राजपूताने की विभिन्न रियासतों को एक बड़ी इकाई में बदलने के प्रयास किसी व्यक्ति विशेष के द्वारा या किसी विशेष राजनीति संगठन की ओर से नहीं किए गए थे, बल्कि इसके लिए यहां के नरेशों, जनता व केंद्रीय सरकार के रियासती विभाग द्वारा ही प्रयास किए गए थे। इन सबके संयुक्त प्रयासों के परिणाम स्वरुप ही राजस्थान की विभिन्न रियासतें धीरे धीरे एक महान इकाई के रुप में उभर सकी।
इस दिशा में सर्वप्रथम मेवाड़ के महाराणा भूपाल सिंह ने की पहल की थी, उन्होंने राजस्थान की छोटी छोटी रियासतों को समाप्त कर उन्हें एक विशाल इकाई में गठित करने का अथक प्रयास किया था। के० एम० मुंशी को उन्होंने अपना संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया था, उनकी मंत्रणा से महाराणा भूपाल सिंह इस दिशा में निरंतर आगे बढ़ते रहे। इसके लिए नरेशों के उन्होंने कई सम्मेलन भी आयोजित किए थे
उन्होंने 25 और 26 जून 1946 को राजस्थान, गुजरात और मालवा के राजाओं का एक सम्मेलन उदयपुर में बुलाया था, इस सम्मेलन में 22 राजा महाराजा उपस्थित है। महाराणा भूपाल सिंह द्वारा 25 व 26 जून 1946 को आयोजित किए गए, सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य राजस्थान, गुजरात और मालवा के छोटे बड़े राज्यों को मिलाकर एक बड़ी इकाई राजस्थान यूनियन बनाने का था।
सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए महाराणा ने उपस्थित नरेशों से अपील की कि हम सब मिलकर एक राजस्थान यूनियन का निर्माण करें ताकि वह भावी भारतीय संघ की एक सुदृढ इकाई बन सके। महाराणा भूपाल सिंह ने सुझाव दिया कि प्रस्तावित यूनियन भारतीय संघ की एक सब-फेडरेशन के रूप में बनाई जाए, जिसमें रियासते अपना अपना पृथक अस्तित्व कायम रखते हुए कतिपय विषय यूनियन को सौप दे।
राजाओं ने महाराणा की योजना पर विचार करने का वादा किया, महाराणा भूपाल सिंह को अपने प्रस्ताव को अमलीजामा पहनाने की धुन लगी हुई थी। उन्होंने नियुक्त किए गए अपने संवैधानिक सलाहकार के० एम० मुंशी की सलाह पर उक्त राजाओं का एक और सम्मेलन 23 मई 1947 को उदयपुर में आमंत्रित किया
महाराणा भोपाल सिंह ने सम्मेलन में राजाओं को चेतावनी दी कि हम लोगों ने मिलकर अपनी रियासतों की Union नहीं बनाई तो सभी रियासतें जो प्रांतों के समकक्ष नहीं है, निश्चित रुप से समाप्त हो जाएगी। श्री के० एम० मुंशी ने भी इस सम्मेलन में महाराणा की योजना का जोरदार समर्थन किया। फल स्वरुप जयपुर, जोधपुर और बीकानेर आदि बड़ी रियासत को छोड़कर शेष सभी रियासतों ने सिद्धांत रूप से इस योजना में शरीक होना स्वीकार कर लिया
सम्मेलन में प्रस्तावित राजस्थान यूनियन का विधान तैयार करने के लिए एक समिति काउंसिल ऑफ एक्शन का गठन किया, समिति ने राजाओं एवं उनके प्रतिनिधियों के 14 फरवरी 1948 के सम्मेलन में यूनियन के विधान का एक प्रारूप प्रस्तुत किया, इस विधान में सभी नरेशों को समान स्तर दिया गया, इसकी एक कार्यकारिणी भी का भी गठन कर दिया गया।
