गया .

उसी समय इलाज प्रारम्भ हुआ लेकिन स्वामी जी को राहत नही मिली . रसौईया ने अपनी गलती स्वीकार कर माफ़ी मांगी . स्वामी जी ने उसे माफ़ कर दिया . उसके बाद उन्हें 26 अक्टूबर को अजमेर भेजा गया लेकिन हालत में सुधार नहीं आया और उन्होंने 30 अक्टूबर 1883 में दुनियाँ से रुक्सत ले ली .

अपने 59 वर्ष के जीवन में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने राष्ट्र में  व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लोगो को जगाया और अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को देश में फैलाया . यह एक संत के रूप में शांत वाणी से गहरा कटाक्ष करने की शक्ति रखते थे और उनके इसी निर्भय स्वभाव ने देश में स्वराज का संचार किया .

 

Specially thanks to Post and Quiz makers ( With Regards )

सुरेश कुमार प्रजापत जालौर

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