राजस्थान में स्वतंत्रता से पूर्व कई रियासते थी, इन रियासतों द्वारा अपने अपने सिक्के प्रचलित किए गए थे, जिनकी अपनी कुछ विशेषताएं रही हैं जो अपने आप में एक अलग पहचान रखते थे, इन सिक्कों के माध्यम से राजस्थान की प्राचीन रियासतों की आर्थिक, सामाजिक ,धार्मिक, राजनीतिक स्थितियों और इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है जो निम्न प्रकार है - राजस्थान के प्रमुख स्थलों पर पाए गए सिक्के
ब्रिटिशकाल में सर्वप्रथम टकसाल खोलने की स्वीकृति जयपुर राज्य ने प्राप्त की, यहां के स्थानीय सिक्कों के स्थान पर कलदार (चांदी)के सिक्के प्रचलन में आए, जिन्हें झाडशाही कहा गया, यहां की मुद्रा को झाड़शाही इसलिए कहते हैं क्योंकि उसके ऊपर छह टहनियों के झाड़ का चिन्ह बना रहता था
महाराजा माधोसिंह और राम सिंह ने स्वर्ण सिक्के भी चलाए, माधोसिंह के रुपए को हाली सिक्का कहते थे, इनमें मेवाड़ के महाराणा के सिक्के अधिक मिले हैं, कछवाहा वंश के शासन की स्थापना के पहले यहां यौधेय, गुप्त, सेलेनियम, गधिया इत्यादि की मुद्राएं चलती थी, लेकिन आमेर के कछवाहा शासकों ने अकबर से संबंध स्थापित कर अपनी कक्षा में स्थापित की थी
जयपुर पहला राज्य था जिसे मुगलों द्वारा स्वतंत्र टकसाल कायम करने की अनुमति प्रदान की गई थी, सवाई जयसिंह द्वितीय ने 1728 ई. मे जयपुर नगर में सवाई जयपुर टकसाल की स्थापना की थी, जयपुर की टकसाल के साथ-साथ सवाई माधोपुर, बैराठ, जीकुर, अजमेर, अलवर, बुचारू, सूरजगढ़ खेतड़ी और चारा में भी टकसाल चलती थी
सबसे अधिक सिक्के जयपुर/सवाई माधोपुर टकसाल के मिलते हैं, जयपुर की सिरहड्योढी बाजार चांदी की टकसाल के नाम से प्रसिद्ध है, टकसाल का प्रबंध दरोगा के द्वारा किया जाता है, जयपुर टकसाल का प्रतीक चिन्ह है छह पत्तियों का झाड़ था, जयपुर के सिक्के संपूर्ण भारतवर्ष मे उनकी की शुद्धता के लिए प्रसिद्ध थे, जयपुर राज्य में मुगल काल में मुगली सिक्के चलते थे
महाराजा रामसिंह के शासनकाल में कचनार की झाड(टहनी) से अंकित विशेष प्रकार के सिक्कों का प्रचलन किया गया था, कचनार का पेड़ भगवान श्रीराम का पवित्र प्रतीक चिन्ह था झाडशाही बोली का एक प्रकार भी है, जगत सिंह ने अपनी प्रेयसी रसकपुर के नाम से सिक्के चलाए थे, इसका विवरण कर्नल जेम्स टॉड के द्वारा प्राप्त होता है
जयपुर में तांबे के सिक्के का प्रचलन 1760ई. में हुआ था, इस सिक्के पर शाह आलम अंकित है जिसे झाडशाही पैसा कहते थे, जयपुर रियासत का चांदी का प्राचीनतम सिक्का 1743ई. का हे जो की सवाई ईश्वरी सिंह के समय का है, जयपुर रियासत के झाडशाही के सिक्के जो तांबे के होते थे उनमें झाड़ के साथ मछली का चित्र भी मिलता है
मेवाड़ रियासत में चलने वाले चांदी के सिक्के द्रव, रूपक, और तांबे के सिक्के कर्षापण कहलाती हैं, इतिहासकार वेब के अनुसार प्रारंभ में ये इंडोसेसेनियन शैली के बने थे, जनपद की राजधानी नगरी(मध्यमिका) से चांदी और तांबे की मुद्रा मिली है जो आधुनिक व
ढींगला के अनुरूप थी, मेवाड़ क्षेत्रों से हुणों द्वारा प्रचलित चांदी और तांबे की गधियां मुद्रा भी प्राप्त हुई है
मेवाड़ के गुहिल के सिक्के जो लगभग 2000 है तथा चांदी के बने हुए हैं आगरा के संग्रह से प्राप्त हुए हैं, महाराणा कुंभा के द्वारा चलाए गए चौकोर और गोल चांदी और तांबे के सिक्के मिले हैं जिन पर कुंभकरण कुंभलमेरू आदि अंकित है, महाराजा संग्राम सिंह के द्वारा चलाए गए तांबे के सिक्कों पर स्वास्तिक और त्रिशूल अंकित मिले हैं, मेवाड़ में प्राचीन काल में सोने, चांदी तांबे के सिक्के प्रचलित थे, इन सिक्कों पर मनुष्य, पशु पक्षी, सूर्य, चन्द्र, धनुष, वृक्ष का चित्र अंकित रहता था