उसमें सभी नरेशों को सदस्य रूप में स्वीकार कर लिया, परंतु इस प्रारूप पर सम्मेलन में प्रतिनिधियों में मतैक्य नहीं हो सका, इन सब पर भी महाराणा भोपाल सिह निराश नहीं हुए, उन्होंने अपने प्रयास जारी रखें महाराणा ने अपनी जन्म-दिवस के अवसर पर 6 मार्च 1948 को एक विज्ञप्ति में कहा कि राजस्थान और गुजरात की रियासतों से राजपूताना की 4 बड़ी रियासतों का अस्तित्व कायम रखते हुए एक ऐसे संघ का निर्माण किया जा सकता है जो एक महत्वपूर्ण इकाई के रुप में भावी भारतीय संघ में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके। पर महाराणा कि इस अपील का भी नरेशों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा,
इसी प्रकार जयपुर नरेश ने अपने प्रधानमंत्री वी टी कृष्णमाचारी के माध्यम से इस दिशा में सक्रिय प्रयास किए, जयपुर के महाराजा मानसिंह की स्वीकृति से वहां के दीवान सर वी टी कृष्णामाचारी ने भी प्रदेश के शासकों और उनके प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन बुलाया, इस सम्मेलन में उन्होंने प्रस्ताव रखा कि प्रदेश की रियासतों (जयपुर नरेश, अलवर और करौली को जयपुर में मिलाकर एक ऐसा संघ) का एक ऐसा संघ बनाया जाए
जिसमें हाई कोर्ट, उच्च शिक्षा, पुलिस आदि विषय संघ को सौंप दिए जाए और शेष विषय इकाइयों के पास रहे
उन्होंने सम्मेलन को यह भी कहा कि यदि उन्हें यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं हो तो समस्या का दूसरा हल यह है कि प्रदेश की जो रियासतें अपना पृथक अस्तित्व रखने की क्षमता नहीं रखती वह पड़ोस की बड़ी रियासतों में मिल जाए लेकिन यह सम्मेलन भी बिना किसी निर्णय पर पहुंचे ही समाप्त हो गया, लेकिन इसका भी कोई सुपरिणाम नहीं निकला
बीकानेर नरेश लुहारू को अपने में मिलाने का भरसक प्रयत्न करते रहे, परंतु सरदार पटेल के सामने उनकी नहीं चल पाई। कोटा नरेश भीमसिह और डूंगरपुर के महारावल ने भी इस दिशा में एक कदम उठाए थे, कोटा का महाराव भीमसिंह ने प्रयास किया कि कोटा, बूंदी और झालावाड को मिलाकर एक से एक राज्य बना दिया जाए।
इसी प्रकार डूंगरपुर के महारावल लक्ष्मण सिह ने कोशिश की कि डूंगरपुर, बांसवाडा, कुशलगढ और प्रतापगढ़ को मिलाकर एक इकाई में परिणित कर दिया जाए पर यह दोनों ही अपने अपने प्रयासों में असफल रहे
राजस्थान की रियासत यह तो महसूस कर रही थी कि स्वतंत्र भारत में छोटी-छोटी रियासतें आधुनिक आवष्यकताओं के अनुसार अपने पैरों पर खड़ी नहीं रह सकती। उनके सामने आपस में मिलकर स्वावलंबी इकाइयां बनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। पर ऐतिहासिक और अन्य कारणों से राजाओं में एक दूसरे के प्रति अविश्वास और ईर्ष्या की भावनाएं भरी हुई थी
राजस्थान की बडी रियासतो की ओर से एकीकरण की दिशा में किए गए प्रयत्नों को छोटी रियासतों ने इस रूप में लिखा है कि बड़ी रियासते छोटी रियासतों को निगल जाना चाहती है, उनका यह संदेश कुछ सीमा तक उचित भी था
महाराणा उदयपुर द्वारा किए गए प्रयत्नों से ऐसा लग रहा था की वह छोटी-छोटी रियासतो को मेवाड़ मे विलय कर वृहत्तर मेवाड़ की रचना करना चाहते हैं, दुर्भाग्य से कई बार महाराणा ने एकीकरण की चर्चा के दौरान जाने-अनजाने इस प्रकार के संकेत दिए थे, जयपुर तो अन्त तक यही प्रयास करता रहा कि वृहद राजस्थान निर्माण की अपेक्षा राजस्थान की रियासतो को तीन या चार इकाइयों मे बांट दिया जाए और करोली-अलवर को जयपुर में मिला दिया जाए
