यहाँ हमने प्राचीन काल के गुरू महर्षि वेदव्यास, महर्षि वाल्मीकि, परशुराम, गुरु द्रोणाचार्य, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, गुरु सांदीपनि, देवगुरु बृहस्पति, दैत्यगुरु शुक्राचार्य, गुरु वशिष्ठ और आदि शंकराचार्य से जुडी महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराया है जिन्हें पढ़कर आप अपने ज्ञान में वृद्धि के साथ परीक्षाओं में भी अच्छे अंक प्राप्त कर सकते है
1. महर्षि वेदव्यास
अषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था। यही कारण है कि इस दिन को महर्षि वेदव्यास को समर्पित करते हुए वास्तविकयास जयंती या गुरु पूर्णिमा के रूप में भी सनातनधर्मी पूरी आस्था के साथ मनाते हैं। प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुसार महर्षि वेदव्यास स्वयं भगवान विष्णु के ही अवतार थे। महर्षि का पूरा नाम कृष्णद्वैपायन व्यास था। इनके पिता महर्षि पराशर तथा माता सत्यवती थी।महर्षि वेदव्यास ने ही वेदों, 18 पुराणों और दुनिया के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत की रचना की थी। महर्षि के शिष्यों में ऋषि जैमिन, वैशम्पायन, मुनि सुमन्तु, रोमहर्षण आदि शामिल थे।
महर्षि वाल्मीकि को आदिकवि कहा गया है। भारत के सबसे प्राचीन काव्य रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी। मान्यता है वाल्मीकि पूर्व जन्म में रत्नाकर नाम के खूंखार डाकू थे जिन्हें देवर्षि नारद ने सत्कर्मों की सीख दी। डाकू रत्नाकर से साधक बने और अगले जन्म में वरुण देव के पुत्र रूप में जन्में वाल्मीकि ने कठोर तप किया तथा महर्षि के पद पर सुशोभित हुए। महर्षि वाल्मीकि विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कारक माने जाते हैं। इनके शिष्यों में अयोध्या के राजा श्रीराम और सीता के पुत्र लव तथा कुश का नाम सबसे ऊपर लिया जाता है। इनकी शिक्षा और दीक्षा का ही नतीजा रहा कि श्रीराम के दोनों कुमारों ने अस्त्र-शस्त्र संचालन की ऐसी विद्या प्राप्त कर ली थी जिससे उन्होंने एक युद्ध में ना सिर्फ महाबलि हनुमान को बंधक बना लिया था बल्कि अयोध्या की सारी सेना भी इन दो कुमारों के सामने बौनी साबित हुई थी।
प्राचीन भारत के महान योद्धा और गुरुओं में होती है। परशुराम भगवान विष्णु के अंशावतार थे। इनके पिता का नाम ऋषि जमदग्नि तथा माता रेणुका थीं, परशुराम के शिष्यों में भीष्म, द्रोणाचार्य व कर्ण जैसे महान विद्वानों और शूरवीरों का नाम लिया जाता है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार कर्ण ने खुद को सूतपुत्र बताकर परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा ली लेकिन उसके क्षत्रिय होने की जानकारी मिलते ही परशुराम ने उसे शाप दिया कि जब कर्ण को अपने विद्या की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ेगी उस वक्त ये विद्याएं उसका साथ छोड़ देंगी।
4. गुरु द्रोणाचार्य
महाभारत के अनुसार गुरुद्रोण का जन्म एक द्रोणी (पात्र) में हुआ था तथा इनके पिता महर्षि भारद्वाज थे। गुरु द्रोण देवगुरु बृहस्पति के अंशावतार थे। दुर्योधन, दु:शासन, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर आदि इनके प्रमुख शिष्यों में शामिल थे। अर्जुन को ही गुरु द्रोण ने दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान भी दिया था। कहते हैं इसी वरदान की रक्षा के लिए द्रोण ने श्रेष्ठ धनुर्धर एकलव्य से उसका अंगूठा गुरु दक्षिणा में मांग लिया था।
विश्वामित्र जन्म से क्षत्रीय थे लेकिन घोर तप के कारण ही स्वयं भगवान ब्रह्मा ने उन्हें ब्रह्मर्षि की उपाधि से सुशोभित किया। त्रेतायुग में ब्रह्मषि विश्वामित्र ने कुछ काल के लिए ही सही लेकिन अयोध्या के राजकुमार श्रीराम और उनके भाई लक्ष्मण को अपने साथ रखा और उन्हें कई गूढ़ विद्याओं से परिचित कराया। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्मण को कई अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान दिया तथा अपने द्वारा अनुसंधान किये गये दिव्यास्त्रों को भी दोनों भाइयों को प्रदान किया। एक क्षत्रिय राजा से ऋषि बने विश्वामित्र, महान भृगु ऋषि के वंशज थे। यह भी कहा जाता है कि विश्वामित्र ने एक बार देवताओं से रुष्ट होकर अपनी अलग सृष्टि की रचना शुरू कर दी थी।
