राजस्थान में प्राप्त सिक्के

सिक्कों के अध्ययन को न्यूमिसमेटिक्स के नाम से जाना जाता है, भारत में डी.डी.कौशांबी और रेप्सन इतिहासकार हुआ है जिन्होंने सिक्को के आधार पर भारत का इतिहास लिखने का प्रयास किया है, वैदिक साहित्य में निष्क और शतमान नामक सिक्कों का उल्लेख मिलता है किंतु यह सीक्के अब तक उपलब्ध नहीं हुए हैं, 

राजस्थान में प्राप्त सिक्के

 

आहत सिक्कों (पंचमार्क सिक्कों)

भारत में प्राप्त प्राचीनतम सिक्कों को आहत सिक्कों (पंचमार्क सिक्कों) के नाम से जाना जाता था यह सिक्केे लेख रहित होते थे, यह सिक्के पांचवी सदी ई. पूर्व के हैं। ठप्पा मार कर बनाए जाने के कारण यह आहत मुद्रा कहलाई।

सर्वप्रथम 1835 में जेम्स प्रिंसेप ने इसका नाम आहत सिक्के दिया था, पंचमार्क सिक्कों का समीकरण साहित्य में उल्लेखित कार्षापण के साथ किया गया है, इन सिक्कों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती थी कि यह यह सिक्के चांदी व तांबे के बने होते थे, इन सिक्कों पर लेख के स्थान पर प्रमुख रूप से मछली, हाथी, पेड़, पर्वत, नदी आदि के चित्र उत्कीर्ण होते थे। राजस्थान में आहत (पंच मार्क) के सिक्के बैराठ (जयपुर), आहड (उदयपुर), रेड व नगर (टोक), नोह (भरतपुर), नगरी (चित्तौड़गढ), गुरारा (सीकर), इस्माइलपुर, सॉभर (जयपुर) से प्राप्त हुए हैं 

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रेढ मे उत्खनन डॉक्टर  केदारनाथ पूरी की देखरेख में किया गया था, रेढ व नोह सिक्कों की श्रृखंला प्राप्त हुई है इनमें रेढ से प्राप्त बछघोस के सिक्के महत्वपूर्ण है, जिन पर एक और ब्राह्मी लिपि में सेनापतिस बछघोस का मालव चिह्न के साथ अंकन है, रेढ से प्राप्त सिक्कों के अंत में मित्र शब्द जुड़ा हुआ है इस कारण विद्वानों ने इंहें शुंगवंशीय नरेशों के सिक्के माना है, रेढ में हुई खुदाई में लगभग 3075 चांदी के पंचमार्च सिक्के मिले, ये सिक्के भारत के प्राचीनतम सिक्के हैं जो एक ही स्थान से मिले सिक्कों की सबसे बड़ी संख्या है इन सिक्कों को धरण (पण) कहा गया है इन सिक्कों का वजन 57 ग्रेन है यह सिक्के मोर्य काल के हैं, इन सिक्कों का समय छठी सदी ई.पुर्व से द्वितीय सदी ईसवी पूर्व का है, इन सिक्कों में तांबे की मुद्राओं को गण मुद्राएं कहां गया है जिन्हें मालवा, इंडोसेसेनियन, सेनापति आदि वर्गों में रखा गया है

गुरारा (सीकर जिले) के इस गांव में 2744 पचंमार्क के प्राप्त हुए हैं इनमें से 61 सिक्कों पर थ्री मेंन अंकित है इनमें दो पुरुष और एक महिला की आकृति है     

मौर्य कालीन सिक्के

मौर्य काल में बने सिक्कों में एकरूपता मिलती है इस काल के सिक्कों पर मुख्य रुप से चिह्न मयूर चंद्र और मेरु पर्वत मिले हैं, भारत में लेख वाले सिक्के हिंद यवन (इंडो ग्रीक) शासकों द्वारा चलाए गए थे, उन्होंने भारत में केवल चांदी के ही सिक्के चलाए थे राजस्थान में ऐसे सिक्के विराट नगर से प्राप्त हुए थे, जिनमें हेलियोक्लीज, अपोलोडोटस व मिनेण्डर के सिक्के शामिल हैं

भारत मे सोने के सिक्के सर्वप्रथम मिनेण्डर की यूनानी पत्नी एगेथोइस्लिया द्वारा चलाए गए थे, भारत में स्वर्ण सिक्कों की सुनियोजित श्रंखला को प्रारंभ करने का श्रेय कुषाण शासक विमकदफिसस को है, विमकदफिसस पहला शासक था जिसने भारत में स्वर्ण सिक्कों का सुव्यवस्थित, सुनियोजित श्रृंखला में प्रचलन प्रारंभ किया था