डूंगरपुर के बागड़ प्रांत के निर्माण के प्रयत्नों को -वृहतर डूंगरपुर, कोटा के हाड़ौती निर्माण के प्रयत्न को वृहत कोटा के निर्माण की संज्ञा दी गई। छोटी रियासतों में वंश परंपरा प्रतिष्ठा के नाम पर बड़ी रियासत के साथ मिलने का विरोध किया। राजस्थान के शासको द्वारा एकीकरण की ओर किए गए सभी प्रयत्न बेकार हो गए। स्पषट था प्रबल जनमत और शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता ही इन रियासतो को एकीकरण के लिए मजबूर कर सकती थी।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतो को किसी संघ में मिलने को बातें नहीं किया था, ब्रिटिश सरकार ने उल्लेखित किया था कि रियासते अपने दृष्टिकोण से भारत या पाकिस्तान में मिलने का निर्णय ले सकती है| इसके अलावा भी दोनों संघ से स्वतंत्र भी रह सकती है
लेकिन भारत की राष्ट्रीय सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि वह रियासतों को भारतीय संघ में वहां के जनमत के आधार पर ही मिलायेगी, क्योंकि राजाओं द्वारा राजस्थान की रियासतों के एकीकरण के संबंध में किए गए किसी भी प्रयत्न में राजस्थान की जनता अर्थवाद जनसंगठनों को विश्वास में नहीं लिया गया था। अतः यह स्वाभाविक था कि राजाओं द्वारा किए जाने वाले प्रश्नों से जनता उदासीन भर्ती थी
राजस्थान के नरेश राजपूताने की समस्त रियासतों को एक इकाई में गठित नहीं कर सके, इस कारण राजस्थान की विभिन्न राजनीतिक संगठन स्वतंत्र रूप से वृहत राजस्थान के निर्माण के लिए प्रयत्न करते रहे, राजपूताने की रियासतों के प्रजामंडल प्रजा परिषदों ने अपने यहां जनमत बनाना आरंभ किया।
इसीलिए मार्च 1948 में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की कार्यसमिति ने स्पष्ट रूप से घोषणा कर दी थी कि राजस्थान की सभी रियासतों और अजमेर मेरवाड़ा को मिलाकर वृहत राजस्थान बनाने के अतिरिक्त कोई भी रास्ता नहीं है, इस घोषणा से पूर्व 6 से 8 अगस्त 1945 को एक बैठक श्रीनगर में हुई, जिसमें निर्णय लिया गया कि उन सभी छोटी रियासतों को जिनकी जनसंख्या 20 लाख और आय 50 लाख से कम है उन्हें या तो प्रांतों में मिल जाना चाहिए अथवा आपस में मिलकर एक बड़े संघ का निर्माण कर लेना चाहिए।
ताकि वह भारतीय संघ में एक प्रभावी इकाई के रूप में भाग ले सकें, इसी समिति की 21 से 23 अक्टूबर 1945 को एक बैठक जयपुर में संपन्न हुई, उसमें निर्णय लिया गया की संभावित भारतीय संविधान निर्मात्री सभा में राज्य के प्रतिनिधियों को जनता द्वारा निर्वाचित करा कर भेजा जावे दिसंबर 1945 से 2 जनवरी 1946 तक नेहरू जी की अध्यक्षता में अखिल भारतीय देशी राज्य परिषद का उदयपुर में सम्मेलन चलता रहा
इस सम्मेलन में राज्यों की जीव्यता के मापदंड पर विचार किया गया परंतु निर्णय कुछ नहीं हुआ, इसी समय अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की राजपूताना प्रांतीय सभा को सितंबर 1946 में यह एक प्रस्ताव स्वीकार कर चुकी थी कि राजस्थान की कोई भी रियासत अपने आप में भारतीय संघ में शामिल होने योग्य नहीं है, अतः समस्त राजस्थान एक ही इकाई के रुप में भारतीय संघ में शामिल होना चाहिए|