6. गुरु सांदीपनि
महर्षि सांदीपनि भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे। श्रीकृष्ण व बलराम इनसे शिक्षा प्राप्त करने मथुरा से उज्जयिनी (वर्तमान उज्जैन) आए थे। महर्षि सांदीपनि ने ही भगवान श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। भगवान श्रीकृष्ण ने ये कलाएं मात्र 64 दिन में ही सीख ली थीं। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में आज भी गुरु सांदीपनि का आश्रम स्थित है। गुरु सांदीपनि के गुरुकुल में कई महान राजाओं के पुत्र पढ़ते थे। श्रीकृष्ण ने 18 वर्ष की आयु में उज्जयिनी आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण किया था। इससे ये बात तो साबित होती है कि भगवान विष्णु के पूर्णावतार कहे जाने वाले श्रीकृष्ण को भी गुरु की आवश्यक्ता पड़ी जिन्होंने उन्हें विश्व के कई गूढ़ ज्ञानों से परिचित कराया। सांदीपनी ऋषि को गुरु दक्षिणा देने के लिए श्रीकृष्ण ने यमपुरी की यात्रा की और वहां से सांदीपनी के पुत्र को वापस धरती पर ले आए।
गुरु बृहस्पति देवताओं के भी गुरू हैं। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करते हैं तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं।
8. दैत्यगुरु शुक्राचार्य
दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य का वास्तविक नाम शुक्र उशनस है। शुक्राचार्य हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र थे। भगवान शिव ने ही इन्हें मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया था, जिसके बल पर यह मृत दैत्यों को पुन: जीवित कर सकते थे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि गुरु शुक्राचार्य के शिष्यों में जहां सर्वाधिक संख्या दैत्यों की होती थी वहीं इन्होंने गुरुधर्म का पालन करते हुए देवपुत्रों को भी शिक्षाएं प्रदान की। खुद देवगुरू बृहस्पति के पुत्र कच ने भी शुक्राचार्य से ही शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी। साथ ही भयानक दैत्यों से अपने देवपुत्र शिष्य की रक्षा भी की थी।
गुरु वशिष्ठ सूर्यवंश के कुलगुरु थे। इन्हीं के परामर्श पर महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। श्रीराम सहित चारो भाइयों ने वेद-वेदांगों की शिक्षा गुरु वशिष्ठ से ही प्राप्त की थी। वनवास के लौटने के बाद श्रीराम का राज्याभिषेक भी इन्हीं के द्वारा हुआ था। गुरु वशिष्ठ ने ही वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ श्राद्धकल्प, वशिष्ठ शिक्षा आदि ग्रंथों की रचना की। गुरु वशिष्ठ की गणना सप्तऋषियों में भी होती है।
दक्षिण-राज्य के कालडी़ ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार शिवगुरु दम्पति के घर आदि शंकराचार्य का जन्म हुवा। जगद्गुरु शंकराचार्य ने सात वर्ष की उम्र में ही वेदों के अध्ययन किया और पारंगतता हासिल की। छोटी सी उम्र में ही इन्होंने अपनी माता से संन्यास लेने की अनुमति प्राप्त की और गुरु की खोज में निकल पड़े। सनातन धर्म में मान्यता है कि आदि शंकराचार्य भगवान शंकर के ही अवतार थे। आदि शंकराचार्य ने ही भारत के चार कोनों पर चार पीठों की स्थापना की। इनमें ‘श्रंगेरी' कर्नाटक (दक्षिण) में, ‘द्वारका' गुजरात (पश्चिम) में, 'पुरी' उड़ीसा (पूर्व) में और ज्योर्तिमठ (जोशी मठ) उत्तराखंड (उत्तर) में आज भी मौजूद है। आद्य शंकराचार्य ने मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में ही पवित्र केदारनाथ धाम में इहलोक का त्याग दिया।
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