भारत में चांदी के सिक्के सर्वप्रथम शक शासकों ने चलाए थे, भारत में सीसे व पोटीन के सिक्के सातवाहन शासकों ने चलाए, तत्कालीन राजपूताना की रियासतों के सिक्कों के विषय पर केब ने 1893 में द करेंसी ऑफ द हिंदू स्टेटस ऑफ राजपूताना नामक पुस्तक लिखी जो आज भी आदित्य मानी जाती है, कभी-कभी सिक्कों के द्वारा महत्वपूर्ण जानकारी भी मिलती है

एडवर्ड थॉमस ने Chronicles of the Pathan King oF Delhi नामक पुस्तक के पृष्ठ 19 में 1192ई.के सिक्के का चित्र दिया गया है जिस पर एक तरफ मोहम्मद बिन कासिम और दूसरी तरफ पृथ्वीराज का नाम अंकित है, इस सिक्के के प्राप्त होने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि तराइन का द्वितीय युद्ध में पराजय के बाद पृथ्वीराज को गजनीं नहीं लेकर गया था जैसा की चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में लिखा है, अपितु से अजमेर लाया गया और मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज को उसका राज्य अधीनता स्वीकार कर लेने की शर्त के साथ उसे लौटा दिया होगा, इस प्रकार सिक्कों के द्वारा पूरक ऐतिहासिक जानकारी भी प्राप्त होती है

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राज्य में प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व से चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक के पश्चिमी क्षत्रर्पो के सिक्के अजमेरपुष्कर क्षेत्र और बांसवाड़ा जिले के सरवानियॉ ग्राम से मिले हैं, इन छत्रप शासकों में नहपानजय दामनरुद्रदामन रुद्रसिंहजीवदान शामिल है, इसके अतिरिक्त मथुरा के छत्रपों के सिक्के भरतपुर जिले में नोह नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं

वी से 12 वीं शताब्दी तक राज्य में प्रचलित वे सिक्के जिन पर इरान के ससेनियन वंशीय नरेशों का प्रभाव थाइंडो ससेनियन सिक्के कहलाते हैं, राज्य में ऐसे सिक्कों का एक बड़ा भंडार सिरोही जिले के कासीन्द्रा से मिला है, इसके अतिरिक्त यह सिक्के राज्य में नलिया सर, विराटनगर और सांभर (जयपुर), रेड (टैंक), अहोर(जालौर) और दौलतपुरा (भीलवाड़ा) से भी प्राप्त हुए हैं, कालांतर में इन सिक्कों पर राजा का चेहरा और अग्नि वेदिका ने भद्दा रूप ग्रहण कर लिया है

इन सिक्कों को गधैया सिक्कों के नाम से जाना जाता है इन सिक्कों का प्रचलनकाल पाचवां शताब्दी से आठवीं शताब्दी माना जाता है
सिन्ध के जिन अरब गर्वनरों ने आठवीं व नवी शताब्दी में मारवाड़ मेवाड़ व गुजरात पर आक्रमण किया उनके भी चांदी के छोटे आकार के सिक्के राज्य में मंडोर और चौहटन से मिले हैं

कुषाण कालीन सिक्के

कनिष्क ने शक संवत का शुभारंभ किया था, कुषाणों के समय शुद्ध सोने के सिक्के प्रचलित है, कुषाण शासक विमकदफिसेस ने भारत में सर्वप्रथम सोने का सिक्का चलाया। राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के रंगमहल नामक स्थान से 105 तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं जो कुषाणकालीन थे। रंगमहल (हनुमानगढ़ जिले) से प्राप्त कुषाण कालीन सिक्कों को मुरंडा कहा गया है

राजस्थान में कुषाण शासको के सोने व तांबे के सिक्के खेतड़ी, जमवारामगढ़ और बीकानेर से प्राप्त हुए हैं, रंगमहल से प्राप्त तांबे के सिक्के में से इसमें से एक सिक्का कनिष्क प्रथम का भी है, कुषाण शासक कनिष्क भारतीय इतिहास का एकमात्र शासक था जिसके सिक्कों पर बुद्ध का नाम और चित्र उत्कीर्ण है, भारत में स्वर्ण सिक्कों की सुनियोजित श्रंखला का प्रारंभिक कुषाण शासक (विमकदफिसस) के काल में ही प्रारंभ हुआ था।

गुप्तकालीन सिक्के

भारत में सर्वाधिक स्वर्ण सिक्के गुप्त काल में जारी किए गए थे। गुप्त शासकों में सर्वप्रथम सोने के सिक्के चंद्रगुप्त प्रथम द्वारा चलाए गए थे, चंद्रगुप्त प्रथम के सिक्के राजा रानी प्रकार के सिक्के कहलाते हैं, गुप्त शासकों में सर्वप्रथम तांबे के सिक्के राम गुप्त ने चलवाए थे