इस प्रकार प्रांतीय के इस प्रस्ताव से राजस्थान बनाने की कल्पना उभरकर सामने आई, 3 नवंबर 1946 को अखिल भारतीय राज्य प्रजा परिषद की राजस्थान की प्रांतिय शाखा की कार्यकारिणी की बैठक हुई, उसमें प्रस्ताव पारित किया गया कि कोई भी रियासत आधुनिक प्रगतिशील राज्य की श्रेणी में नहीं की जा सकती है
अतः राजस्थान की समस्त रियासतों और अजमेर मेरवाड़ के क्षेत्र को मिलाकर एक संघ बना लेना चाहिए, डॉक्टर राम मनोहर लाल lohia की अध्यक्षता में समाजवादी पार्टी ने भी ऐसा ही निर्णय लिया, इस प्रकार जनप्रतिनिधि संस्थाएं भी राजस्थान निर्माण मे अपना सहयोग देने लगी
भारत के स्वतंत्र होते ही इन देशी रियासतो के मामले को हल करने की नियत से केंद्र सरकार ने एक रियासती विभाग स्थापित किया गया था, उसके मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और सचिव पद पर श्री वी पी मेनन नियुक्त हुए थे। दोनों की दूरदर्शिता व कूटनीति ने ही भारत की सैकड़ों देशी रियासतो को चंद B श्रेणी के प्रांतों में गठित कर दिया।
केंद्र में राष्ट्रीय सरकार की स्थापना के साथ ही सरकार की ओर से यह स्पष्ट कर दिया गया था कि भारत की कोई भी रियासत जिसकी वार्षिक आय एक करोड़ से कम और जनसंख्या 1000000 से कम होगी अपना पृथक अस्तित्व नहीं रख सकेगी, इन दोनों शर्तो को राजपूताने में केवल जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर रियासते ही पूरी करती थी, अतः राजस्थान की शेष रियासतो का बिना किसी संघ से मिले अस्तित्व संकट में था।
इसी कारण केंद्र सरकार के रियासती विभाग में भी इस दिशा में सक्रियता से पहल करना आरंभ कर दिया, केंद्रीय सरकार इस दिशा में यह कदम शीघ्रता से उठाना चाहती थी क्योंकि 15 अगस्त 1947 के उपरांत देसी राज्य में परिवर्तन शीघ्रता से हो रहे थे।
परमोच्च सत्ता के समाप्त होते ही ट्रावणकोर, हैदराबाद, भोपाल आदि रियासते अपने को स्वतंत्र रखने का प्रयास करने लगी, 5 जुलाई 1947 को ही सरदार पटेल ने अपना एक भाषण प्रसारित कर कह दिया था कि रियासते 15 अगस्त से पूर्व भारतीय संघ में मिल जावे हैं, उन्हें केवल रक्षा विदेश नीति तथा संचार व्यवस्था में भारतीय संघ के नियंत्रण में रहना होगा।
देशी रियासतो के साथ व्यवहार में रियासती विभाग की निती अधिकार कि नहीं होगी, देशी नरेशों ने तो देश भक्ति लोक कल्याण के प्रति आस्था प्रकट की लोह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नरेशो के सम्मान को छूते हुए भावना पूर्ण शब्दों में उन्हें मित्रवत देश को विकट परिस्थितियों से उभारने में सहयोग देने को कहा, इसके साथ में उन्होंने चेतावनी दी थी यदि कोई नरेश यह सोचता हो कि ब्रिटिश परमोच्च सत्ता उस को हस्तांतरित कर दी जाएगी तो यह उसकी भूल होगी
परमोच्च सत्ता तो जनता में ही निहीत हे 14 जुलाई 1945 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अखिल भारतीय कांग्रेस कि कार्यकारणी समिति में भाषण देते समय यह कह दिया था कि वह भारतवर्ष में किसी राज्य को स्वतंत्र रहने का अधिकार नहीं देंगे
25 जुलाई 1947 को ही वायसराय माउंटबेटन ने नरेंद्र मंडल को प्रथम व अंतिम बार संबोधित करते हुए नरेशों को कह दिया था कि वे तीन निर्धारित विषय के आधार पर भारत सघं मे सम्मिलित हो जावे
भारत सरकार ने अपनी घोषित नीति के अनुसार सितंबर 1947 में किशनगढ़ और शाहपुरा की रियासतों को केंद्र शासित प्रदेश अजमेर में मिलाने का निर्णय किया, यह रियासतें अजमेर की सीमाओं से मिली हुई थी