इन सिक्कों का आकार चौकोर होता था जिन्हे किनारो से कुछ गोल कर दिया जाता था, इन सिक्कों पर शिवि जनपद अंकित रहता था, इन मुद्राओं पर वृषभ, वराहदेवी आदि के अस्पष्ट चिन्ह होने के कारण इन्हें गधैया सिक्के कहा जाता है, गुहिलपति लेख वाले सिक्कों का प्रचलन गुहिल से ही माना जाता है
अकबर की चित्तौड़ विजय के उपरांत मेवाड़ में मुगल सिक्कों का प्रचलन रहा इन सिक्कों को "एलची" के नाम से जाना जाता था, इसके उपरांत मुगल सम्राट मुहम्मद शाह के काल में मेवाड़ में चित्तौड़, भीलवाड़ा और उदयपुर की टकसालों में स्थानीय सिक्के प्रचलित किए गए, यह स्थानिय सिक्के चित्तौड़ी, भिलाड़ी, उदयपुरी रुपए कहलाये
महाराणा स्वरूप सिंह ने स्वरुपशाही सिक्के चलाए थे जिसके एक ओर चित्रकूट उदयपुर ओर दूसरी ओर दोस्तीलंघना अंकित होता था, महाराणा स्वरूप सिंह के काल में चाँदौडी नामक स्वर्ण मुद्रा का प्रचलन था, मेवाड़ में तांबे के सिक्कों को ढिंगला, भिलाडी, त्रिशुलिया, नाथद्वारिया, आदि नामों से जाना जाता था, मेवाड़ के चित्तौड़गढ़ में शाहआलमी प्रकार का रुपया भी प्रचलन में था जो कि चांदी का था
महाराणा भीमसिंह ने अपनी बहन चंद्रकँवर की स्मृति में चाँदौडी रुपया, अठन्नी, चवन्नी इत्यादि सिक्के चलाए थे, मेवाड़ रियासत के सलूंबर ठिकाने की तांबे की मुद्रा को पदमशाही कहते थे, शाहपुरा में चलने वाली मुद्राएं जो सोने चांदी की होती थी उन्हें ग्यारसन्द्रा और तांबे की मुद्राओं को माधोशाही कहा जाता था
मारवाड़ रियासत के प्राचीन सिक्को को पंचमार्कड कहा जाता था, मारवाड़ रियासत में भी सेलेनियन सिक्के प्रचलन में आए जो कालांतर में गधिया मुद्रा कहलायी थी। प्रतिहार राजा भोजदेव (आदिवराह) के द्वारा चलाए गए सिक्कों पर श्री महादिवराह उत्कीर्ण मिलता है। राठौडों के कन्नोज से मारवाड़ आने पर उन्होंने गढवालों की शैली के सिक्के चलाए।
मारवाड़ में गढवालों की शैली के सिक्कों का प्रचलन भी रहा, जिन्हे गज शाही सिक्के कहा गया है, कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार लगभग 1720ई. में महाराजा अजीतसिंह अपने नाम के सिक्के चलाए थे, मारवाड़ में 18वीं और 19वीं शताब्दी में महाराजा विजयसिंह द्वारा चलाए गए विजय शाही सिक्कों का प्रचलन रहा जिन पर मुग़ल बादशाहों के नाम रहते थे, महाराजा विजयसिंह के द्वारा चलाए गए सिक्के सोने चांदी और तांबे के होते थे
1858 के पश्चात इन पर महारानी विक्टोरिया का नामा अंकित होने लगा, सोजत मे लल्लूलिया रुपया चलता था । मारवाड़ के सिक्कों के लिए जोधपुर, नागौर, पाली और सोजत में टकसाले थी। इन टकसालों के अपने विशेष चिन्ह भी होते थे
सोने के सिक्कों को मोहर कहा जाता था, जो1781ई. से जोधपुर की टकसाल में बननी शुरू हुई थी। अजित सिह अपने नाम का सिक्का चलाया था, जोधपुर में प्रथम नरेशों के सिक्के चलते थे, जोधपुर रियासत के चांदी के सिक्कों पर 7 या 9 पत्तियों वाले झाड और तलवार राज्य के चिन्ह के रूप में मिलती है, जोधपुर शहर की देसी टकसाल में निर्मित चांदी के सिक्के पूरे विश्व में प्रसिद्ध है
सिरोही का स्वतंत्र रुप से कोई सिक्का नहीं था और ना ही यहां कोई टकसाल थी, यहां मेवाड़ का चांदी का भिलाड़ी रुपया और मारवाड़ का तांबे का ढब्बू शाही रुपया चलता था
शाहपुरा के शासकों ने 1760ई. में जो सिक्का चलाया उसे ग्यारसंदिया कहते हैं, यहां मेवाड़ के चित्तौडी और भिलाडी सिक्को व पैसों का भी प्रचलन था।
मुगल काल में जैसलमेर में चांदी का मुहम्मद शाह सिक्का चलता था, 1756 ई. में महारावल अखैसिंह ने चांदी का अखैशाही सिक्का चलाया, जैसलमेर में तांबे का सिक्का प्रचलन में था जो डोलिया (डोडिया) कहलाता था। यह सिक्का इतना छोटा होता था कि इसका प्रयोग कौडियों की भांति किया जाता था