गुप्त शासकों में छह प्रकार के स्वर्ण सिक्के समुंद्र गुप्त ने चलवाए थे, गुप्त शासकों में सर्वप्रथम चांदी के सिक्के चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने चलाए थे, गुप्त शासकों में सर्वाधिक प्रकार के स्वर्ण सिक्के कुमार गुप्त के द्वारा चलाए गए थे, गुप्त शासक शासकों के सिक्कों पर भारतीय देवताओं का अंकन किया गया है वे है- केशव, स्कंद, विशाखबुद्ध

गुप्तकाल में स्वर्ण सिक्कों को गुप्त अभिलेखों में दिनार और चांदी के सिक्कों को रूपक कहा गया है, राजस्थान में बुंदावनी का टीबा (जयपुर), बयाना (भरतपुर), मोरोली (जयपुर), नलिया सर (सांभर), रैढ (टोंक), अहेडा (अजमेर), सायला (सुखपुरा), देवली (टोंक) से गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएं मिली है 1948 में गुप्त शासकों की सर्वाधिक 18 स्वर्ण मुद्राओं की सबसे बड़ी नदी राजस्थान में भरतपुर जिले के बयाना के समीप हुल्लननपुरा गांव से मिली है जिनकी संख्या लगभग 2000 (1921) है, इन में सर्वाधिक चंद्रगुप्त द्वितीय, विक्रमादित्य के हे

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ग्राम-सायला (सुखपुरा) से मिली 13 स्वर्ण मुद्राएं समुद्रगुप्त (350 ई. से 375 ई.) की है यह सिक्के ध्वज शैली के हैं, इनके अग्रभाग पर समुद्रगुप्त बाए हाथ में ध्वज लिए खड़ा है राजा के बाए हाथ के नीचे लंबवत समुंद्र अथवा समुंद्रगुप्त ब्राह्मी लिपि में खुदा हुआ है
सिक्के के अग्र भाग पर ही समर-विजयो जित-रिपुरजितों दिवं जयति (अथार्थ सर्वत्र विजयी राजा जिसनें सैकड़ों युद्धों में सफलता प्राप्त की और शत्रु को पराजित किया स्वर्ण श्री प्राप्त करता है)  ब्राह्मी लिपि में अंकित हे

इनके पृष्ठभाग पर सिहासनासीन लक्ष्मी का चित्र है, इसी प्रकार की ध्वज शैली के सिक्के यहां से कांचगुप्त के भी मिले हैं, चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के चित्र शैली के स्वर्ण सिक्कों के अग्र भाग में आहुति देता हुआ राजा खड़ा है, उसके बाए हाथ में तलवार की मूठ है राजा के पीछे एक बौना सेवक राजा के सिर पर छत्र लिए हुए खड़ा है, विक्रमादित्य के यहां से धनुर्धर शैली प्रकार के भी सिक्के मिले हैं इन सिक्कों से यह प्रमाणित होता है कि टोंक क्षेत्र के आसपास का क्षेत्र भी गुप्त साम्राज्य का एक अविभाज्य अंग रहा है गुप्त काल के राजाओं के सिक्कों का भूमिगत खजाना (ट्रेजर ट्रेन) अहेड़ा अजमेर से प्राप्त हुआ है।

सल्तनत कालीन सिक्के

जयपुर जिले में गावली से प्राप्त सिक्कों पर एक और मोहम्मद बिन साम और दूसरी ओर श्री हम्मीर है, इल्तुतमिश व बलवंत के सिक्के राज्य में कुंडेरा (सवाई माधोपुर), हर्ष (सीकर), फागी(टोंक), दयारामपुरा (जयपुर) से मिले हैं, मुगल काल में राजस्थान में सिक्कों को अंकित करने के लिए बैराठ, अजमेर व अलवर में टकसाल स्थित थी।

गुर्जर प्रतिहारों के सिक्के

राजस्थान के शासकों ने विविध प्रकार के सिक्के चलाए, पारुथ द्रर्मों का प्रचलन मालवा के परमारों ने किया, विशाल प्रिय द्रर्मों का प्रचलन चालूक्य के समय रहा, इनमें सोने, तांबे और सीसे के सिक्के प्रचलित हुए थे। प्रतिहारों के आदि वराहवराहनाम वाले द्रम और देवी की मूर्ति वाले वृषभ, मत्स्य और अश्वारोही अंकन वाले अनेक सिक्के प्राप्त हुए हैंकुछ सिक्को पर श्रीमदादिवराह का लेख व नरवराहा की मूर्ति अंकित है। 