किशनगढ़ के महाराजा सुमेरसिंह ने 26 सितंबर को दिल्ली में विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे, उसी दिन भारत सरकार ने शाहपुरा के राजाधिराज सुदर्शन देव को भी अपनी रियासत को अजमेर में विलय करने संबंधी विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए आमंत्रित किया पर राजाधिराज ने कहा कि वह अपनी रियासत कि सत्ता संविधान के अनुसार जनप्रतिनिधियों को सौप चुके हैं, यह अब राज्य के एक वैधानिक शासक मात्र है अतः वह अपने मंत्रिमंडल की सलाह लिए बिना इस संबंध में कोई निर्णय नहीं ले सकते।
रियासती विभाग एक छोटी सी रियासत के राजा से इस प्रकार का उत्तर सुनने को तैयार नहीं था, रियासती विभाग के प्रवक्ता ने धमकी भरे शब्दों में श्री सुदर्शन देव से कहा कि यदि उन्होंने रियासती विभाग के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया तो इसके परिणाम भुगतने पढ़ेंगे
प्रवक्ता ने इस संबंध में अलवर के महाराजा के विरुद्ध की गई कार्यवाही का उदाहरण भी दिया था, राजाधिराज ने दृढतापूर्वक उत्तर दिया कि अलवर महाराजा पर गंभीर आरोप है 9 जबकि उन पर कोई आरोप नहीं है यह कहकर राजाधिराज रियासती विभाग के बाहर निकल आए और राज्य के प्रधानमंत्री को गोकुल लाल असावा को घटना से परिचित कराया
गोकुल लाल असावा राजस्थान के अन्य नेताओं के साथ रियासती विभाग के प्रभारी मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से मिले, उनसे कहा कि शाहपुरा की मंशा किसी भी तरह भारत सरकार की नीति का विरोध करना नहीं है वह तो केवल यह चाहते है कि छोटी-बड़ी सभी रियासतों का एक संघ बना दिया जाए। शाहपुरा व किशनगढ़ का उक्त संघ में विलय कर दिया जाए, जनप्रतिनिधियों की भावनाओं का आदर करते हुए सरदार पटेल ने तुरंत ही किशनगढ़ और शाहपुरा को अजमेर में विलय करने का निर्णय रद्द कर दिया,
नवंबर 1947 में सरदार पटेल को यह सुझाव दिया गया कि क्योंकि पालनपुर, दांता, ईडर, विजयनगर, डूंगरपुर, बांसवाडा और सिरोही आदि रियासतों की अधिकतर जनता गुजराती भाषी है अतः इन रियासतो को राजपूताना एजेंसी से हटाकर पश्चिमी भारत और गुजरात एजेंसी के अंतर्गत कर दिया जाए, श्री के एम मुंशी और गुजरात के अन्य नेता महा गुजरात का स्वपन देख रहे थे।
यह योजना उसी स्वपन का एक अंग थी, राजा और जनता के विरोध के कारण डूंगरपुर और बांसवाडा की स्थिति को यथावत रह गई, लेकिन सिरोही सहित अन्य रियासते राजपूताना एजेंसी से हटाकर गुजरात एजेंसी केअंतर्गत कर दी गई
सरदार पटेल की व्यवहार कुशलता और माउंटबेटन द्वारा दी गई सलाह के परिणाम स्वरुप अधिकांश नरेशों ने अधिमिलन पत्र व यथास्थिति अनुबंध पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए अत:स्पष्ट है की राजस्थान की देसी रियासतो के नरेश खास तौर पर सरदार वल्लभ भाई पटेल नेहरू व माउंटबेटन की घोषणाओं के उपरान्त ही भारतीय संघ में मिलने को उद्यत हुए। लोहा पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की कूटनीति में इस में विशेष भूमिका निभाई
Specially thanks to Post Author - Mamta Sharma, Kota Rajasthan
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