1. पुरातात्विक स्त्रोत
2. पूरालेखिय स्त्रोत
3. ऐतिहासिक साहित्य
4. कलात्मक-प्रतीक (स्थापत्य चित्रकला और मूर्तिकला)
5. वर्तमान साहित्य (आधुनिक इतिहास ग्रंथ और इतिहासकार, शोध पत्र-पत्रिकाएं आदि)
डॉक्टर दशरथ शर्मा का कहना है कि राजस्थान के एेतिहासिक स्त्रोत के रूप में मूल रूप से पुरातात्विक एवं साहित्य सामग्री को ले सकते हैं आगे इन दो सामग्रियों को उपशाखाओं में विभक्त किया जा सकता है दोनों विद्वानों की धारणाओं का अवलंबन करते हुए हम राजस्थान के ऐतिहासिक स्त्रोतों का वर्णन निम्न प्रकार से कर सकते हैं
पुरातत्व का अर्थ भूतकाल के बचे हुए भौतिक अवशेषों के माध्यम से मानव के क्रियाकलापों का अध्ययन करना है, इतिहास लेखन व निर्माण में पुरातत्व विषयक सामग्री अति महत्व की होती है, यह सामग्री अपने आप में एक प्रमाण स्वरूप होती है, इसके द्वारा अनेक संदेहों, विवादों और भ्रमो का निराकरण हो जाता है।
राजस्थान के इतिहास निर्माण में पुरातत्व संबंधित सामग्री ने महान भूमिका निभाई है, पुरातात्विक स्त्रोत के अंतर्गत खुदाई में निकली सामग्री, स्मारक, ताम्रपत्र, भवन, मूर्ति, चित्रकला, अभिलेख, सिक्के, भग्नावेश और दानपत्र आते हैं। पुरातात्विक स्त्रोतो के उत्खनन, सर्वेक्षण, संग्रहण, अध्ययन और प्रकाशन आदि का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग करता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना अलेक्जेंडर कनिघंम के नेतृत्व में 1861 में की गयी थी।
राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण कार्य सर्वप्रथम 1871 में प्रारंभ करने का श्रेय ए. सी. एल का कालानल को जाता है, 1902 में जॉन मार्शल के द्वारा इसका पुनर्गठन हुआ था इसके तहत कालांतर में राजस्थान में व्यापक स्तर पर उत्खनन कार्य प्रारंभ किया गया। राजस्थान में उत्खनन कार्य का श्री डी. साकलिया, बी. एन. मिश्रा, आर. सी अग्रवाल, बी. बी. लाल, ए. एन. घोष, दयाराम साहनी, एस. एन. राजगुरु, डी. पी. अग्रवाल, विजय कुमार, ललित पांडे, जीवन खर्कवाल जैसे पूरावेत्ताओं को जाता है ।
पूरालेखीय स्त्रोत से हमारा तात्पर्य उस सामग्री से है जो हिन्दी, राजस्थानी, फारसी और अंग्रेजी में लिखित पत्रों, बहियों, पट्टों, फाइलों, फरमानों, रिपोर्टों आदि के रूप में मिलती है, अथार्थ विभिन्न भाषाओं में लिखित रूप से उपलब्ध सामग्री पूरालेखीय सामग्री कहलाती है। पुरालेखीय शब्द अंग्रेजी के Archives का हिंदी रूपांतरण है, पुरालेख से अर्थ प्राचीन घरानों व सरकारी विभागों में पाई जाने वाली सामग्री से है।
मुग़ल शासको को सरकारी कागजात सुरक्षित रखने का शौक था, इसके लिए वह एक अलग अधिकारी रखते थे, उसका प्रभाव राजपूत नरेशों पर भी पड़ा, उन्होंने अपने आदेशों का रिकॉर्ड रखना प्रारंभ किया। इस दिशा में मालदेव का नाम प्रथम आता है, जब राजपूत नरेश मुगल सम्राटों के अधीन हो गए तो उनसे पत्र व्यवहार होने के कारण कागजी कार्यवाही अधिक होने लगी, अत राजपूत नरेशों द्वारा जारी किए गए फरमानों से उनकी शासन व्यवस्था का पता चलता है।
