Ras Mains Test Series -13

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समाजशास्त्र - संस्कृतिकरण, वर्ण, आश्रम, पुरुषार्थ, एवं संस्कार व्यवस्था  


अतिलघुतरात्मक (15 से 20 शब्द)

प्र 1. संस्कृतिकरण से क्या अभिप्राय है?

उत्तर- संस्कृतिकरण ऐसी प्रक्रिया की ओर संकेत करती है जिसमें कोई जातीय समूह सांस्कृतिक दृष्टि से प्रतिष्ठित समूह के रीति-रिवाजों या नामों का अनुकरण कर अपनी सामाजिक स्थिति को उच्च बनाते हैं।

प्र 2. वर्ण से क्या तात्पर्य है?

उत्तर- वर्ण शब्द का अर्थ है- वरण करना या चुनना। अर्थात भौतिक और आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के लिए हिंदू संस्कृति में जो व्यवस्था अपनाई गई है उसे वर्ण व्यवस्था कहा जाता है।

प्र 3. हिंदू संस्कृति के अनुसार वर्ण के प्रकार बताइए ।

उत्तर- ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त के अनुसार विश्व पुरुष या ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति, भुजाओं से क्षत्रियों की, जांघों से वैश्यो की और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण माने गए हैं।

प्र 4. पुरुषार्थ से क्या तात्पर्य है?

उत्तर- पुरुषार्थ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है पुरुष और अर्थ। अतः पुरुषार्थ का अर्थ पुरुष का उद्देश्य। दूसरे शब्दों में व्यक्ति के कर्मों के लक्ष्य को ही पुरुषार्थ कहा जाता है।

लघूतरात्मक (50 से 60 शब्द)

प्र 5. संस्कृतिकरण की तीन विशेषताएं बताइए।

उत्तर- 1. संस्कृतिकरण सामाजिक गतिशीलता की व्यक्तिगत प्रक्रिया ना होकर सामूहिक प्रक्रिया है।

2. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में केवल पद मुल्क परिवर्तन ही होते हैं कोई संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता है अर्थात कोई जाति अपने आसपास की जातियों से जातिगत संस्तरण में तो अपनी प्रस्थिति उच्च कर लेती है लेकिन इससे सामाजिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आता है।

3. संस्कृतिकरण की प्रक्रिया लंबी अवधि की प्रक्रिया है। इसमें प्रक्रिया में उच्च प्रस्थिति को प्रयासरत जाति को लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी होती है और इस अवधि में अपने दावे के लिए निरंतर दबाव बनाए रखना पड़ता है।

प्र 6. हिंदू धर्म में आश्रम व्यवस्था का वर्णन कीजिए ।(80 शब्द)

उत्तर- हिंदू समाज में आश्रम व्यवस्था का विशेष महत्व है। आश्रम का अर्थ है- प्रयत्न करना तथा आश्रम का शाब्दिक अर्थ है - जीवन यात्रा का पड़ाव। हिंदू समाज में जीवन को सुव्यवस्थित ढंग से जीने हेतु समस्त जीवन को सौ वर्षों का मानते हुए जीवन के पडाव को चार भागों में बांटा गया है-

1. ब्रह्माचर्य आश्रम- यह आश्रम व्यवस्था का प्रथम चरण है। ब्रह्मचर्य आश्रम में ब्रह्मचर्य व्रत- पालन, इंद्रिय निग्रह, व्यायाम ,संध्या, भिक्षाटन, गुरु सेवा, विद्या अध्ययन आवश्यक धर्म माने गए हैं। अनुशासन में रहते हुए संस्कार प्राप्त किए जाते हैं।

2. गृहस्थ आश्रम - गृहस्थ आश्रम में विवाह, संतान उत्पत्ति, पंच महायज्ञ अति आवश्यक धर्म बताए गए हैं। यह पड़ाव जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

3. वानप्रस्थ आश्रम- इस आश्रम में पति-पत्नी दोनों सहयोगी की अवस्था में साथ रहकर ईश्वर की आराधना और उसी में तल्लीन रहने को धर्म बतलाया गया है।

4.संन्यास आश्रम- यह आश्रम व्यवस्था का अंतिम सोपान है। इस अंतिम आश्रम में मनुष्य सांसारिक मोह माया से ऊपर उठकर संन्यास ग्रहण कर लेता है। उसमें लोभ, मोह, ममता, द्वेष, क्रोध ईर्ष्या आदि खत्म हो जाती है।

प्र 7. यज्ञोपवीत संस्कार पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर- यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्ण रूपेण समावेश है। यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है, अत्यंत पवित्र है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्म शास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है।

प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परंपरा थी उसे हमें प्रायः 8 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिए गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा जी जाती थी जिसका पालन गृहस्थ आश्रम में आने से पूर्व तककिया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिए बालक को प्रेरित करना है।

प्र 8. पुरुषार्थों में मोक्ष को स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर- चौथा तथा अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष आत्मा को अपने समस्त स्वाभाविक शक्तियों से संपन्न होने की स्थिति है। मोक्ष से तात्पर्य जन्म मरण के चक्र से मुक्ति है। प्रथम तीन पुरुषार्थ धर्म, अर्थ और काम मनुष्य के भौतिक सुखों के साधन है, इसलिए यह सापेक्ष है और किसी न किसी समय में समाप्त होने वाले हैं। फलतः इन्हें चरम लक्ष्य स्वीकार नहीं किया जा सकता।

चरम लक्ष्य मोक्ष ही हो सकता है क्योंकि यह हमारे शुद्ध स्वरूप का द्योतक है। मोक्ष को निःश्रेयस भी कहा जाता है क्योंकि इससे बढ़कर और कोई दूसरा मूल्य नहीं है। सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर आत्मरूप में स्थित रहने को मोक्ष कहा गया है। यह अत्यन्तिक दुख निवृत्ति की अवस्था है तथा कुछ लोगों के अनुसार यह आनंद की प्राप्ति की भी अवस्था है।

 

Specially thanks to Post and Quiz makers ( With Regards )

P K Nagauri, राजपाल जी


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