कोटा क्षेत्र में प्रारंभ में गुप्तो व हुणो के सिक्के प्रचलित थे, मध्यकाल मे मांडू तथा सल्तनत के सिक्के प्रचलन में रहे। अकबर के राज्य विस्तार के उपरांत यहां मुगली सिक्कों का प्रचलन हो गया था, कोटा राज्य में होली और मदनशाही सिक्कों का प्रचलन था। यहां की टकसालें कोटा, गागरोन और झालरापाटन में स्थित थी, यहां के तांबे के सिक्के चौकोर आकार के होते थे
धौलपुर में 1804ई. के सिक्के ढलना प्रारंभ हुआ, यहां के सिक्कों को तमंचाशाही कहा जाता था क्योंकि इन पर तमंचे का चिन्ह अंकित होता था
झालावाड मे कोटा के सिक्के प्रचलित थे, यहां 1837 से 1857 तक पुराने मदनशाही सिक्के प्रचलन में थे, 1857 से 1891 तक नए मदनशाही सिक्कों का प्रचलन रहा, इन सिक्को पर पंच पंखुरी और फूली का चित्र अंकित होता था।
बूंदी रियासत के सिक्के
बूंदी मे 1759-1859ई. तक पुराना रूपया नाम का सिक्का चलता था, 1817 ई. में यहां ग्यारह-सना रूपया चलन मे आया था, यहा हाली रुपया भी प्रचलन में था जो 171 ग्रेन का था, 1859 से 1886 तक यही रामशाही रूपया प्रचलन में रहा, 1886 में यहा कटारशाही रुपया ढाला गया। 1901 में बूंदी दरबार ने कलदार के साथ चेहरेशाही रुपया प्रचलित किया।
प्रतापगढ़ रियासत में सामान्यता मॉंडू और गुजरात के सिक्कों का प्रचलन था, प्रतापगढ़ में सर्वप्रथम 1784ई. मे मुगल सम्राट शाह आलम की आज्ञा से महारावल सालिम सिंह ने चांदी के सिक्के ढलवाये, इन सिक्कों को सालिमशाही सिक्का कहा जाता है। 1818 में अंग्रेजों से संधि के बाद नए सालिमशाही सिक्कों का प्रचलन प्रारंभ हुआ, प्रतापगढ़ रियासत में कुछ तांबे के सिक्के भी प्रचलन में रहे जिन पर श्री उत्कीर्ण रहता था।
बांसवाड़ा में भी सालिमशाही रुपए का प्रचलन था, 1870 में महारावल लक्ष्मण सिंह ने सोने, चांदी और तांबे के सिक्के बनाये थे, जिनके दोनों तरफ सांकेतिक अक्षर अंकित करवाएं जो शिव के नाम के सूचक माने जाते थे, इन सिक्कों को लक्ष्मण शाही सिक्के कहा जाता था।
डूंगरपुर रियासत के कर्नल निक्कसन के अनुसार चांदी के सिक्के चलते थे, लेकिन इन सिक्कों के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं
बीकानेर में संभवत:1759ई. मे टकसाल की स्थापना हुई थी, जिसमें मुगल सम्राट शाहआलम के सिक्के ढाले गए थे बीकानेर रियासत के शासकों ने शाहआलम शैली के सिक्कों पर स्वयं के चिह्न भी उत्कीर्ण करवाएं, जिनमें गज सिंह ने "ध्वज" सूरत सिंह ने "त्रिशूल", रतन सिंह ने "नक्षत्र", सरदार सिंह ने "हज", डूंगर सिंह ने "चँवर" और गजसिंह ने मोर छत्र का चिन्ह अंकित कराएं।
भरतपुर रियासत में 1763 में महाराजा सूरजमल ने शाहआलम के नाम के चांदी के सिक्के ढलवाये थे, भरतपुर रियासत की टकसाल डीग और भरतपुर में स्थित थी।
अलवर राज्य की टकसाल राजगढ में स्थित थी, अलवर रियासत में 1772 से 1876 तक बनने वाले सिक्कों को रावशाही रुपया कहा जाता था। 1772 से 1876 तक के बीच बनने वाले सिक्कों का वजन 173 ग्रेन होता था। 1877 के उपरांत अलवर राज्य के सिक्के कलकत्ता की टकसाल में बनने लगे इन का वजन 180 ग्रेन था, इन पर एक तरफ रानी विक्टोरिया का नाम और दूसरी ओर शासक का नाम अंकित होता था
करौली के महाराजा माणक पाल ने सर्वप्रथम 1780 में चांदी और तांबे के सिक्के चलवाए थे, 1906 ई. के पश्चात यही अंग्रेजी सिक्के चलने लगे थे
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2 Comments
vimal kumar
5 years ago - Replyमुगल काल के बाद एलिचा सिक्का कहा प्रचलित था
Manon kumar
6 years ago - ReplySir malavgad sikke kha par mile h