मुगल सम्राटों द्वारा जारी सनदो व फरमानों से यह पता चलता है कि उन राजपूत नरेशों के संबंध मुगल सम्राटों से किस प्रकार के थे, उनका मनसबी औहदा कितने का था, किन राजपूत नरेशो ने मुगल प्रभुता स्वीकार कर ली थी, मुगल दरबार में उनका मान-सम्मान केसा था, इसके अलावा मुग़ल सम्राटों द्वारा समय-समय पर जारी होने वाले फरमानों से यह ज्ञात होता है कि अमुक राजपूत नरेश को कहां-कहॉ मुगल सेवा करनी पड़ी।
सैनिक सेवा में सफलता मिलने पर मुगल सम्राट द्वारा राजा को क्या पुरस्कार दिया गया, सैनिक अभियान में असफलता मिलने पर मुग़ल सम्राटों की ओर से उन्हें क्या दंड मिला, मनसब पद कितने से घटाकर कितना कर दिया गया आदि की जानकारी पूरा लेख के माध्यम से हमें प्राप्त होती है। राजस्थान से संबंधित ऐसी समस्त सामग्री राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली और राजकीय पुरा अभिलेखागार बीकानेर में मिलती है।
पुरातत्व और संग्रहालय विभाग का गठन 1950 में किया गया था, जोधपुर राज्य के प्रमुख रिकॉर्ड को दस्ती रिकॉर्ड कहा जाता था। दस्तूर कोमवार जयपुर राज्य के अभिलेखों की महत्वपूर्ण अभिलेख श्रृंखला था। पट्ट बही के अंतर्गत जोधपुर के शासकों की दान प्रियता वह धार्मिक सहिष्णुता का उल्लेख मिलता है।
एक रियासत के राजा द्वारा दूसरी रियासत के राजा के बीच के पत्र व्यवहार को खरीता बही कहा जाता है, राजा की दैनिक क्रिया कलापों व वैवाहिक संबंधों का उल्लेख करने वाली बही को हकीकत बही कहते हैं, रियासत काल में उदयपुर राजा एकीकृत वार्षिक आय-व्यय विवरण जिन अभिलेखों से ज्ञात करते हैं उन्हें पडाखा (पक्का खाता जमा खर्च) कहते हैं। सवाई जयसिंह द्वारा लिखित जिज मोहम्मद शाही पुस्तक से तत्कालीन खगोल विज्ञान का ज्ञान होता है ।
ऐतिहासिक साहित्य तो हमें मूल रूप से राजस्थान के इतिहास की जानकारी कराने में सहायक होता है, यह साहित्य हमें संस्कृत, राजस्थानी, हिंदी व फारसी भाषा में उपलब्ध होता है, हालांकि कई ग्रंथ लेखकों द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करने के उद्देश्य से नहीं रचे गए थे, तब भी वह राजस्थान के इतिहास के अच्छे स्त्रोत बने हुए हैं। वेद हमारे धार्मिक ग्रंथ हैं पर वह भी सरस्वती नदी और महाकाव्य काल में राजस्थान में निवास करने वाले मत्स्य व साल्व लोगों पर भी प्रकाश डालते हैं।
महाभारत से ज्ञात होता है कि पांडवों ने अपना अज्ञातवास राजस्थान में ही व्यतीत किया अतः स्पष्ट है कि राजस्थान के साहित्य ग्रंथों में हमें राजस्थान के तत्कालीन धर्म, समाज और राजनीतिक वातावरण का भी अच्छा वर्णन मिलता है। पाणिनि के महाकाव्य पतंजलि के अष्टाध्यायी से मध्यमिका पर यवनो के आक्रमण का बोध होता है।
बौद्ध धर्म ग्रंथों से भी पुरातन राजस्थान के कुछ विषयों का ज्ञान होता है इस प्रकार कतिपय धार्मिक ग्रंथ भी राजस्थान के ऐतिहासिक स्त्रोत की भूमिका निभाते हैं, बाण के हरिश चरित्र से राजस्थान में गुर्जरों के अस्तित्व की जानकारी मिलती है इस प्रकार साहित्य सामग्री भी ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करने में सहयोग प्रदान करती है
Specially thanks to Post Author - Mamta Sharma
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