इनके अलावा बरमल, द्रमार्थद्रमात्रिमाग और पंचीयक द्रम का उल्लेख भी मिलता है, राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से इन सिक्कों की प्राप्ति हुई है, जिन पर यज्ञवेदी और रक्षक चिन्हों की प्रधानता है। यह सेसेनियन शैली से प्रभावित हैं, आदिवराह शैली के इन सिक्कों पर नागरी में श्रीमदादिवराह उत्कीर्ण है, इन सिक्कों का समय शताब्दी से आठवीं शताब्दी के मध्य का है, इन सिक्कों पर राजा का चेहरा और यज्ञ कुंड बना हुआ है लेकिन चिह्न अस्पष्ट होने के कारण इन्हें गधैया सिक्के के नाम से जाना जाता है

चौहानों के सिक्के

चौहानो के कुछ सिक्को पर वृषभ और अश्वारोही अंकित है, चौहान शासकों के सिक्के 11 वीं 13 वीं सदी के प्रारंभ तक जारी किए गए थे। यह सिक्के चांदी व तांबे के होते थे, चौहानों के सिक्कों में द्रम विंशोपक, रूपक, दिनार आदि प्रसिद्ध रहे हैं। अजय देव चौहान की रानी सोमलेखा द्वारा चांदी की मुद्रा और सोमेश्वर द्वारा वृषभ शैली तथा अश्वारोही शैली के सिक्के चलाए गए।

1192 में पृथ्वीराज चौहान द्वितीय के समय का एक सिक्का मिला, जिसमें एक तरफ मोहम्मद बिन कासिम और दूसरी तरफ पृथ्वीराज का नाम अंकित है, इन सिक्के के आधार पर कई इतिहासकार मानते हैं कि तराइन के द्वितीय युद्ध (1192) के पश्चात पृथ्वीराज को गजनी नहीं ले जाया गया था।

चौहान शासको में अजयराज, सोमेश्वर और पृथ्वीराज तृतीय के सिक्के विशेष रुप से उल्लेखनीय है, अजयदेव के सिक्के पर पूर्व पृष्ठ में लक्ष्मी का चिह्न और पृष्ठ तल पर अजय देव का नाम खुदा है, सोमेश्वर के सिक्कों पर एक तरफ बैल और दूसरी तरफ उसका नाम अंकित है, राज्य में चौहानों के सिक्के अजमेर, सांभर, जालौर, नाडोल इत्यादि स्थानों से प्राप्त हुए हैं, वर्तमान में यह सिक्के अजमेर संग्रहालय और कोलकाता संग्रहालय में संग्रहित है। पृथ्वीराज चौहान तृतीय की मृत्यु के बाद मोहम्मद गोरी ने भी चौहानों के अनुरूप सिक्के चलाए थे।

गधिया सिक्के

आरंभिक मध्यकालीन सिक्कों में गधिया सिक्को का एक स्वतंत्र स्थान है, इन्हें गधिया सिक्के इसीलिए कहा गया क्योंकि इन पर अंकित मूर्ति गधे के मुंह की भांति दिखाई देती है वास्तविकता में यह अंकन गधे का नहीं है। प्रतिहारों, मेवाड़ और मारवाड़ में ऐसी मुद्राओं का प्रचलन रहा हैं, नरहर, रेणी, सिरोही, त्रिभुवनगिरि से ऐसे सिक्के मिले हैं

फदिया सिक्के

चौहानों के ह्वास काल से लेकर 1540 ई. तक चलने वाली राजस्थान की स्वतंत्र मुद्रा शैली फदिया नाम से जानी गई है, मेवाड़ में उदयपुर, भिलाड़ीचित्तौड़ और एलची नाम के सिक्के प्रचलित थे। जोधपुर में विजय शाही मुगल प्रभाव वाले सिक्के प्रचलित थे, जब राजस्थान में ब्रिटिश प्रभाव स्थापित हुआ तो उसका प्रभाव सिक्को पर भी दिखाई दिया

मेवाड़ में स्वरूप शाही और मारवाड़ में आलमशाही सिक्के ब्रिटिश प्रभाव वाले थे, इनमें औरंग, आरामहिंद और इंग्लिस्तान, विक्टोरिया लिखा होता था। 1857 के विद्रोह के बाद वाले सिक्कों में श्री माताजीश्री महादेव अंकन वाले सिक्के शुरू हुए, प्रतापगढ़ रियासत में सिक्का मुबारक लंदन प्रचलन में आया

Specially thanks to Post Author - Mamta Sharma

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